पुस्तक के विषय में
नानक-वाणी पर ओशो के प्रवचनों ने कुछ ऐसी चीजों को लेकर मेंरे आंख-कान खोले, जिनके बारे में पहले ज्यादा नहीं जानता था । हर अमृत वेला के समय में मैंने ओशो के प्रवचनों को सुना, जिनमें ओशो व्याख्या के लिए वेद-उपनिषदों और मुस्लिम सूफी संतों की शिक्षाओं का उल्लेख करते हैं । इससे मेरा यह विश्वास और भी दृढ हो गया कि ओशो हमारे देश में जन्मी महान आत्माओं में से एक हैं। ओशो के ये प्रवचन केवल सिखों के लिए ही नहीं, बल्कि उन सबके लिए उपयोगी हैं जो स्वयं को भक्ति-मार्ग की परंपरा से अवगत करना चाहते हैं ।
गुरु नानक के लोकप्रिय, गीतवाही वचन 'जपुजी' एक अद्वितीय काव्य है; उतना ही अद्वितीय जितनी कि ओशो द्वारा की हुई उन वचनों की व्याख्या । उसे व्याख्या कहना ठीक नहीं है, मानो नानक देव इक्कीसवीं सदी में फिर प्रकट हुए और ओशो के मुख से अपने ही सूत्रों को उन्होंने नवजीवन दिया । 'एक ओंकार सतनाम' जपुजी साहिब का पुनर्जन्म है-आधुनिक परिधान में, बहते हुए निर्झर से शांत शीतल शब्दों में । ओशो की सबसे अधिक हर-दिल-अजीज किताबों में से एक है 'एक ओंकार सतनाम ।' इसे पढ़ने के लिए सिक्स होना जरूरी नहीं है, जो इसे पढ़ता है, सिक्स हो जाता है । सिक्स अर्थात शिष्य-मौलिक अर्थ में प्रयोग कर रही हूं । इसका सिक्स धर्म से कोई लेना-देना नहीं है । जब हृदय शिशु की सी कोमल भावदशा में जाकर सीखने के लिए आतुर हो जाता है तब शिष्य बनता है ।
जब इस किताब का जन्म हो रहा था तो किसे पता था कि ओशो के होठों से झरते ये गीत सिक्सों के लिए नानक देव को समझने की कुंजी बन जाएंगे । श्री खुशवंत सिंह ने ओशो के प्रवचनों को सुनने के बाद लिखा, आज तक मै गुरु नानक को एक ग्रामीण संत मानता था । उनके वचनों में मुझे मजा नही आता था । लेकिन ओशो ने जिस तरह जपुजी के मर्म को खोला है, उसे सुन कर मेंरी गुरु नानक में पहली बार श्रद्धा जगी ।
'जपुजी' पर ओशो के प्रवचन खासकर दुनिया भर के सिक्सों में और अन्य सभी साहित्य प्रेमियों के लिए परमात्मा की वाणी है ।
गुरु नानक की पूरी तपस्या का सार-निचोड़ ओशो ने सहज ही इन शब्दों में रख दिया : 'नानक ने परमात्मा को गा-गा कर पाया । गीतों से पटा है मार्ग नानक का । इसलिए नानक की खोज बड़ी भिन्न है । पहली बात समझ लेनी जरूरी है कि नानक ने योग नहीं किया, तप नहीं किया, ध्यान नहीं किया । नानक ने सिर्फ गाया । और गा कर ही पा लिया । लेकिन गाया उन्होने इतने पूरे प्राण से कि गीत ही ध्यान हो गया, गीत ही योग बन गया, गीत ही तप हो गया ।'
मशहूर शायरा अमृता प्रीतम ओशो की मुरीद तो हैं ही, लेकिन इस किताब से भी अभिभूत हैं । उन्होंने 'एक ओंकार सतनाम' पर जो लिखा है वह हिमालय की वादियों में गूंजती हुई संतूर की मानिंद है । मुलाहिजा फरमाइए:
'पूरे चांद की रात जब सागर की छाती में उतर जाती है, तो अहसास की जाने कैसे इंतहा उसके पानी में लहर-लहर होने लगती है । कुछ उसी तरह की घटना होती है जब ओशो की आवाज, सुनने वाले की रगों में उतरती है और अंतर्मन में जाने कितना कुछ भीगने और छलकने लगता है । एक सरसराहट पैदा होती है, जब बहती हुई पवन पेडू के पत्तो में से गुजरती है । लेकिन वो सरसराहट एक टकराव से पैदा होती है । पवन के और पत्तों के टकराव से । एक नदी के पास बैठ जाएं तो कलकल का एक नाद सुनाई देता है । लेकिन वो ध्वनि पानी की और चट्टान की टक्कर से पैदा होती है । वीणा के तार छिड़ जाएं तो वो ध्वनि हाथ के और तार के टकराव से पैदा होती है । और इन सब ध्वनियों की ओर संकेत करते हुए ओशो हमें वहां ले जाते हैं-नानक के एक ओंकार की ओंर-जहां हर तरह का टकराव खो गया, द्वैत खो गया । जहां शक्ति कणों ने एक आकार ले लिया:एक ध्वनि का, ओंकार की ध्वनि का । इसी ध्वनि को गुरु नानक ने सत्तनाम कहा, एक संकेत दिया जहां दुनिया के दिए हुए सभी नाम खो जाते हैं । एक ही बचता है-इक ओंकार सतनाम । इक ओंकार सतनाम ।
'ओशो की आवाज हमें सत्त और सत्य के अंतर में ले जाती है । जहां विज्ञान अकेले मस्तक के माध्यम से सत्य को खोजता है और कवि अकेले मन के माध्यम से सत्त को खोजता है । मन और मस्तक अकेले-अकेले पड जाते हैं । और ओशो एक संकेत बन जाते है नानक के उस अंतर्अनुभव का, जहां दोनों का मिलन होता है । विज्ञान और कला का द्वंद्व खो जाता है और हम ओंकार में प्रवेश करते है । ओशो की आवाज जब बहती हुई पवन की तरह किसी के अंतर में सरसराती है, एक बादल की तरह घिरती हुई बूंद-बूंद बरसती है, और सूरज की एक किरण होकर कहीं अंतर्मन में उतरती है तो कह सकती हूं वहां चेतना का सोया हुआ बीज पनपने लगता है । फिर कितने ही रंगों का जो फूल खिलता है उसका कोई भी नाम हो सकता है । वो बुद्ध होकर भी खिलता है, महावीर होकर भी खिलता है, कृष्ण होकर भी खिलता है, और नानक होकर भी खिलता है ।
'अलौकिक सच्चाइयां जो दुनियावालों की पकड़ में नहीं आती, उन्हे कहने के लिए कुछ प्रतीक चुन लिए जाते हैं । कुछ गाथाएं जोड़ ली जाती हैं, जो सच्चाइयों की ओर एक संकेत बनकर सदियो के संग-संग चलती है । ये गाथाएं लोगों के अंतर में सोई हुई संभावनाओं को जगाने के लिए होती है । लेकिन जब संप्रदाय बनते हैं, नज़र और नजरिया छोटी-छोटी इकाइयों में सीमित होता चला जाता है, तो प्रतीक रह जाते है, अर्थ खो जाते है । और लोग खाली-खाली निगाहों से हर प्रतीक को नमस्कार करते हैं लेकिन उसी तरह उदासीन बने रहते हैं ।
'ओशो ने जो दुनिया को दिया है, वो सादा से लफ्ज़ों में कह सकती हूं कि चेतना की क्रांति है, जो ऐसी हर गाथा के प्रतीक को अपने पोरों से खोलती है । इक ओंकार की ओर नानक की बात करते हुए वो ऐसी कितनी ही गाथाओं की बात करते है-वो एक नदी में तीन दिन के लिए उतर जाने की बात हो या लालू की रोटी से दूध की धारा बहने की बात हो या किसी नवाब के कहने पर नमाज पढ़ने की बात हो या मक्का में हर ओर काबा के दिख जाने की बात हो- ओशो हर गाथा से गुजरते हुए अपनी आवाज से एक दिशा देते चले जाते हैं, जो लोगों के भीतर मे उतरती है, उनकी चेतना की सोई हुई संभावनाओं को जगाने के लिए । कोई नाम, कोई सत्य अपना नहीं होता जब तक वह अपने अनुभव में नहीं उतरता । इसी अपने अनुभव की बात करते हुए मैं कह सकती हूं कि मैं जब भी नानक को समझना चाहती हूं तो देखती हूं कि ओशो वहां खड़े हैं । मुझे संकेत से वहां ले जाते हैं जहां नानक के दीदार की ' झलक मिलती है । मैं कृष्ण को समझना चाहती हूं तो पाती हूं कि सामने ओशो हैं और फिर वो मुस्कराते से कृष्ण की ओट मे हो जाते हैं । वो बुद्ध के मौन में भी छिपते हैं और मीरा की पायल में भी बोलते है । जपुजी की आत्मा में उतरना हो तो मैं समझती हूं कि इस काल में हमें ओशो की आवाज एक वरदान की तरह मिली है जिससे हमारी चेतना का बीज इस तरह पनप सकता है कि हमारे भीतर नानक खिल जाएंगे, इक ओंकार खिल जाएगा ।'
'एक ओंकार सतनाम' का पंजाबी और अंग्रेजी अनुवाद भी उपलब्ध है । यह किताब असल में बोली हुई है, यह संकलित बाद में की गई । ओशो की जादू भरी आवाज में इन शब्दों को सुनना अपने आपमें गहरे ध्यान का अनुभव है । जिसने एक बार उस आवाज को सुना है वह किताब को पढ़ते वक्त उसे सुन भी पाएगा । ओशो को सुनना जलप्रपात के करीब बैठने जैसा है । प्रपात की फुहार आपके तन को हलका-हलका स्पर्श करती है और गिरते हुए पानी का संगीत आपके मन को झंकारित करता है ।
जाग्रत व्यक्ति भी जलप्रपात ही होता है; पर वह खुद ही नहीं जागता, औरों को भी जगाता रहता है । यही ओशो गुरु नानक के बारे में कहते हैं:
'नानक कहते हैं, जब भी कोई मुक्त होता है, अकेला ही मुक्त नहीं होता । क्योंकि मुक्ति इतनी परम घटना हें, और मुक्ति एक ऐसा महान अवसर है-एक व्यक्ति की मुक्ति भी-कि जो भी उसके निकट आते है, वे भी उस सुगंध से भर जाते है । उनकी जीवन-यात्रा भी बदल जाती है । जो भी उसके पास आ जाते है, वे भी उस ओंकार की धुन से भर जाते हैं । उनको भी मुक्ति का रस लग जाता है । उनको भी स्वाद मिल जाता है थोड़ा सा । और वह स्वाद उनके पूरे जीवन को बदल देता है ।'
आपको भी वह स्वाद लगे, आपका भी जीवन बदले, इस शुभाकांक्षा के साथ ।
अनुक्रम
1
आदि सचु जुगादि सचु
2
हुकमी हुकमु चलाए राह
28
3
साचा साहिबु साचु नाइ
50
4
जे इक गुरु की सिख सुणी
74
5
नानक भगता सदा विगासु
98
6
ऐसा नामु निरंजनु होइ
120
7
पंचा का गुरु एकु धिआनु
144
8
जो तुधु भावै साई भलीकार
166
9
आपे बीजि आपे ही खाहु
186
10
आपे जाणै आपु
208
11
ऊचे उपरि ऊचा नाउ
230
12
आखि आखि रहे लिवलाइ
258
13
सोई सोई सदा सचु साहिब
280
14
आदेसु तिसै आदेसु
300
15
जुग जुग एको वेसु
322
16
नानक उतमु नीचु न कोइ
344
17
करमी करमी होइ वीचारु
368
18
नानक अंतु न अंतु
394
19
सच खंडि वसै निरंकारु
420
20
नानक नदरी नदरि निहाल
444
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