अठारहवी सदी में पाश्चात्य साम्राज्यवादी देशों ने अफ्रीका एवं एशिया में अपने साम्राज्यवादी नीति का विस्तार प्रारम्भ किया था। भारत में 1757 ई० प्लासी के युद्ध में ब्रिटिशों की विजय ने बंगाल में अंग्रेजी शासन की नींव डाली, और देखते ही देखते 1847 ई0 तक भारत की सभी क्षेत्रीय शक्तियों को पराजित कर अंग्रेजों ने भारत को दासता की जंजीरों में जकड़ दिया।
मेरा लेखन का शीर्षक भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में कानपुर की भूमिका (1857 ई० से० 1925 ई० तक) है। भारत की स्वतन्त्रता प्राप्ति में कानपुर के योगदान को अपने शोध के माध्यम से प्रस्तुत किया है। भारत की स्वतन्त्रता प्राप्ति की गाथा किसी एक व्यक्ति, वर्ग या पार्टी की देन न होकर उन सभी व्यक्तियों, वर्मा एवं पार्टियों की बदौलत आई, जिन्होंने राष्ट्र की आजादी के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया।
देश के राष्ट्रीय आन्दोलन पर नजर डालते ही यह स्पष्ट हो जाता है कि राष्ट्र को स्वतन्त्र कराने हेतु एक लम्बी लड़ाई भारतीय जनमानस एवं ब्रिटिशों के मध्य हुई, जिसकी परिणिती 1947 ई० में भारत की स्वतन्त्रता के रूप में सामने आई। स्वतन्त्रता की ये दास्तां भारत के राष्ट्रीय आन्दोलनों की विविधता जाने बिना समझना आसान नहीं होगा। ऐसे में किसी क्षेत्र विशेष का योगदान कितना महत्वपूर्ण रहा आन्दोलनों में इसका निर्णय उसकी सक्रियता के माध्यम से जाना जा सकता है। जो स्थानीय इतिहास के महत्व को इंगित करता है। प्राय राष्ट्रीय इतिहास में स्थानीय इतिहास को वो स्थान प्राप्त करने हेतु सशक्त भूमिका प्रस्तुत करनी होती है।
भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में कानपुर कई मामलो में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जुड़ा रहा है तथा कई अवसरो पर घटना के प्रमुख केन्द्र के रूप में काम किया है। चाहे वो 1857 ई० की क्रान्ति हो जिसमें बिठूर (कानपुर) को केन्द्र बनाकर नाना साहब ने 4 जून 1857 ई0 को अग्रेजों के विरूद्ध कानपुर को नेतृत्व प्रदान किया। कुछ समय के लिए यहाँ से ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ फेंका।
ऐसा ही परिदृश्य लगभग उत्तर-पूर्वी भारत के कई भागों का था. जहाँ ब्रिटिशों की सत्ता मृतप्राय हो चुकी थी। किन्तु शीघ्र ही ब्रिटिशों ने कान्ति को दबाकर अपनी शारान राता की पुर्नस्थापना की किन्तु अभी वो समय नहीं आया था कि पुनः ब्रिटिशों के विरुद्ध सशक्त आन्दोलन प्रारम्भ किया जा सके जिसके निम्नलिखित कारण इसी कान्ति में ही मौजूद थे। अत इस प्रथम व्यापक प्रयास के उपरान्त एक लम्बी खामोशी सी छा गई भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में।
इस दौरान 1858 ई० की महारानी विक्टोरिया घोषणा पत्र के रूप में ब्रिटिशों का नया रूप भारतीय पटल पर देखने को मिला। किन्तु इससे भारत की दशा में कोई सुधार नहीं हुआ। अभी भी भारत की औद्योगिक रूप से पिछड़ा रखा गया जिसका कारण था ब्रिटेन में औद्योगिक क्रान्ति जिसके लिए भारत को कच्चे माल की मण्डी एवं विनिर्मित वस्तुओं का बाजार बनाये रखना था।
इस प्रक्रिया में कृषि व्यवस्था भी चरमरा गई अत्यधिक लगान एव भूमि सुधार में कोई रूचि न लेना एक परम्परा सी बन गई, जिसने अकालों का दौर प्रारम्भ कर दिया जो ब्रिटिश अव्यवस्था की देन कहा जा सकता है। इस दौरान भारतीय समाज अंग्रेजी शिक्षा के माध्यम से पश्चिमी देशों एवं पुनर्जागरण के उन्नत विचारों के सम्पर्क में आये। इस प्रगति ने एक बौद्धिक वर्ग तैयार किया जिसने भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों एवं अपने हक के लिए आवाज उठाने की प्रेरणा का संचार किया।
ऐसे में कई सामाजिक, राजनीतिक संस्थाओं का जन्म हुआ। जिसने भारतीयों में राजनीतिक चेतना का संचार किया, वहीं कानपुर ने भी अपनी औद्योगिक पहचान बनाना प्रारम्भ किया, भले ही इसकी प्रारम्भिक शुरुआत अंग्रेजों द्वारा ही क्यों न की गई हो? 3 मार्च 1859 ई० को प्रथम बार ईस्ट इण्डियन रेलवे के कानपुर और इलाहाबाद के बीच चले जाने से इसका व्यापारिक महत्व बढ़ गया। देखते ही देखते यह उत्तर भारत का प्रमुख औद्योगिक नगर के रूप में सामने आ रहा था। इस औद्योगिक प्रगति ने प्रत्यक्ष एवं परोक्ष दोनों रूपों में भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन को मजबूती प्रदान की, चाहे वह स्वयं उत्पादन करने में सक्षम बनने के रूप में हो या आर्थिक रूप से भारतीय औद्योगिकरण को बढ़ावा मिलने से हो।
ऐसे में कई सामाजिक, राजनीतिक संस्थाओं का जन्म हुआ। जिसने भारतीयों में राजनीतिक चेतना का संचार किया, वहीं कानपुर ने भी अपनी औद्योगिक पहचान बनाना प्रारम्भ किया, भले ही इसकी प्रारम्भिक शुरुआत अंग्रेजों द्वारा ही क्यों न की गई हो?
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