पुस्तक के विषय में
पहेली में आप्त-पास में पाई जाने वाली वस्तुओं का वर्णन घुमा-फिराकर रोचक ढंग से किया जाता है । जिससे उत्तर देने वाला निरुत्तर हो जाता है । बडे-बूढे बच्चों से पहेलियां बूझते रहते ही हैं । इनसे बच्चों का मनोरंजन भी होता है और ज्ञानवर्द्धन भी । विख्यात कवियों ने भी पहेलियां रची हैं । उनकी भी कुछ पहेलियां इस पुस्तक में संकलित की गई हैं ।
आशा है ये पहेलियां पाठक वर्ग के लिए मनोरंजक और ज्ञानवर्द्धक होगी । इन पहेलियों का संकलन बाल भारती के पूर्व संपादक सूर्यनारायण सक्सेना ने किया है ।
दो शब्द
बच्चे जिस तरह गीत, कविता, कहानियां आदि पढ़ना और याद करना चाहते हैं उसी तरह उन्हें पहेलियों की भी बड़ी भूख रहती है । इसी को पूरा करने के लिए यह पुस्तक प्रकाशित की जा रही है ।
हम देखते हैं कि आजकल हर उम्र के लोगों के लिए मनोरंजन या अक्ल पर सान चढ़ाने के साधन भी अलग- अलग हो गए हैं । ऐसा कोई साधन नहीं बचा है जिसमें परिवार के बड़े-छोटे सभी मिलकर भाग ले सकें । पहेलियां वास्तव में एक ऐसा साधन हैं जो इस कमी को पूरा कर सकती हैं और पूरा परिवार मिल बैठकर इनका आनंद ले सकता है ।
आशा है हमारे सभी पाठकों को यह पुस्तक पसंद आएगी क्योंकि इस प्रकार का साहित्य उन्हें पढ़ने को बहुत कम मिलता है ।
भूमिका
संभवत: बात को चक्करदार ढंग या घुमा-फिराकर कहने की इच्छा ने पहेलियों को जन्म दिया होगा । पहेली में आम जीवन में और अपने- अपने आसपास पाई जाने वाली या काम आने वाली वस्तुओं का वर्णन इस ढंग से किया जाता है कि उत्तर देने वाला कुछ देर के लिए चक्कर में पड़ जाता है, लेकिन इस चक्करदार भाषा में भी उस वस्तु की सारी विशेषताएं बता दी जाती हैं । इस तरह पहेलियां बूझने से प्रश्न करने वाले और बताने वाले दोनों का ही बड़ा मनोरंजन होता है । गांव-देहात में बड़े-बूढ़े अक्सर बच्चों से पहेलियां बूझ। करते हैं । उनसे सीखकर बच्चे आपस में ये पहेलियां अते हैं और उनके लिए यह काफी मनोरंजक होता है । खुशी की बात यह है कि विख्यात कवियों और अन्य साहित्यिकों ने भी पहेलियां लिखना घटिया काम नहीं समझा और बड़े निस्संकोच भाव से अनेक पहेलियों की रचना की है ।
सच कहिए तो पहेली बूझना एक तरह से मनुष्य की अक्ल पर सान चढ़ाने के समान है । बच्चों में हर चीज को जानने की स्वाभाविक उत्सुकता बहुत अधिक रहती है, इसलिए उन्हें पहेलियां बहुत प्रिय लगती हैं । अक्सर स्कूलों और गांव या गली-मोहल्लों में बच्चों की टोलियों में आपस में पहेलियों की बूझ-बुझोअल हुआ करती है ।
पहेलियों में किसी मामूली-सी चीज का जिस ढंग से वर्णन होता है उस ढंग से और बहुत- सी चीजों का ज्ञान हो जाता है । मान लो साल या वर्ष की बात कहनी है तो उसे कहा जाएगा- 12 घोड़ी, 30 गरारी, 365 चढ़ी सवारी । तो इस तरह घोड़ी, गरारी, सवारी आदि वस्तुओं का भी बच्चों को यों ही परिचय मिल जाता है । इस प्रकार पहेली बूझना केवल खेल नहीं, बल्कि एक प्रकार का बौद्धिक व्यायाम भी है ।
बहुत-सी पहेलियों में उत्तर समाया रहता है फिर भी इसकी भाषा इस तरह की होती है कि इस बात का उत्तर देने वाला आसानी से समझ नहीं पाता । इस प्रकार कुछ पहेलियां बड़ी सरल और कुछ काफी कठिन होती हैं । इनका उत्तर ढूंढने के लिए अपने दिमाग पर काफी जोर देना पड़ता है और यही पहेली बूझने वाले का अभीष्ट होता है ।
अधिकांश पहेलियां चूंकि बोलचाल की भाषा में हैं इसलिए इसमें ब्रज, अवधी और बहुत-सी आंचलिक बोलियों के शब्द रहते हैं, किंतु अमीर खुसरो और अमीन जैसे फारसी के विद्वानों ने भी पहेलियां लिखी हैं । अत: उनमें उर्दू और फारसी के शब्द भी काफी आ गए हैं । फिर भी उर्दू फारसी के कठिन शब्द बोलचाल की भाषा में इस होशियारी से टांके गए हैं कि पहेली के समझने में कोई कठिनाई नहीं होती और पहेली का मनोरंजक रूप बराबर बना रहता है ।
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