पुस्तक के विषय में
मदनमोहन मालवीय (25 दिसंबर 1861-12 नवंबर 1946)! एक व्यक्ति-महान परंपरा के प्रतीक, अपने आप में एक संस्थान, स्वाधीनता आदोलन और राष्ट्रीय नवजागरण के महत्वपूर्ण संदर्भ प्रस्थान, जिससे गुजरना भारतीय नवजागरण की गौरवशाली परंपरा से परिचित होना है । वे हिंदी प्रदेश के उन थोड़े से लोगों में से थे, जिनकी पहचान अखिल भारतीय थी । उनका सजग-सक्रिय राजनीतिक-सांस्कृतिक चिंतन कई दशाब्दियों तक फैला हुआ है । 1880-1940 की उनकी पूरी जीवन-यात्रा और विचार-यात्रा स्वाधीनता संग्राम की संघर्षशीलता, स्वदेशी की उद्यमशीलता, हिंदू विश्वविद्यालय के निर्माण की प्रयत्नशीलता और भारतीय राष्ट्रीयता को मजबूती देने की अंतर्कथा है । वे कांग्रेस के माध्यम से राजनीतिक सांस्कृतिक कार्यों में सक्रिय होते हैं, अभ्युदय, लीडर, मर्यादा की पत्रकारिता से नवजागरण की पत्रकारिता का विकास करते हैं, प्रेस एक्ट की बर्बरता का विरोध करते हैं, स्वदेशी का उद्घोष करते हैं, भारत की आर्थिक बदहाली के लिए ब्रिटिश साम्राज्यवाद की आलोचना करते हैं, हिंदू-मुस्लिम एकता के सामूहिक प्रयास का आह्वान करते हैं, हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि की वकालत करते हैं, शिक्षा का भविष्य और भविष्य की शिक्षा का ध्यान रखकर हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना करते हैं-मदनमोहन मालवीय के सभी कार्य नवजागरण की विकास यात्रा के द्योतक हैं और महत्वपूर्ण संदर्भ भी । अपने विचार चिंतन में वे पूरी भद्रता और शालीनता के साथ राष्ट्र निर्माण में तत्पर रहे और ब्रिटिश विरोध के लिये प्रतिबद्ध भी ।
संपादक : डॉ. समीर कुमार पाठक; जन्म 1982, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी से बी. एन एम.ए. और लगभग एक साल शोध-कार्य भी । फिर 'बालकृष्ण भट्ट और हिंदी नवजागरण' विषय पर पी.एच-डी. उपाधि, रूहेलखंड विश्वविद्यालय, बरेली से । बालकृष्ण भट्ट पर विनिबध प्रकाशित (उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ, 2012) । दस्तावेज, कथाक्रम, वर्त्तमान साहित्य, पाखी, आजकल और अमर उजाला में आलोचना-टिप्पणियाँ प्रकाशित । नवजागरण विमर्श के अंतर्गत बालकृष्ण भट्ट, मदनमोहन मालवीय, दशरथ प्रसाद द्विवेदी और मौलाना अबुलकलाम आजाद जैसे नवजागरण के लोकचिंतकों के महत्वपूर्ण दस्तावेजों के संकलन-संपादन में सक्रिय । संप्रति : हिंदी विभाग, गाँधी फ़ैज़-ए-आम कॉलेज, शाहजहाँपुर में अध्यापन कार्य (असिस्टेंट प्रोफेसर) से संबद्ध ।
भूमिका
मदनमोहन मालवीय : एक नवजागरण मेधा
हिंदी भापा-भाषी क्षेत्र के नवजागरण, स्वाधीनता आदोलन और भारतीय राष्ट्र के निर्माण में मदनमोहन मालवीय (25 दिसंबर 1861-12 नवंबर 1946) का योगदान अन्यतम है । 19वीं सदी का नवजागरण, जब भारत की अंतरात्मा नई करवट ले रही र्थां, उसका राष्ट्रीय-सांस्कृतिक-जनतांत्रिक विवेक निर्मित ही रहा था-उस निर्माण में राममोहन राय, केशवचंद्र सेन, विवेकानंद, महात्मा ज्योतिबा फुल, दादा भाई नौरोजी, सर सैय्यद अहमद खाँ, मौलाना अबुल कलाम आजाद और महात्मा गाँधी सबकी भूमिका अपने-अपने ढंग से 'औपनिवेशिक दमन से पीड़ित और बहुपरतदार सामाजिक-धार्मिक रूढ़ियों से अते सामाजिक क्रांति के प्रयासों को व्यापक वनाने की थी। नवजागरण कै अग्रदूतों का चिंतन बहुधार्मिक, बहुभाषिक और बहुजातीय देश को औपनिवेशिक वातावरण में भी राजनीतिक जागरूकता के लिए संघर्षरत था तथा बुद्धिवाद, समाज सुधार और आधुनिक-संस्कृति के निर्माण के लिये प्रयासरत भी था । नवजागरण विमर्श की उस वैचारिक चेतना, आर्थिक विश्लेषण और अंग्रेजी राज के स्वरूप की पहचान के बीच उसकी अंदरुनी दुविधा, कशमकश और चाँदनी की-सी शीतल सौम्यता के प्रतिनिधि व श्रेष्ठ सिद्धांतकार हैं-मदनमोहन मालवीय । वे हिंदी प्रदेश के उन थोड़े से लोगों में से थे जिनकी पहचान अखिल भारतीय थी । रोमै रोला के शब्दों में-मदनमोहन मालवीय ' 'गाँधी जी के वाद भारत के सम्मानित व्यक्तियों में एक हैं । वह ऐसे महान राष्ट्रीयतावादी हैं, जो प्राचीनतम हिंदू विस्वासों और आधुनिकतम वैज्ञानिक विचारा में समन्वय कर सकते हैं' ' (रोमै रोलां का भारत, भाग-2, पूर्वोंदय प्रकाशन, नई दिल्ली-1 998; पृ. 183) ।
मदनमोहन मालवीय का सार्वजनिक जीवन 188० मैं 'प्रयाग हिंदू समाज' की स्थापना के साथ प्रारंभ होता है; हिंदी नवजागरण के क्रांतिकारी लेखक बालकृष्ण भट्ट (संपादक-हिंदी प्रदीप 1877; इलाहाबाद) और पं. आदित्यराम भट्टाचार्य (म्योर सेन्ट्रल कालेज में संस्कृत के अध्यापक और संपादक 'इंडियन यूनियन' 1885; इलाहावाद) के सानिध्य में उत्तरोत्तर विकसित होकर कांग्रेस की गतिविधियों से सक्रिय हो जाता है । उनका सजग-सक्रिय राजनीतिक-सांस्कृतिक चिंतन छह दशाब्दियों तक फैला हुआ है । 1880 से 1940 तक की उनकी पूरी जीवन यात्रा स्वाधीनता संग्राम की संघर्षशीलता, स्वदेशी की उद्यमशीलता, हिंदू विश्वविद्यालय निर्माण की प्रयत्नशीलता और भारतीय साझी विरासत के लिये क्रियाशील बने रहने से भरी पड़ी है । वे असहयोग आदोलन के पहले 1909 और 1918 मैं दो वार कांग्रेस के अध्यक्ष रहे, साथ ही 1932 व 1933 कै कठिन दौर में भी उन्होंने दो बार कांग्रेस की अध्यक्षता की । वह नवजागरण की पत्रकारिता, स्वदेशी आंदोलन, सनातन धर्म प्रचार, हिंदू-मुस्लिम एकता, देवनागरी लिपि आदोलन तथा काशी हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना जैसे विभिन्न मोर्चे पर सक्रिय रहे और आजीवन कांग्रेस कै शीर्ष नेतृत्व में बने रहे ।
मदनमोहन मालवीय के चिंतन के एक छोर पर धर्म-भक्ति-आध्यात्म तथा दर्शन का संश्लेष हैं, प्राचीन-नवीन, प्राच्य-पाश्चात्य, मानवीकी-विज्ञान, धर्म-विद्या न्है मैल से सांस्कृतिक उत्थान की छटपटाहट है तो दूसरे छोर पर स्वदेशी-स्वराज, आर्थिक विकास और राष्ट्रमुक्ति की छटपटाहट भी है । राष्ट्रीय चेतना और औपनिवेशिक दमन के खिलाफ विरोधी स्वर को वे हिंदुस्तान, अभ्युदय, लीडर, और मर्यादा की पत्रकारिता द्वारा गत्वरता देते हैं, कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में अध्यक्षीय वक्तव्यों व राजनीतिक पत्रों तथा अन्य वक्तव्यों के द्वारा राजनीतिक कौशल, हिंदू-मुस्लिम एकता और संगठनात्मक क्षमता को मजबूत वनाने का आह्वान करते हैं और गीता-प्रवचन तथा सनातन धर्म के माध्यम से धार्मिक-आध्यात्मिक चिंतन पर भी विचार करते हैं । हिंदू विश्वविद्यालय का निर्माण फिर झइंदू विश्वविद्यालय कै लिये .अपना सव कुछ बलिदान कर, लगे रहना उनकी पुन तं ओर लगन का श्रेष्ठ उदाहरण है । विश्वविद्यालय निर्माण की उनकी योजना पर उनक मित्रों का ही विश्वास नहीं था । गोपालकृष्ण गोखले नै उन्हें 'हैव यू विकम मैड' कहा तो सर सुन्दरलाल-'व्हट अवाउट योर टॉय यूनिवर्सिटी?' कहकर चुटकी लिया करते थे लो केन उापनी संकल्प शक्ति के कारण मालवीय जी ने हजारों की मासिक आय और चमकती वकालत को विश्वविद्यालय निर्माण कै लिए लात मार दिया । उनके वकालत छोड़ने पर तत्कालीन हाईकोर्ट के एक जज ने टिप्पणी की 'मिस्टर मालवीय हेड द बॉल पेट हिज फीट, बट हि रिफ्यूज्ड हू किक इट'-यह उनके त्याग और संकल्प समर्पण की अनूठी मिसाल है । अपने विचार, चिंतन में वे पूरी भद्रता और शालीनता के साथ राष्ट्र निर्माण मैं तत्पर रहे और ब्रिटिश विरोध के लिये प्रतिबद्ध भी । मालवीय जी ने पच्चीस वर्ष तक केंद्रीय और प्रांतीय विधान सभाओं में निर्वाचित सदस्य की हैसियत से काम किया । इस रूप में उन्होंने न सिर्फ सरकार की प्रशासनिक-आर्थिक नीतियों की आलोचना की, बल्कि जनता की दुर्दशा के लिए अंग्रेजी राज को जिम्मेदार भी ठहराया । उनकी दृष्टि इस मामले मैं एकदम स्पष्ट है कि अंग्रेजी राज का मुख्य उद्देश्य भारत का आर्थिक शोषण है । करो के द्वारा, मुक्त-वाणिज्य-व्यापार के द्वारा, उन्हें यहाँ का धन खींचकर इंग्लैंड ले जाना था । उन्हें न भारत से सहानुभूति थी, न भारतवासियों से । भारत एक कृषि प्रधान देश है, यही की आबादी का 75 प्रतिशत भाग आज भी भोजन और जीवनयापन के लिए कृषि पर निर्भर है । अत: भारत की वास्तविन्द्ध उन्नति का अर्थ था-कृषि की उन्नति । लेकिन ' 'कृषि की दुर्गति हो गई है, कृषि लाभकारी वृत्ति नहीं रही, कड़ा बंदोबस्त, टैक्स, पुलिस से अलग परेशानी' ' (हिंदी प्रदीप, मई 1879) मची हुई है । हिंदी प्रदेश के नवजागरण के लोकचिंतक इस प्रश्न पर बेहद चौकन्ने हैं कि भूमि कर कहीं उठा, टैक्स कही माफ हुआ, जन साधारण का भय कहीं दूर हुआ, नागरिकों कै राजनीतिक जीवन का रास्ता कहीं साफ हुआ-यह प्रश्न, पहचान और पहचान में खौलते गुस्से को मदनमोहन मालवीय के लेखन मैं देखा जा सकता है । यह पहचान उन लोगों सै भिन्न है जो मानते हैं कि अंग्रेज आये, उन्होंने नये उद्योग-धंधों का विकास किया, रेल-डाक-तार के साधनों का विकास किया, शिक्षा-सुशासन का नारा दिया, न्याय प्रणाली लागू की और हिंदुस्तान की तरक्की हुई । लेकिन मदनमोहन मालवीय के अनुसार ' 'यदि गवर्नमेंट, एक सभ्य गवर्नमैंट के समान इस देश की प्रजा के प्रति अपना सच्चा कर्त्तव्य निभाना चाहती है तौ उसे चाहिए कि थोड़े दिन के लिए रेल के विस्तार... देश की शोभा की फिक्र छोड़कर देश की प्रजा की उन्नति में उस रुपये को लगाये' '(अभ्युदय; '27 अक्टूबर 1907) । वे चिंता करते हैं कि अन्न के व्यापारी हिंदुस्तान के गाँव का अन्न खींचकर अपने स्वार्थ कै लिये विलायत भेजते हैं, इसके कारण इस देश में जहाँ अन्न बहुतायत से होता है, बारह महीने अकाल का-सा भाव छाया रहता है, इसलिये ' 'अन्न का बाहर जाना बंद करना प्रजा की प्राण रक्षा के लिए पहली आवश्यकता है' ' (अभ्युदय; 27 अम्बर 1907) । उनका दृष्टिकोण साफ है कि ब्रिटेन कै आर्थिक वर्चस्व को तोड़े बिना और जातीय शिक्षा पर बल दिये विना देश-दशा की खुशहाली असंभव है, क्योंकि गवर्नमेंट सेना पर इतना व्यय करती है, इस देश में यदि इसका आधा भी प्रजा को विद्या पढ़ाने और उसकी सुख-संपत्ति तथा पौरुष को बढ़ाने में खर्च किया जाये तो देश का दुःख-दारिद्रय और दुर्बलता मिट जाये, किंतु इसका क्या आशा है''! (अभ्युदय; 23 मार्च 1907) अंग्रेजी राज में लगान का बढ़ना, उसे कड़ाई से वसूल किया जाना-इन सबका सम्मिलित परिणाम हुआ-बड़े पैमाने पर भुखमरी । भयंकर दुर्भिक्ष और जानमाल की अपार क्षति के संदर्भ मैं मदनमोहन मालवीय की 'विकराल अकाल' (अभ्युदय; 25 अम्बर 1907) 'अकाल' (अभ्युदय; 31 दिसंबर 1907 ), 'पार्लियामेंट में भारत की चर्चा' (अभ्युदय; 23 मार्च, 1907), 'हिंदुस्तान के आय-व्यय का विचार' (अभ्युदय; 30 अप्रैल, 1907), 'हमारी सनद और राजकर्मचारी' (अभ्युदय; 2 मई, 1912), भारतीय सेना (अभ्युदय; 9 मई,1912) तथा '25 सैकड़ा लगान कम होना चाहिये' (मर्यादा; अप्रैल, 1914) जैसी टिप्पणियों से अंग्रेजी राज की उनकी समझ और अर्थतंत्र के मूल्यांकन की अग्रगामिता सिद्ध होती है । अंग्रेजों ने भारत कौ आर्थिक रूप से कैसे तबाह किया, वहीं के औद्योगिक विकास को किस प्रकार रोके रखा गया-मदनमोहन मालवीय इसका सप्रमाण विवेचन करते हैं कि भारत को कृषि प्रधान देश बनाये रखकर ही इंग्लैंड के माल कौ भारत में बचा जा सकता था । 'भारतीय औद्योगिक कमीशन की रिपोर्ट पर असहमति लेख' (1916) में मालवीय जी यह भी स्पष्ट करते हैं कि भारत के वाजार को इस्तेमाल करने के लिए न केवल आर्थिक साधनों से बल्कि राजनीतिक व सैन्य शक्ति के द्वारा भारतीय उद्योग धंधों को तबाह किया गया । आज 21वीं शताब्दी मैं भूमंडलीकरण और मुक्त बाजार के द्वारा पूँजी की मनमानी होड़, नये ढंग की ईस्ट इण्डिया कंपनी को लाने, उसकी भागीदारी बढ़ाने में सक्रिय राजनीतिक पैंतरेबाजी का सही मूल्यांकन नवजागरण के आर्थिक चिंतन के संदर्भ में किया जाये तो मदनमोहन मालवीय के आर्थिक विश्लेषण की महत्ता व अर्थवत्ता प्रमाणित होती है । भारत की आर्थिक बदहाली में अंग्रेजी राज की भूमिका, औपनिवेशिक शोषण का, जिस तैयारी के साथ वे विश्लेषण करत हैं, साम्राज्यवादी लूट की जो तस्वीर प्रस्तुत करते हैं, उसका प्रत्याख्यान करते हैं और दुनिया के अन्य देशों कै आर्थिक विकास को ध्यान में रखकर भारत की आर्थिक उन्नति के लिए जो सुझाव प्रस्तुत करते है-वह सखाराम गणेश देउस्कर की प्रसिद्ध पुस्तक 'देशेर कथा' की परंपरा का विकास है । भारतीय औद्योगिक कमीशन की रिपोर्ट पर असहमति जताते हुए भारत व्यवसायिक व आर्थिक इतिहास का विश्लेषण करते हुए यह टिप्पणी उन्होंने सर राजेन्द्र मुखर्जी को नाराज करके लिखी थी, बनो उस समय कमीशन के अध्यक्ष थे । मदनमोहन मालवीय ने लॉर्ड लिनलिथगो की अध्यक्षता मैं गठित कृषि आयोग (22 फरवरी, 1927) के सामने गवाही देते हुए कृषि और कृषि शिक्षा पर जोर दिया था । मदनमोहन मालवीय के धर्म प्रतिष्ठापक या राजभक्ति कं प्रति झुकाव पर जोर देने की जगह यदि उनकी आर्थिक टिप्पणियों का मूल्यांकन किया जाये तो नवजागरण कै आर्थिक लेखन की समृद्ध परंपरा का महत्व समझा जा सकता है । आर्थिक सुधार और मुक्त अर्थव्यवस्था का वर्तमान संदर्भ उनके विश्लेषण को और अधिक प्रासंगिक बनाता है । वे सीमा शुल्क संबंधी नीतियों की आलोचना करते हैं, हिंदुस्तान मैं यूरोपीय माल को सहायता देने का विरोध करते हैं, प्रेस विधान की वर्बरता का विरोध करते हैं; भारतीय विधान काउंसिल, अथतंत्र का मूल्यांकन, जमींदारी व्यवस्था का विरोध तथा स्थायी बंदोवस्त की आवश्यकता, शर्त्तबद्ध कुली प्रथा की समाप्ति, अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा, अनिवार्य कन्या शिक्षा की आवश्यकता, भारत रक्षा तथा रौलट् बिल का विरोध, इण्डेम्निटी बिल इत्यादि का मदनमोहन मालवीय द्वारा किया गया मूल्यांकन, उसका विरोध-हिंदी नवजागरण की व्यापकता का प्रमाण है और इस धारणा का खंडन करता है कि? 'नागरी लिपि, हिंदी भाषा और गौरक्षा इन्हीं तीनों मैं 19वीं सदी के हिंदी नवजागरण के प्राण बसते थे' ' (वीरभारत तलवार; राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद और हिंदी नवजागरण; तद्भव-7; अप्रैल 2002; पृ. 36) । मदनमोहन मालवीय के यहाँ राजनीति-अर्थतंत्र से लेकर भाषा-संस्कृति और स्वदेशी को धुरी बनाकर एक ताकतवर साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रीय संयुक्त मोची बनाने का प्रयास दिखलाई पड़ता है ।
हिंदी भाषा-भाषी क्षेत्र के नवजागरण के संदर्भ में मदनमोहन मालवीय पर विचार करते हुए एक बात बेहद महत्वपूर्ण है कि 19वीं सदी के पश्चिमोत्तर प्रांत में आधुनिक शिक्षा प्राप्त जो छोटा-सा शहरी भद्रवर्ग उभरा, उसकी पूरी चर्चा सर सैय्यद अहमद खाँ, राजा शिवप्रसाद सितारहिन्द और भारतेन्दु हरिश्चंद्र से ही पूरी नहीं होती, लेकिन दुर्भाग्य यह है कि ऐसे ही संदर्भों को लेकर हिंदी भाषा-भाषी क्षेत्र के नवजागरण पर कुछ निर्णायक बातें कही गई हैं और कही जा रही हैं; मसलन-''मदनमोहन मालवीय के लिए हिंदी एक हिंदू राजनैतिक जाति निर्मित करने और उसके प्रतिनिधि बनने के उनकें प्रयास का अंग थी और इस उद्देश्य से वे सार्वजनिक क्षेत्र में गतिशील हुए, जैसे हिंदू सभाएँ, गोरक्षा, हिंदू छात्रों के लिए शैक्षिणिक सुविधाएँ' ' (फ्रैंचेस्का आर्सीनी हिंदी का लोकवृत 1920-1940; वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली-20 11; पृ. 405) । इसके साथ ही एक दूसरा संदर्भ भी देखना महत्वपूर्ण है-'' 1890 के दशक में हिंदी भाषा और नागरी लिपि के आदोलन का नेतृत्व करने वाले मदनमोहन मालवीय ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत गोरक्षा के सवाल से की थी ...हिंदी और नागरी के अलावा मदनमोहन मालवीय ने पश्चिमोत्तर प्रांत में और उसके बाहर भी गौरक्षा आदोलन खड़ा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई...मदनमोलन मालवीय ने गौशाला और च्यवन आश्रम खोलने के अलावा काशी में गोरक्षामंडल कायम किया । वे नई बनी कांग्रेस के सबसे पहले नेता थे, जिन्होंने गोरक्षा के मुद्दे को कांग्रेस के मंच सै उठाया और उसे एक राष्ट्रीय प्रश्न बनाया' ' (वीरभारत तलवार; रस्साकशी: 19वीं सदी का नवजागरण और पश्चिमोत्तर प्रांत; सारांश प्रकाशन, दिल्ली-2002; पृ. 249-300)। यहाँ मदनमोहन मालवीय के संदर्भ में गोरक्षा, गोरक्षा आदोलन, गोशाला, व्यवन आश्रम, गोरक्षामंडल पर जोर देखने योग्य है । (लेकिन 1877 में मद्रास में स्थापित सोसाइटी फॉर दि प्रिवेंशन ऑफ क्रुएलिटी टु एनिमल; सीतापुर में सैम्पद नजीर अहमद द्वारा स्यापित 'इस्लामी गोरक्षा सभा' तथा 1908 में सर आशुतोष मुखर्जी की 'गोरक्षा संघ' पर कोई टीका-टिप्पणी नहीं है फिर 19वीं सदी के पश्चिमोत्तर प्रांत के नवजागरण पर विचार करते हुए गोरक्षा पर अतिरिक्त जोर देने का क्या कारण है? सं.) यहाँ यह भी देखने यौग्य है कि कैसे कांग्रेस के मंच से गोरक्षा का प्रश्न राष्ट्रीय प्रश्न माना गया है लेकिन 'पंजाबी' का मुकदमा' (अभ्युदय; 5 फरवरी 1907), 'राष्ट्रीयता और देशभक्ति' (अभ्युदय; 13 सितंबर 1907), 'स्वदेशी भाव' (अभ्युदय; 3 अप्रैल 107), 'स्वदेशी आदोलन' (अभ्युदय; 5 अगस्त 1907), 'स्त्री शिक्षा' (अभ्युदय; 5 फरवरी 1907), 'शिक्षा संबंधी प्रस्ताव की आलोचना' (19 मार्च 1912) 'हमारी दशा और हमारा मुख्य कर्त्तव्य' (अभ्युदय; 4 जून 1907)-जैसे ढेर सारे महत्वपूर्ण प्रश्नों पर चुप्पी! यह चुप्पी क्यों 'उन्हें भी मदनमोहन मालवीय ने उठाया था, नवजागरण कालीन पत्रकारिता (हिंदुस्तान, अभ्युदय, लीडर और मर्यादा) के माध्यम से और कांग्रेस के माध्यम से भी! हिंदी भाषा-भाषी क्षैत्र के नवजागरण के संदर्भ में मदनमोहन मालवीय की छवि धार्मिक नेता या हिंदू विश्वविद्यालय के संस्थापक के रूप मैं अधिक होती रही है । उनके संबंध में सनातनी या हिंदू मान्यताएँ साम्राज्यवादी विचारकों ने इस रूप में प्रस्तुत की हैं कि वं जिस हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व करते हैं, उसमें मुसलमान भाईचारे का सवाल ही पैदा नहीं होता । हिंदू राष्ट्रवादी विचारकी द्वारा उन्हें हिंदू राष्ट्रवाद के प्रतिनिधि या सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्रवर्त्तक के रूप में भी प्रस्तुत किया जाता रहा है । संयोगवश उनकी वेशभूषा ऐसी है, वे हिंदू महासभा से संबद्ध भी रहे हैं, उन्होंने नागरी लिपि के लिए आदोलन -चलाया, हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना की, सनातन धर्म के महत्व को प्रतिष्ठित किया, हिंदी की वकालत करते थे, हिंदू थे-इसलिये हिंदुवादी भी थे । सांप्रदायिक विचाराधारा की बेरोकटोक प्रगति कौ दिखाने के लिए और 19वी सदी के नवजागरण को हिंदू-मुस्लिम वर्चस्व की लड़ाई सिद्ध करने के लिए शायद यह संदर्भ पर्याप्त भी हो, लेकिन यह धारणा जितनी भ्रांत है, उससे अधिक मूल श्रोत से दूर भी है । हिंदू-मुस्लिम दंगों का सीधा संबंध ब्रिटिश कूटनीति से नहीं है-यह धारणा 'साम्राज्यवादी-पूँजीवादी' विचारकों और 'सांस्कृतिक राष्ट्रवादी' विचारकों दोनों के राजनीतिक दर्शन के अनुकूल है क्योंकि पहले की अपनी सभ्यता प्रतिष्ठापक भूमिका सिद्ध करने का अधिकार मिल जाता है और दूसरे को अपने लंपट चरमपंथ को जारी रखने का आधार मिल जाता है । इसलिए मदनमोलन मालवीय के संबंध में दोनों की दुरभि संधि उतनी आश्चर्यजनक नहीं है । उससे अधिक आश्चर्यजनक है-भारतीय राष्ट्र और उसकी सांस्कृतिक आधुनिकता के ऐतिहासिक दस्तावेज, जहाँ उपनिवेशवाद से मुक्ति और सामाजिक क्रांति की भारतीय आवाजें हैं, नवजागरण के सौ से अधिक शख्सियतों के विमर्श हैं-'सामाजिक क्रांति के दस्तावेज' का डॉ. शंभुनाथ द्वारा किया गया अनोखा दस्तावेजीकरण के शताधिक विमर्शो से भी मदनमोहन मालवीय का बाहर होना । 'सामाजिक क्रांति के दस्तावेज' (सं. डॉ. शंभुनाथ, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2004) की विचार परिधि में मदनमोहन मालवीय का न होना, इस बात का द्यातक है कि नवजागरण की ढेर सारी विचार सामग्री अभी विमर्श के बाहर है, उन्हें विमर्श में लाने के लिए नवजागरण कै रचनाकारों के संपूर्ण पाठ या प्रनिनिधि पाठ को सापने लाना आज की पहली जरूरत है । चूँकि नवजागरण की ढेर सारी सामग्री अभी भी प्रकाशित नहीं है, इसलिए जिसे जो मिलता है, 'उसे वह अंधे के हाथ बटेर लगने' (रस्साकशी, भूमिका) जैसा लगता है, जबकि हिंदी भाषा-भाषी क्षैत्र के नवजागरण का विवेचन-विश्लेषण करने के लिए सर सैयद अहमद खाँ, शिवप्रसाद सितारेहिन्द, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, बालकृष्ट भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र, गागेशशंकर विद्यार्थी का ही नहीं बल्कि मदनमोहन मालवीय, मौलाना महमूद-उल-हसन शेख-उल-हिन्द, हसरत मोहानी, पीर मौहम्मद मुनिस, मौलाना हुसैन उाहमद मदनी, दशरथ प्रसाद द्विवेदी तथा मौलाना मजहर-उल-हक़ की वैचारिक चेतना को भी समझना आवश्यक है । क्योंकि हिंदी भाषा-भापी क्षेत्र के नवजागरण में शिक्षा. धार्मिक सुधार, राजनीतिक चेतना, आधुनिकीकरण के प्रसार कैं साथ न सिफ सर सैय्यद अहमद खाँ कहते हैं-''राष्ट्र शब्द में मैं 'हिंदू और 'मुसलमान' दोनों को शामिल करता हूँ' । सर सैय्यद हिंदुस्तान को एक दुल्हन के रूप मैं देखते हैं जिसकी दौ खूबसूरत आखें हैं: हिंदू और मुसलमान! न सिर्फ भारतेन्दु 'हिंदू जैन, मुसलमान सब आपस में मिलिये, जाति में कोई चाहे ऊँचा हो या नीचा हो, रावका आदर कीजिये-की अपील करते हैं बल्कि मदनमोहन मालवीय भी देश और जाति के अभ्युदय के लिये यह जरूरी मानते हैं कि ' 'हिंदुस्तान में अब केवल हिंदू ही नहीं बसते हैं-हिंदुस्तान अब केवल उन्हीं का देश नहीं हैं । हिंदुस्तान जैसे हिंदुशां का प्यारा जन्म स्थान है, वैसा ही मुसलमानों का भी है । ये दौनों जातियाँ अब यहाँ वसती हैं शोर सदा बसी रहेंगी । जितनी इन दोनों में परस्पर मेल और एकता बढ़ेगी, उतनी ही देश की उन्नति मैं हमारी शक्ति बढ़ेगी और उनमें जितना वर या विरोध या अनेकता रहेगी, उतना ही हम दुर्वल रहेंगे । जब ये दोनों एकता के साथ उन्नति की कोशिश करेंगे तभी देश की उन्नति होगी । इन दोनों जातियों में और भारतवर्ष कै सब जातियों-हिंदू-मुसलमान, ईसाई-पारसी मैं सच्ची प्रीति और भाइयों जैसा स्नेह स्थापित करना हम सक्का कत्तव्य है'' (हिंदू-मुसलमानों में एका; अम्युदय; 26 फरवरी 1908) । 'हिंदी, हिंदू और हिंदुत्व' तथा 'हिंदू होने पर गर्व है' का नारा लगाने वाली मानसिकता से यह स्पष्ट अंतर है-मदनमोहन मालवीय का । वे 'देश की उन्नति के कार्यो मैं जो पारसी, मुसलमान, यहूदी देशभक्त हैं उनके साथ मिलकर कार्य करने की' (मदनमोहन मालवीय लेख और भाषण; संकलनकर्ता-वासुदेव शरण अग्रवाल, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, 1961 । पृ. 4) वकालत करते हैं । वे जोर देते हैं कि ''भारत में अनेक जातियाँ हैं । यदि कोई जाति चाहे कि दूसरी जाति यहाँ से चली जाये तो यह उसकी भूल है । हिंदू भी यहीं रहेंगे और मुसलमान भी यहीं रहेंगे । हमें राक-दूसरे को भाई समझना चाहिए । हिंदू मन्दिर में जायें, मुसलमान मस्जिद में' और ईसाई गिरजाघर में, लेकिन देश हित में हम सबको एकत्र हो जाना चाहिए'' (लाहौर के मोती दरवाजे का भाषण, 1923) लेकिन यदि यह सिद्ध करना है कि ' 'मदनमोलन मालवीय ने पश्चिमोत्तर प्रांत में जिस राजनीतिक नेतृत्व को विस्तृत रूप में खड़ा किया, इसकी चारित्रिक विशेषता या छवि यह भी-एक द्विज हिंदू जो छोटा जमींदार या वकील है, हिंदी-नागरी और गोरक्षा का प्रचारक और कांग्रेस का स्थानीय नेता है'' (वीरभारत तलवार; रस्साकशी; पृ. 351) तो यह याद न पड़ेगा कि वह हिंदी प्रदेश के कुछ थोड़े से लोगों मैं है जिन्होंने 'अफगानिस्तान के अमीर की भारत यात्रा' (अभ्युदय 5 फरवरी 1907) पर लंबी टिप्पणी लिखी; कांग्रेस के अधिवेशन की चार बार अध्यक्षता की (फिर स्थानीय नेता कैसे? सं.) वै 1922 के मुल्तान के हिंदू-मुस्लिम दंगे पर हकीम उाजमल खाँ के साथ मदनमोहन मालवीय की महान वस्तृता को भी भूल जाते हैं, जिसकी 310 सितंबर 1922 के अंक मैं 'सियासत' ने भूरी-भूरी प्रसंशा छापी; वे भारतीय पत्रकारिता के इतिहास की दुर्लभ घटना-'स्वराज' का मुकदमा और मदनमोहन मालवीय की चिंता को भी भूल जाते हैं । 'स्वराज'-उम्र ढाई साल, कुल अंक 75, कुल संपादक आठ और सभी संपादकों को मिलाकर सजा 125 वर्ष। 1909 में स्वराज का ऐतिहासिक मुकदमा और 'स्वराज' की लड़ाई के लिए मदनमोहन मालवीय की चिंता उनकी प्रतिबद्धता और प्रगतिशील भूमिका का ज्वलंत प्रमाण है । उर्दू भाषी अखबार की आड़ में मालवीय जी पर टिप्पणियाँ हुई, लेकिन उन्होंने स्पष्ट उत्तर दिया-' 'मैंने जो कुछ किया है, वह देश में प्रेस की स्वतंत्रता दृढ़ करने के लिए किया है । यदि में ऐसा नहीं करता तो मैं विचार स्वातंत्र्य समाप्त करने के दोष का भागी होता । जहाँ तक इन युवकों की सहायता की वात है, मैं कैंसे न करता? क्या कोई पिता अपने पुत्रों की केवल मतभेद के कारण छोड़ देता है और विशेषत: ऐसे पुत्रों को जिनकी देशभक्ति चमचमाते हुए स्वर्ण के समान उज्ज्वल है' ' (भारतीय पत्रकारिता कोश-भाग-II), विजयदत्त श्रीधर; वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली-प्रकाशन; पृ. -53 1) । इसलिये यह सोचना कि 19वीं सदी के हिंदी क्षेत्र का नवजागरण हिंदू भद्र वर्ग और मुस्लिम भद्र वर्ग के बीच
अलगाव, विरोध और वर्चस्व का आदोलन है, सही न होगा । जो लोग ऐसा सोचते-विचारते हैं, लिखते-पढ़ते है, उनसे मेरा निवेदन है कि 1880 में गोरक्षा कै मुद्दे पर भड्के विवाद और रिपोर्टिग (रस्साकशी; पृ. 35) का आप उल्लेख कीजिए, लेकिन अम्युदय की 'हिंदू-मुसलमानों में एका' (28 फरवरी 1907), 'धर्मानुसार प्रतिनिधियों का चुनाव' (19 फरवरी 1907) जैसी टिप्पणियों को भी उद्धृत कीजिये; गोरक्षा, सनातन धर्म, भाषा-लिपि संबंधी सामग्री पर विचार कीजिए, लेकिन भारी मात्रा में राजनीतिक-आर्थिक लेखन की उपेक्षा मत कीजिए-उनके चिंतन में अंतर्विरोध हो सकता है और है भी पर उन्हैं हिंदुवादी संकीर्ण सिद्ध करना सही नहीं होगा । मेरा यह भी निवेदन है कि हिंदी भाषा-भाषी क्षेत्र के नवजागरण पर विचार करते हुए हिंदी भाषा-भाषी क्षेत्र की कुछ पत्रिकाओं से मनमाने ढंग की सामग्री को ही प्रतिनिधि सामग्री मानने की कोशिश मत कीजिए, 'अवध पंच' (सैय्यद मोहम्मद सज्जाद हुसैन,11 सितंबर 1877, लखनऊ); 'अहसन-उल-अखबार' (हाजी मोहम्मद कबीर-उल-हक़, 6 जनवरी 1878, इलाहाबाद); 'स्वराज' (शांति नारायण भटनागर, 1907, इलाहावाद); 'आजाद' (विशननारायण आजाद, 5 जनवरी 1907, लाहौर); 'मदीना' (मौलवी मजीद हसन, 1 मई 1912, बिजनौर) और 'इत्तेहाद' (रईस नूर मोहम्मद,1912, फुलवारी शरीफ, पटना) की सामग्री को भी उलट-पुलट कर देखने की जहमद उठाइये, फिर स्पष्ट होगा कि 19वीं सदी का नवजागरण हिंटू-मुस्लिम वर्चस्व की लड़ाई था या राष्ट्रीय मुक्ति और आत्मपहचान का! समूची मूल श्रोत सामग्री के साथ होने पर यह सिद्ध करने की अतिरिक्त मेहनत नहीं करनी पड़ेगी कि ''पश्चिमोत्तर प्रांत में हिंदू नवजागरण का शायद ही कोई नेता होगा, जिसने मुसलमानों का विरोध करते हुए उनसे अलग रहने की इच्छा न प्रकट की हो'' (रस्साकशी; पृ. 293) । 'धार्मिक होना सांप्रदायिक होना नहीं हैं'-नवजागरण की मूल स्रोत सामग्री को संपूर्णता में देखने पर यह स्पष्ट हो जायेगा । हिंदू-मुस्लिम एकता के संबंध में मदनमोहन मालवीय का विचार-चिंतन (हिंदुस्तान, अम्युदय, लीडर, मर्यादा तथा कांग्रेस के मंच से विविध वक्तव्य व भाषण) तथा मौलाना अबुलकलाम आजाद की वैचारिक चेतना (अल हिलाल, अल बलाग की पत्रकारिता और कांग्रेस के भाषण तथा अन्य भाषण भी) का एक साथ मूल्यांकन उपर्युक्त धारणा के खंडन के लिए प्रर्याप्ति है । मदनमोहन मालवीय देश भक्ति को ईश्वर भक्ति की ऊँचाई प्रदान करते हैं, उनका जोर दृढ़ विश्वास के साथ उद्योग करने तथा देश का वैभव और गौरव बढ़ाने पर है ताकि 'हमारे ऊपर उठने का उपाय' (अम्युदय, 5 फरवरी 1907) जल्दी पूरा हो सके । वे शिक्षा का भविष्य और भविष्य की शिक्षा का ध्यान रखकर हिंदू विश्वविद्यालय का निर्माण करते हैं । हिंदू विश्वविद्यालय का दीक्षांत भाषण (1920 तथा 1929) तथा शिक्षा विषयक उनकी टिप्पणियाँ उनके शिक्षा-संस्कृति विषयक प्रगतिशील सरोकार और दृष्टिकोण की परिचायक हैं ।
स्वाधीनता, राजनीति और अंग्रेजी राज; स्वदेशी और स्वराज; हिंदू-मुस्लिम एकता; राष्ट्रभाषा और हिंदी; शिक्षा-संस्कृति तथा धर्म और समाज-यह सभी प्रश्न 19वीं सदी के नवजागरण के केंद्रीय प्रश्न हैं। इन प्रश्नों के आलोक में मदनमोहन मालवीय के वैचारिक मानस और नवजागरण मेधा को छह उपशीर्षकों में देखा जा सकता है । इस संदर्भ में मदनमोहन मालवीय का महत्व, स्वाधीनता आंदोलन और हिंदी भाषा-भाषी क्षेत्र के नवजागरण में उनकी भूमिका पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है। मदनमोहन मालवीय 19वीं सदी के न सिर्फ महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं बल्कि उस दौर की बहुत-सी गतिविधियों से संबद्ध भी रहे हैं, इसलिये उन्हें संपूर्णता में लेकर ही हिंदी क्षेत्र के नवजागरण को समझा जा सकता है । नवजागरण की विचार परिधि में छ: उपशीर्षकों की यह सामग्री मदनमोहन मालवीय को संपूर्णता में प्रस्तुत करेगी, यही आशा है ।
हिंदी प्रदीप, अभ्युदय, मर्यादा, लीडर, स्वदेश जैसी पत्रिकाओं में फैली हुई उनकी ढेर सारी टिप्पणियाँ, ढेरों वक्तव्य अभी तक एकत्र उपलब्ध नहीं हैं । यह संकलन मदनमोलन मालवीय के 150वी जयंती के अवसर पर इस प्रयल के साथ प्रस्तुत है कि नवजागरण की मेधा का प्रतिनिधिमूलक पाठ प्रस्तुत हो सके । स्थानाभाव के कारण इण्डेम्निटी बिल उत्तरार्द्ध भाषण (1919), प्रथम हिंदी साहित्य सम्मेलन भाषण (1910),कांग्रेस के दिल्ली अधिवेशन का अध्यक्षीय भाषण (1918) तथा गोलमेज सम्मेलन का प्रथम भाषण (1931)-छोड़ देना पड़ा है, जिसका मुझे अफसोस है लेकिन 'अभ्युदय' और 'मर्यादा' की सामग्री को जोड़कर उनकी विचार यात्रा के महत्वपूर्ण पक्ष को उद्घाटित कर सकने वाला पाठ तैयार करने का मैंने भरसक प्रयास किया है । यह प्रयास अधूरा है और विचार केंद्रित प्रतिनिधि संकलन भर है । इसके प्रेरणा श्रोत अपने गुरु प्रो. अवधेश प्रधान (काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी) के प्रति श्रद्धावनत हूँ सलाहमार्गदर्शन के लिए नवजागरण विमर्श कै गंभीर अध्येता आदरणीय भाई कर्मेन्दु शिशिर का आभारी हूँ मेरे अनन्य मित्र डॉ. मोहम्मद अरशद खाँ ने जिस तत्परता के साथ इस संकलन में मेरी मदद की, उसके लिए उन्हें खासतौर से शुक्रिया अदा करना चाहता हूँ । आभारी हूँ राष्ट्रीय पुस्तक न्यास के श्री पंकज चतुर्वेदी का, जिनके कारण यह संभव हो सका ।
विषय-सूची
नौ
स्वाधीनता, राजनीति और अंग्रेजी राज
1
कांग्रेस के अधिवेशन में मदनमोहन मालवीय का पहला भाषण
2
अभ्युदय
9
3
चेतावनी
13
4
'पंजाबी' का मुकदमा
16
5
मर्यादा के अनुसार आदोलन
19
6
पार्लियामेंट में भारत की चर्चा
23
7
हिंदुस्तान के आय-व्यय का विचार
25
8
राष्ट्रीयता और देशभक्ति
30
विकराल अकाल
35
10
राजविद्रोह सभा संबंधी बिल
38
11
अकाल
40
12
नेशनल कांग्रेस की तेईसवीं वर्षगांठ
45
कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन का अध्यक्षीय भाषण
49
14
भारतीय प्रेस विधान-1910 पर भाषण
76
15
हमारी सनद और राजकर्मचारी
88
भारतीय सेना
91
17
25 सैकड़ा लगान कम होना चाहिये
95
18
शर्त्तबद्ध कुलीप्रथा पर भाषण
97
देश की राजनीतिक स्थिति पर वक्तव्य
114
20
इंडेम्निटी बिल पर भाषण
116
21
कांग्रेस के कराची अधिवेशन का भाषण
173
22
गोलमेज सम्मेलन का भाषण
178
हिंदू-मुस्लिम एकता
अफगानिस्तान के अमीर की भारत-यात्रा
189
हिंदू और मुसलमानों मैं एका
192
धर्मानुसार प्रतिनिधियों का चुनाव (1)
194
धर्मानुसार प्रतिनिधियों का चुनाव (2)
197
मुलान का हिंदू-मुस्लिम दंगा
201
लाहौर के मोती दरवाजे का भाषण
216
स्वदेशी और स्वराज
स्वदेशी पर दो मत
225
स्वदेशी-आदोलन
228
स्वदेशी आदोलन पर सूरत सम्मेलन में भाषण
232
भारतीय औद्योगिक कमीशन की रिपोर्ट पर असहमति लेख
235
राष्ट्रभाषा और हिंदी
कचहरियों तथा पाठशालाओं मैं हिंदी भाषा और नागरी-लिपि का प्रयोग
323
बाबू राधाकृण्णदास का स्वर्गवास
352
बाबू बालखंद गुप्त
353
नवम् हिंदी साहित्य सम्मेलन का अध्यक्षीय भाषण
355
शिक्षा-संस्कृति
स्त्री-शिक्षा (1)
369
हमारी शिक्षा
371
स्त्री शिक्षा (2)
374
अपील, हिंदू विश्वविद्यालय काशी
378
काशी हिंदू विश्वविद्यालय का दीक्षांत भाषण
380
काशी हिंदू विश्वविद्यालय दीक्षांत भाषण
389
धर्म और समाज
हमारे ऊपर उठने के उपाय
425
हमारी दशा और हमारा मुख्य कर्तव्य
427
देश-भक्ति का धर्म
430
विद्यार्थियों के कर्त्तव्य
433
विद्यार्थियों को उपदेश
437
गो रक्षा
439
उपदेश पंचामृत
442
सनातन धर्म
446
गीता प्रवचन
450
पारिशिष्ट
मदनमोहन मालवीय जीवन-दर्शन और कार्य-विचार की तिथिवार सूची
459
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