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पुनर्जन्म पण्डित नन्दकिशोर विद्यालङ्कार विरचित (विस्तृत भूमिका, बहुमूल्य टिप्पणी तथा ग्रन्थ-संशोधन सहित सम्पादन)- Reincarnation by Pandit Nandakishore Vidyalankar (Edited with Detailed Introduction, Valuable Notes and Textual Revisions)

$37
Specifications
HBG931
Author: DR. SANYOGITA
Publisher: Pratibha Prakashan
Language: Sanskrit Text with Hindi Translation
Edition: 2024
ISBN: 9788177025255
Pages: 152
Cover: HARDCOVER
9x6 inch
370 gm
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Book Description
पुस्तक परिचय
'पुनर्जन्म' नामक इस ग्रन्थ के अध्ययन के उपरान्त यह सुनिश्चित है कि व्यक्ति निराशा के भाव से निकलकर आशा के सागर में आनन्दमग्न हो जायेगा। विभिन्न जन्म-जन्मान्तरों के भाव के संकल्पित-विचार तथा ज्ञान के उदय हो जाने से कर्मफल-सिद्धान्त पर विश्वास होकर शुभकर्मों में प्रवृत्ति का सूर्य उदय होगा, 'योगः कर्मसु कौशलम्' के साथ शुभ्र-कर्मों में प्रवृत्ति होगी, दुष्कर्मों से घृणा हो जाएगी, जीवन बाह्यमुखी से अन्तर्मुखी हो जाएगा, व्यर्थ के षट् रिपुओं से विरक्ति का भाव अंकुरित हो जाएगा, कर्मफल में विश्वास जागृत होगा, मन अध्यात्म के मार्ग पर अग्रसर होगा, धर्म में लगाव होगा, अधर्म की उपेक्षा होगी, परिश्रम की प्रवृत्ति आयेगी, संसार में परमेश्वर के दर्शन होंगे, 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना अंकुरित होकर यह संसार परिवार बन जाएगा, योगविद्या में रुचि होगी, स्फूर्ति का अनुभव होगा, मोक्ष की पगडण्डी का मार्ग मिल जाएगा और जीवन उल्लासमय, उत्सवमय, आनन्दमय, शान्तिमय तथा कर्ममय बन जाएगा।

परिवार और समाज की टूटती हुई परम्पराओं को जोड़ने के लिए ध्यान में रखकर विशेषरूप से ग्रन्थ तैयार किया है। जिससे समाज में प्रत्येक व्यक्ति शुभकर्मों में प्रेरित होकर कर्मसिद्धान्त में आस्था रखकर सुख और शान्ति से जीवन व्यतीत कर सके।

लेखक परिचय
डा. संयोगिता: माता श्रीमती विमलादेवी पिता श्री संसारसिंह। घर से आध्यात्मिक संस्कार प्राप्त हुए। शिक्षाशास्त्र से स्नातकोत्तर उपाधि। अध्यात्म के प्रति जन्मतः रुचि। योगऋषि स्वामी रामदेव तथा आचार्यश्री बालकृष्ण ऋषिद्वय के आशीर्वाद से पतञ्जलि विश्वविद्यालय से योगविषय लेकर प्रथम श्रेणी में एम.ए.। यूजीसी से नेट परीक्षा उत्तीर्ण। उत्तराखण्ड संस्कृत विश्वविद्यालय हरिद्वार के योगविभाग से गुरुवर डॉ. लक्ष्मीनारायण जोशी के निर्देशन में 'योग में पञ्चकोश साधना' शीर्षक पर शोध कार्य सम्पन्न किया, जो प्रकाशित हो चुका है। योगविद्या में ख्यातिप्राप्त गुरुवर प्रो. ईश्वर भारद्वाज जी, प्रतिकुलपति प्रो. महावीर अग्रवाल जी एवं गुरुवर प्रो. जी. डी. शर्मा जी का सदा आशीर्वाद प्राप्त रहा है। श्रीभगवानदास आदर्श संस्कृत महाविद्यालय हरिद्वार में योगविभाग में सहायक आचार्य के पद पर सेवा की। वर्तमान में गु. कां. वि. वि. हरिद्वार के कन्या गुरुकुल परिसर देहरादून में योगविज्ञान विभाग में असिस्टेण्ट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत है।

योग एवं अध्यात्म में, भारतीय संस्कृति में, लेखन में तथा शोध में रुचि होने के कारण आपके राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय और यूजीसी केयर लिस्टेड शोध-पत्रिकाओं में अनेक शोध-पत्र तथा आलेख प्रकाशित हो चुके हैं। इसी लेखन-श्रृंखला का परिणाम यह 'पुनर्जन्म' नामक ग्रन्थ का सम्पादन भी है। आपका संकल्प 'योगयुक्त तो रोगमुक्त' का है, आप अनेक नगरों तथा संस्थानों में योग-शिविर लगाती रहती हैं। राष्ट्रीय/अन्तर्राष्ट्रीय शोध-सम्मेलनों में शोधपत्रों के माध्यम से योगविद्या का प्रचार-प्रसार करती हैं। अतएव विद्वत्-मण्डली ने आपको अनेकत्र सम्मानित किया है।

भूमिका तथा सम्पादकीय
पुनर्जन्म विषयक विचार भारतीय वाङ्मय में जब भी किसी विषय की गम्भीरता अथवा प्रामाणिकता में प्रवेश करना होता है, तब वेदों का संकेत या प्रमाण देना अनिवार्य हो जाता है, जिसके कारण उक्त विषय बुद्धिमानों में प्रमाणित माना जाता है। विद्वज्जगत् में वेद स्वतःप्रमाण के रूप में मान्य किये गये हैं। वेदों ने स्वयं इस विषय को उपस्थापित किया है- गोषु प्रशस्तिम् वनेषु धिषे भरन्त विश्वे बलिं स्वर्णः। वि त्वा नरः पुरुत्रा सपर्यन्पितुर्न जिव्रेर्वि वेदो भरन्त ॥।' यः समिधा य आहुती यो वेदेन ददाश मर्तो अग्नये। यो नमसा स्वध्वरः ॥

वेदोऽसि येन त्वं देव वेद देवेभ्यो वेदोऽभवस्तेन महां वेदो भूयाः।

देवा गातुविदो गातुं वित्त्वा गातुमित। मनसस्पतऽइमं देव यज्ञं स्वाहा वाते धाः ॥ वेदेन रूपे व्यपिबत् सुतासुतौ प्रजापतिः। ऋतेन सत्यमिन्द्रियं विपानं शुक्रमन्ध-सऽइन्द्रस्येन्द्रियमिदं पयोऽमृतं मधु॥ तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे।

छन्दो ह जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत।।

एवं वेदों की महिमा और उनका वर्णन बहुत विशाल है। न केवल वेदसंहिताओं के अन्तर्गत ही वेदों की महिमा का वर्णन है, अपितु ब्राह्मणादि वैदिकग्रन्थों में तथा लौकिक काव्यों में भी वेदों के सर्वज्ञानमय होने के कारण स्थान-स्थान पर उनकी महत्ता दिखायी गयी है।

उपोद्घात
पुनर्जन्म का सिद्धान्त संसार में उठे हुए बहुत से दार्शनिक विवादों का अन्त कर सकता है। अद्वैतवादी चाहे ब्रह्मवाद का आश्रय लें और चाहे प्रकृतिवाद का, बिना पुनर्जन्म का सिद्धान्त स्वीकार किये, वे दोनों कार्यजगत् की व्यवस्था की उलझन को सुलझा नहीं सकते। जिन सम्प्रदायों ने आर्यसंस्कृति को गोद में जन्म लिया, उनके लिये तो पुनर्जन्म पर विश्वास रखना स्वाभाविक ही है। कर्मफल के नियम पर उनका सारा साम्प्रदायिक प्रासाद' खड़ा होता है, इसलिये वे इस सिद्धान्त की उपेक्षा नहीं कर सकते। हाँ, सैमिटिक संस्कृति की रात्रि में जिन यहूदी ख्रिस्टीय और मुहम्मद इत्यादिक सम्प्रदायों का विकास हुआ है, उनकी समझ में पुनर्जन्म का सिद्धान्त नहीं आ सकता। सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वज्ञ ब्रह्म के स्थान में, सैमेटिक सम्प्रदायों की दृष्टि में जगत्? का विकास और नियन्त्रण आस्मान पर बैठे हुए यहूवा' अथवा खुदा के द्वारा होता है। सृष्टि की उत्पत्ति में न कोई अनाद्यनन्त व्यापक नियम काम करता है और नाहीं कर्मफल-सिद्धान्त कोई अस्तित्व रखता है। वैदिक धर्म सब आर्य-संस्कृति से उत्पन्न सम्प्रदायों अर्थात् हिन्दू, जैन, सिक्ख, बौद्ध, पारसी इत्यादिक का स्रोत है। उसके प्रचार के लिये पुनर्जन्म के सिद्धान्त का सब ओर से समर्थन करना अत्यन्त आवश्यक है। पं. नन्दकिशोर विद्यालङ्कार ने इस सिद्धान्त पर बड़ा उत्तम प्रकाश डाला है और प्राचीन तथा नवीन, दोनों प्रकार के दार्शनिक विचारों की पड़ताल कर सिद्ध किया है कि आर्यावर्तीय ऋषियों के विचारों का खण्डन पश्चिमीय विचारकों से नहीं हो सका।

प्रस्तावना
पाठकों के मन में स्वभावतः प्रश्न होगा कि प्रस्तुत पुस्तक के लिये 'पुनर्जन्म' विषय को क्यों चुना गया, जब कि 'पुनर्जन्म' एक ऐसा विषय है, जिसे भारतवर्ष के हिन्दु-घरों का बच्चा-बच्चा जानता तथा स्वयंसिद्ध सिद्धान्त करके मानता है। इसलिये पुनर्जन्म विषय पर पुस्तक लिखने की आवश्यता न थी।

इसमें सन्देह नहीं कि कहा जाता है इस देश में विशेषतः हिन्दु (आर्य) जाति में कर्म-सिद्धान्त, पुनर्जन्म और परमात्मा की सत्ता आदि विषय जाति के घरेलू जीवन के अंग से बन गये हैं। किन्तु कितने आश्चर्य का विषय है कि जिस जाति ने संसार में सबसे पहले कर्म-सिद्धान्त का आविष्कार किया, जो जाति अपने को समष्टिरूप से आस्तिक कहती है, वही इस समय संसार में सबसे अधिक अकर्मण्य जाति समझी जाती है। इसका कारण यही है कि हम दार्शनिक सिद्धान्तों को अपने नैतिक जीवन में कोई स्थान नहीं देते। हमसे कहीं अधिक उत्तम उन पाश्चात्य भौतिकवादियों का जीवन है, जो भौतिक जगत् के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार की सत्ता स्वीकार नहीं करते। किन्तु जिसकी सत्ता स्वीकार करते हैं, उसके ज्ञान के लिये पूर्णरूप से प्रयत्न करते हैं। यही नहीं, किन्तु भौतिक विज्ञान के पीछे कितने ही सत्यनिष्ठ व्यक्तियों ने अपने जीवन अर्पण कर दिये। एक हम हैं कि कहने को तो ब्रह्म से इधर की बात भी नहीं करेंगे, किन्तु ब्रह्म क्या है, इसे जानने के लिये दिन रात में 5 मिनिट समय भी नहीं देंगे। इसका नाम सत्यनिष्ठा नहीं है।

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