जब प्रतिभावान महान् व्यक्तित्व का आविर्भाव होता है, तब लोग श्रद्धा और विस्मय से उसका अभिनन्दन करते हैं। उसके व्यापक कार्यक्षेत्र और महत्त्व का स्मरण करते हैं। और, वह व्यक्तित्व यदि साहित्य सृष्टा हो तो उसके अध्येता प्रशंसक उसे इतिहास क्रम में सर्वोत्त्म साहित्यकार घोषित कर देते हैं। विश्व कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर के व्यक्तित्व और कृतित्व को हमारा राष्ट्र इसी रूप में स्वीकार करते हुये नित्य अभिनन्दन करता है । वह उन प्रतिभाओं में से हैं जिन्हें काल की परिधि में बाँधकर नहीं रखा जा सकता। उन्होंने एक हजार से अधिक कवितायें, दो हजार से अधिक गीत अनेक उपन्यास, नाटक, कहानियाँ एवं आलेख बंगला भाषा के माध्यम से राष्ट्र को प्रदान किये। उनके लेखन का अध्ययन करने से पता चलता है कि उन सभी विषयों की ओर उनका ध्यान गया है जिनमें मानव मात्र की रुचि हो सकती है ।
महाकवि टैगोर एक भूमिहार ब्राह्मण थे। मध्यकालीन इतिहास की संस्कृति को उन्होंने निःसंकोच अपनाया हुआ था। परन्तु परम्परागत प्राचीन भारतीय मान मूल्यों से वह अंतिम समय तक जुड़े रहे। उनके पूर्वज ईस्ट इण्डिया कम्पनी के काल में ही भारतीय जन जागरण के अग्रिम पंक्ति के कार्यकर्ता थे । उन्होंने प्राचीन का त्याग कियो बिना नये युग की चुनौतियों को स्वीकार किया था। जो व्यक्ति उस युग में अपनी मूल भारतीयता के मान मूल्यों से दूर होते गये, और पाश्चात्य के प्रभाव से प्रेरणा ग्रहण कर सामाजिक क्षेत्र में कार्य के लिये बढ़े, वे अपने राष्ट्रीय जीवन से वंचित हो गये । महान् साहित्यकार, समाजसेवी, युगदृष्टा, शिक्षाविद् गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने पाश्चात्य के प्रभाव में अपनी जातिगत आध्यात्मिक एवं सामाजिक परम्पराओं को अपनाये रखकर विश्व समाज पर गहरा और स्थायी प्रभाव डाला। आज भी हम भारतवासी उनकी उसी महानता के वशीभूत उन्हें राष्ट्रीय अस्मिता का प्रतिपादक मानकर यथावत अभिनन्दीय मान रहे हैं।
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