'रति-श्रृंगार और संन्यास-सार' शीर्षक प्रस्तुत ग्रंथ मूलरूप में 'रम्भा-शुक्र-सम्वाद:' नाम से परंपरा-प्राप्त है! प्रयोजनवश ग्रंथनाम में परिवर्तन किया गया है! रंभा और शुक दो व्यक्ति हैं! ये दोनों निमित्त-मात्र हैं! वस्तुत: यहाँ भारतीय चिंतन, अनुभूति और आचरण की प्रयोगशाला में काम तथा अध्यात्म का जो संघर्ष और दूंद्ध है, उसी का सिद्धांत-निष्कर्ष उपस्थित है! रंभा और शुकदेव प्रतीक मानव भी हैं! महत्वपूर्ण है, सिद्धांत-संघर्ष और निर्णय-निष्कर्ष! इसीलिए 'रति-श्रृंगार और संन्यास-सार' शीर्षक की सार्थकता है!
दूसरी बात यह कि किसी प्राचीन प्रामाणिक ग्रंथ में इन दोनों के इस संवाद या वक्रोक्ति-वाग्दुवन्धु का कोई उद्धरण-उल्लेख मिलता भी नहीं! कभी-कभी किसी सिद्धांत या आचरण के लिए कोई व्यक्ति प्रतीक और मिथक बन जाता है! शुकदेव मुनि परम वैराग्य के प्रतीक-पुरुष हैं, जबकि रंभा रति-श्रृंगार की प्रतीक-नारी! इसीलिए ये दोनों नाम यहाँ किसी रचनाकार की विलक्षण प्रतिभा की अभिव्यक्ति के लिए प्रतीक-मिथक अथवा निमित्त-मात्र के रूप में उपयुक्त किए गए हैं!
आचर्य निशांतकेतु मूलत: कवि और कथाकार हैं, आपने लघुकथा, संस्मरण ललित निबंध, आलोचना, पुस्तक-समीक्षा और साहित्येतिहास जैसी साहित्य-विधाओं में विपुल साहित्य की रचना की है! बाल साहित्य, भाषा-विज्ञान, वाग्विज्ञान, भू-भाषिकी पाठालोचन और व्याकरण जैसे विषयों पर भी आपके ग्रंथ प्रकाशित हैं!
आपने समाज-शास्त्र, विभिन्न कोश, दर्शन, संस्कृति और योग पर भी विपुल वाङ्मय की रचना की है! आपकी विशेष उपलब्धि इस बात को लेकर भी है कि आपने वेद-विद्या एवं तंत्र-शास्त्र जैसे साधनपरक विषयों कि परंपरागत दूरी को दूर कर एक प्रोयोगसिद्ध सन्निकिटन उपस्थापित किया है, अभी तक आपकी डेढ़ सौ से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं!
संप्रति आप 'सुलभ-साहित्य-अकादमी' (नई दिल्ली) के अध्यक्ष तथा उसके तत्वावधान में प्रकाशित 'चक्रवाक् का संपादन करते हैं!
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