सम्पादकीय
रसो वै सः के अनुसार समस्त ब्रह्माण्ड रसरूप परमात्मा से आप्लावित है । परमात्मरस से हीन ब्रह्माण्ड प्राणतत्त्वविहीन, निःसार और नीरस है । परमात्मा के सृष्टि की रचना भी सरसता के लिए हुई है जैसा कि शतपथब्राह्मण में निर्दिष्ट है- एकोऽहं बहु स्याम एकाकी न रमते । इसलिए रमण करने के लिए सरसता आवश्यक तत्त्व है । रसविहीन होने पर सृष्टिप्रक्रिया बाधित हो जाएगी । सृष्टिप्रक्रिया के अविरल प्रवर्तन के लिए रस की उपादेयता स्वत: सिद्ध है ।
काव्यकर्त्ता कवि भी अपने काव्य की रचना करने में सृष्टिकर्त्ता से कम नहीं है । वह अपने काव्य में रस की धारा प्रवाहित करने के लिए अथक प्रयत्न करता है; क्योंकि रसविहीन काव्य रसिक-सहृदयों को प्रभावित नहीं कर सकता है । इसलिए काव्य-जगत् में रस की महत्ता सर्वजनीन है । लौकिक काव्य ही नहीं, प्रत्युत अपौरुषेय होतै हुए भी वैदिक-काव्य संहिताएँ भी इसका अपवाद नहीं हैं । रससिक्तता वेदों में भी स्थल-स्थल पर विराजमान दृष्टिगोचर होती है !
रस के विषय में चिन्तन और मनन की परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही है । रस के विषय में अनेक चिन्तक-आचार्यों ने अपनी दृष्टि से विचार किया और उसको लोगों के सम्मुख प्रस्तुत किया । कतिपय आचार्यों ने तो रस को अलौकिक तत्व के रूप में व्याख्यायित किया और उसका सम्बन्ध परमात्मा से स्थापित किया किन्तु काव्य के क्षेत्र में रसचिन्तक के रूप में भरतमुनि का नाम अग्रगण्य माना जाता है । यद्यपि काव्यशास्त्र के क्षेत्र में अनेक मत-मतान्तर हें-रससम्प्रदाय, अलङ्कारसम्प्रदाय, रीतिसम्प्रदाय, वक्रोक्तिसम्प्रदाय एवं ध्वनिसम्प्रदाय तथापि रस का सम्बन्ध किसी न किसी रूप में सभी सम्प्रदायों में स्थापित किया गया है; क्योंकि रस से विहीन काव्य सहृदयों को उस रूप में नहीं प्रभावित कर सकता जितना अधिक सरस काव्य । इसलिए सभी काव्यशास्त्री रस के विषय में विचार करने के लिए बाध्य हैं ।
जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि आचार्य भरत रससम्प्रदाय के आदि आचार्य माने जाते हैं । यद्यपि भरत के बाद रस -खट्ट विषय में अनेकानेक आचार्यों ने चिन्तन करके अपने मत का उद्घाटन किया किन्तु सभी आचार्या का आधार भरत का रस-सिद्धान्त ही रहा- विभावानुभावसञ्चारियोगाद्रसनिष्पत्ति: ।
इसी परम्परा में भानुदत्तकृत रसमञ्जरी भी है । इस ग्रन्थ में शास्त्रकार ने विभाव के दो भेदों में आलम्बन और उद्दीपन में से श्रृङ्गार रस के आलम्बन विभाव-नायिका और नायक का विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया है । इसमें नायिका और नायक के भेदोपभेद का सम्यक् रूप से सोदाहरण लक्षण निरूपित है । भानुदत्त के दो ग्रन्यों- रसमञ्जरी और रसतरङ्गिणी में रसमञ्जरी अधिक ख्यातिलब्ध है । इसकी ख्यातिलब्धता इस पन्य पर की गयी ग्यारह टीकाओं से ही स्पष्ट है ।
ऐसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ की आज तक कोई हिन्दी व्याख्या नहीं हो पायी थी । इसी अभाव की पूर्ति के लिए इस संस्करण में मेरे अनुजकल्प सुहद् डॉ ० कृष्णदत्त मिश्र, रीडर संस्कृत विभाग, महात्मा गान्धी काशी विद्यापीठ ने अत्यन्त गम्भीरतापूर्वक शोध करके हिन्दी और संस्कृत में इसका व्याख्यान प्रस्तुत किया है । विषयवस्तु को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने विशेष को जोड़कर ग्रन्थ को महदुपयोगी बना दिया है । इस प्रकार यह सुधी पाठकों के लिए सरल हो जाएगा; ऐसी आशा है ।
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