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राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष प्रथम एवं उसका काल: Rashtrakuta King Amoghavarsha I and his Period

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Specifications
HBG157
Author: Viyog Singh Yadav
Publisher: B.R. Publishing Corporation
Language: Hindi
Edition: 2025
ISBN: 9789348610096
Pages: 334
Cover: HARDCOVER
9x6 inch
542 gm
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Book Description
पुस्तक परिचय

दक्षिणापथ के राजवंशों में राष्ट्रकूटों का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान था। लगभग तीन शताब्दियों तक इस राजवंश ने न केवल दकन बल्कि समय-समय पर उत्तर भारत की राजनीति को भी प्रभावित किया। इसी राजवंश का प्रसिद्ध राजा अमोघवर्ष प्रथम था। इसकी शासनावधि राष्ट्रकूट राजाओं में सर्वाधिक रही। इसने अपने पूर्वजों के समान उत्तर भारत के सैन्य अभियानों में तो रुचि नहीं दिखाई अपितु अपने राज्य के संगठन पर अधिक बल दिया। इसका शासनकाल साहित्यिक एवं सांस्कृतिक अवदान की दृष्टि से अतुलनीय था। वह स्वयं भी विद्वान एवं लेखक था तथा उसके काल में वीरसेन, जिनसेन, महावीर, शाकटायन तथा गुणभद्र जैसे विद्वान हुए। उसका सुदीर्घ शासनकाल निसंदेह उसकी सामरिक एवं प्रशासनिक योग्यता का प्रमाण है। संभवतः इन्हीं विशिष्टताओं को देखते हुए अरब यात्री सुलेमान ने बल्हरा (अमोघवर्ष प्रथम) को विश्व के चार महान सम्राटों में एक बताया है। प्रस्तुत पुस्तक अमोघवर्ष प्रथम एवं उसके काल को समझने की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। लेखक ने तथ्यों का गहन विश्लेषण आलोचनात्मक दृष्टि से करते हुए अमोघवर्ष प्रथम के संदर्भ में प्रचलित अनेक मान्यताओं का खण्डन किया है यथा-अमोघवर्ष प्रथम अपने राज्यारोहण के समय नाबालिग था, वह जैनधर्मानुयायी था आदि। लेखक ने उन मतों का भी जिनमें कहा गया है कि अमोघवर्ष ने स्वयं कविराजमार्ग एवं प्रश्नोत्तररत्नमालिका जैसे ग्रंथ नहीं लिखे, का तार्किक प्रतिउत्तर दिया है। अनेक दृष्टियों से यह पुस्तक राष्ट्रकूट इतिहास को बदलने में सक्षम है तथा भावी अध्ययन हेतु दिशा-निर्देशक है।

लेखक परिचय

डॉ० वियोग सिंह यादव का जन्म ग्राम-गौसपुर, जनपद गाजीपुर (उ०प्र०) में हुआ। इन्होंने अपनी स्नातक एवं परास्नातक की डिग्री काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी से प्राप्त की। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, नई दिल्ली से जूनियर एवं सीनियर रिसर्च फेलोशिप प्राप्त कर इन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्त्व विभाग से 2022 में डॉक्टर ऑफ फिलॉसफी (Ph.D.) की उपाधि प्राप्त की। वर्तमान में शासकीय महाविद्यालय लवकुशनगर, मध्यप्रदेश में अतिथि विद्वान के रूप में कार्यरत हैं। इनके लगभग एक दर्जन शोध पत्र अनेक राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। इनके एक शोध कार्य को अध्याय के रूप में 'श्रमण परंपरा के विविध आयाम' (सम्पादक-डॉ० अर्चना शर्मा एवं डॉ० अर्पिता चटर्जी) नामक पुस्तक में प्रकाशित होने का गौरव प्राप्त है। साथ ही डॉ० यादव ने अनेक राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों में भाग लिया। प्राचीन भारत का राजनैतिक इतिहास इनकी पुस्तक का मुख्य क्षेत्र है। भारतीय संस्कृति, लिपि, अभिलेखशास्त्र तथा प्राचीन भारतीय राज्य एवं समाज इनकी पुस्तक के विशिष्ट क्षेत्र हैं।

प्राक्कथन

दक्षिणापथ के राजवंशों में राष्ट्रकूटों का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। लगभग आठवीं शताब्दी में वातापी के चालुक्यों की सामंतीय स्थिति से स्वतंत्र होकर इस राजवंश ने अपना राजनीतिक वर्चस्व स्थापित किया। राष्ट्रकूट शासकों ने न केवल दक्षिण भारत अपितु उत्तर भारत की राजनीति में भी उल्लेखनीय हस्तक्षेप किया। राष्ट्रकूटों की यह शाखा मान्यखेट के राष्ट्रकूटों के रूप में ख्यात हुई। इसी शाखा का प्रसिद्ध राजा अमोघवर्ष प्रथम था। इसकी शासनावधि राष्ट्रकूट राजाओं में सर्वाधिक थी।

अमोघवर्ष प्रथम का वास्तविक नाम 'शर्व' था, अमोघवर्ष उसकी उपाधि थी। उसका राज्यकाल अनेक दृष्टियों से अपने पूर्वजों से भिन्न था। अपने पितामह ध्रुव 'धारावर्ष' एवं पिता गोविन्द तृतीय के विपरीत उसने उत्तर भारत के अभियान नहीं किये। साहित्यिक अवदान की दृष्टि से उसका काल अप्रतिम था। वह स्वतः विद्वान् था और विद्वानों का सम्मान भी करता था। इसके काल में वीरसेन, जिनसेन, महावीर, शाकटायन, गुणभद्र आदि अनेक विद्वान् हुए। धर्मों के प्रसंग में उसकी दृष्टि अत्यन्त उदार थी। वह सभी धर्मों का सम्मान करता था। फलतः जहाँ एक ओर वैदिक, स्मार्त-पौराणिक एवं आगमिक धर्मों के संदर्भ उसके लेखों से ज्ञात होते हैं, वहीं जैन धर्म की उत्कृष्ट स्थिति के साक्ष्य मिलते हैं एवं बौद्ध धर्म भी अस्तित्त्वमान दिखता है। अमोघवर्ष की सामरिक एवं प्रशासनिक योग्यता का प्रमाण उसकी सुदीर्घ शासन अवधि है। संभवतः इन्हीं विशिष्टताओं को देखते हुए अरब यात्री सुलेमान ने बल्हरा (अमोघवर्ष प्रथम) को विश्व के चार महान सम्राटों में एक बताया है।

राष्ट्रकूट राजवंश सम्बन्धी अनेक अध्ययन पूर्व में हो चुके हैं। एतद् सम्बन्धी अधिकांश सूचनाएं मूलतः दक्षिणापथ एवं दक्षिण के इतिहास का विवरण प्रस्तुत करने वाले ग्रंथों से मात्र एक अध्याय के रूप में प्राप्त होती हैं। ऐसी पुस्तकों में मुख्य हैं-आर०जी० भंडारकर कृत अर्ली हिस्ट्री ऑफ द दकन बॉम्बे, 1895; आर०सी० मजूमदार एवं ए०डी० पुसालकर (सम्पा०), द हिस्ट्री एण्ड कल्चर ऑफ द इण्डियन पीपुल, भाग 4, द एज ऑफ इम्पीरियल कन्नौज, मुंबई, 1955, 2009; भाग 5, द स्ट्रगल फॉर अम्पायर, मुंबई, 1957, 2001; जी0 याजदानी (सम्पा०), द अर्ली हिस्ट्री ऑफ द दकन, (दो जिल्दों में) बॉम्बे, 1960; पी०बी० देसाई कृत हिस्ट्री ऑफ जैनिज्म इन साउथ इण्डिया, 1970; के०ए०एन० शास्त्री कृत ए हिस्ट्री ऑफ साउथ इण्डिया, (हिंदी अनुवाद) पटना, 1972; वी० वलम्बल कृत फ्यूडटरिज ऑफ साउथ इण्डिया, इलाहाबाद, 1978, नोबोरू काराशिमा (सम्पा०), ए कनसाइज हिस्ट्री ऑफ साउथ इण्डिया : इसुज एण्ड इंटरप्रिटिशन्स, नई दिल्ली, 2014 आदि।

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