अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में मुगल सल्तनत की सैनिक शक्ति के हास और राजनीतिक पतन के कारण भारत उथल-पुथल का शिकार हो गया था। ताक़तवर सूबेदार सूबों में केन्द्र से आज़ाद होकर अपने-अपने इलाक़े के आर्थिक साधनों पर क़ाबिज़ हो गए थे। दिल्ली और आगरा शहरों के इर्द-गिर्द बड़े-बड़े ज़मींदारों ने अपने असर और ज़मींदारी के इलाक़े को बढ़ाने के लिए एक-दूसरे से लड़ाई शुरू कर दी और लूट-मार में लग गए। इसी उथल-पुथल के दौर में नवाब अली मुहम्मद ख़ाँ ने अपने रूहेला पठानों की मदद से कटहेर क्षेत्र यानी रूहेलखण्ड पर अपना वर्चस्व क़ायम किया और पूरे क्षेत्र में अम्नो-शान्ति क़ायम करके वहाँ के लोगों की तरक़्क़ी और खुशहाली के लिए परिस्थितियों को अनुकूल बनाया।
अली मुहम्मद ख़ाँ अठारहवीं सदी के कुछ संवेदनशील और कर्तव्यनिष्ठ शासकों में से एक थे। उन्होंने मुगल-दरबार की अच्छी सांस्कृतिक परम्परा का अनुकरण किया जिनमें ज्ञानप्रियता और विद्वानों और ज्ञान-विज्ञानों के माहिरों की सरपरस्ती से संबंधित परम्परा भी शामिल थी। दिल्ली दरबार की प्रतिकूल परिस्थिति से दोचार होने के कारण जो विद्वान, महारथी वहाँ से हिजरत (प्रस्थान) करने को मजबूर हो गए थे, वे आँवला में अली मुहम्मद ख़ाँ की सरपरस्ती में आ गए। बाद में वहाँ के विद्वान और शायर बरेली, बिसौली और रामपुर में अली मुहम्मद ख़ाँ के उत्तराधिकारियों से वाबस्ता हो गए। यह कहना अप्रसांगिक न होगा कि यह रूहेलखण्ड क्षेत्र दिल्ली शहर से क़रीब होने की वजह से मुगल बादशाहों की हुकूमत के अधीन दूसरे सूबों के मुक़ाबले में शाही दरबार के कल्चर और वहाँ की उर्दू भाषा से, जिसको उर्दू-ए-मुअल्ला कहा जाता था, बहुत अधिक प्रभावित हुआ था। दिल्ली दरबार से संबंधित वज़ीरों और दरबारियों की जागीरें इसी क्षेत्र में थीं। उनकी जागीरों के बन्दोबस्त के लिए दिल्ली से व्यवस्थापक और दूसरे ओहदेदार तैनात किए जाते थे। वे क्षेत्र के पुराने ऊँचे घरानों और विशिष्ट लोगों से क़रीबी ताल्लुक़ात पैदा करते थे। उन अफ़सरों के माध्यम से दिल्ली में इस क्षेत्र के लोगों को नौकरी भी मिल जाती थी। इसके अलावा होनहार छात्रों को दिल्ली में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए छात्र-वृत्तियाँ भी देते थे। इसके नतीजे में रूहेलखण्ड और दिल्ली शहर की संस्कृति में शुरू ही से समानता मिलती है।
रूहेलखण्ड की तरह दूसरा क्षेत्र जिसके क़सबे और शहर दिल्ली-संस्कृति की नुमाइन्दगी करते थे वह हरियाणा था। करनाल, पानीपत, रोहतक वगैरह सांस्कृतिक दृष्टि से दिल्ली का ही विस्तृत रूप थे। यहाँ उर्दू के बड़े-बड़े शायर और साहित्यकार पैदा हुए। लेकिन अठारहवीं सदी में इस इलाके में सिख और जाट ज़मींदारों की बगावत और अहमद शाह दुर्रानी के हमलों ने महान और प्रतिष्ठित लोगों के लिए वहाँ रहना मुश्किल बना दिया था। मालदार और प्रतिष्ठित लोग वहाँ से प्रस्थान करने को मजबूर हो गए थे। शहर और क़सबे बुरी तरह प्रभावित हुए थे। हरियाणा के विपरीत रूहेलखण्ड में रूहेला सरदारों की मौजूदगी की वजह से शान्ति और सम्पन्नता थी और यहाँ के बाशिन्दे खुद को सुरक्षित समझते थे। यहाँ की बस्तियों के विभिन्न शायरों की रचनाओं को क़ायम चाँदपुरी ने शायरों की जीवनी 'मख़ज़ने-निकात' में नक़ल किया है। उन शे'रों को पढ़ने से जो अनुभूति होती है वह आम खुशहाली और सुकून की है। उनमें ज़माने के उथल-पुथल का गिला नहीं है। यही वजह है कि रूहेलखण्ड के ये क़सबे और शहर पढ़े-लिखे लोगों का केन्द्र बन गए थे। जब फ़िरंगी महल के विद्वान मौलाना बहरुल-उलूम अवध के शासक नवाब शुजाउद्दौला की नाराज़गी से डर गए तो उन्होंने रूहेलखण्ड का रुख़ किया और उनके साथ उनके शागिर्द भी, जो कि बड़ी तादाद में थे, शाहजहाँपुर आ गए और इस तरह उनका मदरसा फ़िरंगी महल लखनऊ से शाहजहाँपुर स्थानांतरित हो गया। हाफ़िज़ रहमत ख़ाँ ने मदरसे के लिए माली मदद दी। इसी तरह जब नजफ़ ख़ाँ ने शाह अब्दुल अज़ीज़ (रहमतुल्लाह) को दिल्ली से निकाला तो उन्होंने भी रूहेलखण्ड में पनाह ली।
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