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रामकाव्य परम्परा और बुन्देलखण्ड- Ramkavya Tradition and Bundelkhand (Literature, Culture and History)

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Item Code: HAF479
Author: Edited By Chanda Bain, Rajendra Yadav
Publisher: HANS PRAKASHAN, DELHI
Language: Hindi
Edition: 2023
ISBN: 9788196407650
Pages: 138
Cover: HARDCOVER
Other Details 9x6 inch
Weight 300 gm
Fully insured
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100% Made in India
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Book Description
पुस्तक परिचय

राम काव्य परम्परा विषय पर हिन्दी साहित्य की राम काव्य परम्परा के पूर्व भारतीय साहित्य में राम काव्य परम्परा के इतिहास एवं विकास को हमें क्रमबद्ध दृष्टि से देखना समझना होगा। अपभ्रंश सहित हिन्दी की विभिन्न बोलियों में जो 'राम-साहित्य' का उल्लेख मिलता है, क्या यह पहले-पहल इन भाषाओं-बोलियों में मौलिक रूप से जन्मा है या हिन्दी साहित्य के पूर्व भारत की समृद्ध भारतीय भाषाओं संस्कृत-पाली-प्राकृत में लिखे गए राम साहित्य की परम्परा को हिन्दी ने नये अर्थ और नयी मौलिकता के साथ अभिव्यक्त किया। राम काव्य परम्परा में वाल्मीकि कृत रामायण के बाद महाभारत में 'रामोपाख्यान' के रूप में आरण्यक पर्व (वन-पर्व), 'द्रोण पर्व' तथा 'शान्ति-पर्व' में राम कथा के सन्दर्भ आये हैं। बौद्ध परम्परा में श्रीराम से सम्बंधित दशरथ-जातक, अनामक जातक तथा दसरथ कथानक नामक तीन जातक कथाएँ उपलब्ध हैं। रामायण से थोडा अलग होते हुए भी ये ग्रंथ राम काव्य परम्परा के उल्लेख में आते हैं। जैन साहित्य में राम कथा सम्बन्धी अनेक ग्रन्थ लिखे गए हैं, इनमें प्रमुख रूप से विमलस्री कृत पउमचरियमं (प्राकृत), आचार्य रविषेण कृत 'पद्मपुराण' (संस्कृत), स्वयंभू कृत 'पउमचरिउ' (अपभ्रंश), 'रामचंद्र चरित्र' पुराण तथा गुणभद्र कृत उत्तर पुराण (संस्कृत), जैन परम्परा के अनुसार राम का मूल नाम 'पद्म' था। परमार भोज ने भी चम्पू रामायण की रचना की थी। राम कथा अनेक भारतीय भाषाओं में लिखी गयी। हिन्दी कम से कम ग्यारह, मराठी में आठ, बांग्ला में पच्चीस, तमिल में वारह, तेलगु में वारह तथा उडिया में छह रामायण लिखी गयी। आधुनिक हिन्दी की आज की समृद्ध बोली 'अवधी' मध्यकाल में एक समृद्ध भाषा थी। इसी लोक भाषा में गोस्वामी तुलसीदास ने 'रामचरितमानस' की रचना की यहीं से आधुनिक राम काव्य परम्परा ने भारतीय समाज और संस्कृति में राम और उनकी कथा ने वैश्विक साहित्यक विस्तार पाया। इसके अतिरिक्त राम काव्य परम्परा का उल्लेख गुजराती, मलयालम, कन्नड़, असमियाँ, उर्दू, अरबी, फारसी आदि भाषाओं भी मिलता है। महाकवि कालिदास, भास भट्ट, प्रवर सेन, क्षेमेन्द्र, भवभूति, राजशेखर, कुमारदास, विश्वनाथ, सोमदेव, गुणादत्त, नारद, लोमेश, आदि ने वाल्मीकि की राम काव्य परम्परा को आगे बढ़ाया। संस्कृत साहित्य में रघुवंश, उत्तररामचरितम आदि कृतियां राम पर केन्द्रित हैं। इस तरह संस्कृत पाली प्राकृत से होते हुए राम काव्य परम्परा अपभ्रंश तक पहुंची। अपभ्रंश भाषा साहित्य में राम काव्य परम्परा में अनेक रचनाएँ लिखी गयी। स्वयंभू कृत 'पऊम चरिउ' (नौवीं सदी) और पुष्पदंत कृत 'महापुराण' (दसवीं सदी) में राम काव्य परम्परा का उल्लेख मिलता है। हिन्दी की समृद्ध सहायक भाषाओं में तुलसीदास- अवधी, केशवदास-बुन्देली मिश्रित प्राकृत, समर्थ रामदास, संत तुकड़ोंजी महाराज आदि चार सौ से अधिक कवियों तथा संतों ने अलग-अलग भाषाओं में राम काव्य परम्परा की रचनाएँ लिखी हैं।

'बुन्देलखण्ड' भारतीय उप-महादीप का एक ऐसा प्राचीन क्षेत्र है, जिसने भारतीय साहित्य, संस्कृति, धर्म-आध्यात्म और राजनीति को अनेक दृष्टि से प्रभावित किया है। वाल्मीकि कृत 'रामायण' से लेकर तुलसीदास कृत 'रामचरितमानस' तक राम-काव्य परम्परा की लगभग सभी प्रमुख रचनाओं में राम-कथा में वर्णित जिन प्रमुख स्थानों के प्रसंग हैं उनमें 'चित्रकूट' राम-कथा में एक प्रमुख स्थान है। अयोध्या के राजकुमार राम को अयोध्या से निर्वासन के बाद के, चौदह वर्ष के जिस लम्बे जीवन संघर्ष ने राम को भारतीय संस्कृति का सबसे महान नायक बनाया। उस लोकरक्षक-लोकनायक, मर्यादा पुरषोत्तम और विष्णु के सबसे महान और लोकप्रिय अवतार राम का निर्माण बुन्देलखण्ड में चित्रकूट से हुआ। बुन्देलखण्ड को प्राचीन काल से जीवन संघर्ष और राजनैतिक आध्यात्मिक उर्जा की भूमि माना गया है।

लेखिका परिचय

डॉ. चन्दा बैन (जन्म: 5 फरवरी सन 1962, सागर, मध्य प्रदेश)

आप डॉक्टर हरीसिंह गौर केन्द्रीय विश्वविद्यालय, सागर, मध्य प्रदेश के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं। उच्च शिक्षा में आप पिछले 35 वर्षों से अध्यापन कार्य कर रहीं हैं। आपने 'शिवकुमार श्रीवास्तव का व्यक्तित्व एवं कृतित्त्व' विषय पर पी-एच. डी. शोध कार्य किया है। हिन्दी साहित्य का इतिहास, हिन्दी कविता, भाषा विज्ञान, घनानंद, निराला और मुक्तिबोध में आपकी विषय विशेषज्ञता है। इससे पूर्व आपकी कई पुस्तकें प्रकाशित हैं, जिनमें क्रमशः 'साहित्य विमर्श और सरोकार', 'कृक्ति-संस्कृति संवाद', 'साहित्य, समाज और संविधान', 'बौद्ध दर्शन और भारतीय समाज' प्रमुख हैं। आपके द्वारा 'समकालीन कविता में पर्यावरण विमर्श पर केन्द्रित विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा अनुदानित शोध परियोजना को सफलतापूर्वक पूर्ण किया गया है। अकादमिक जगत में आप अपने शोधपरक व्याख्यान और आलेखों के लिए जानी जाती हैं। इसके साथ ही वर्तमान समय में विश्वविद्यालय में कुलानुशासक, भाषा अध्ययनशाला की अधिष्ठाता, भाषा विज्ञान विभाग तथा उर्दू एवं पर्शियन विभाग की अध्यक्ष, अम्बेडकर उत्कृष्ठता केन्द्र की समन्वयक इत्यादि महत्वपूर्ण प्राशासनिक दायित्वों का निर्वहन भी कर रहीं हैं। आपको मध्य प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मलेन द्वारा 'श्रीमती सुन्दरवाई पन्नालाल रान्धेलिया (स्वतंत्रता संग्राम सेनानी) सम्मान' (2013), गुरु फाउंडेशन, रोहतक, हरियाणा द्वारा 'राजमाता जीजाबाई सम्मान' (2023), ऋपि वैदिक साहित्य पुस्तकालय, आगरा, उत्तर प्रदेश द्वारा 'गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर स्मृति सम्मान' (2023) प्रदान किये गए हैं।

लेखक परिचय

डॉ. राजेन्द्र यादव (जन्म: 14 जुलाई, 1970, टीकमगढ़, मध्य प्रदेश)

आप हिन्दी विभाग, डॉक्टर हरीसिंह गौर केन्द्रीय विश्वविद्यालय, सागर, मध्य प्रदेश में एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं। उच्च शिक्षा में आप पिछले 20 वर्षों से अध्यापन कार्य कर रहे हैं। आपने 'अशोक वाजपेयी की कविता और आलोचना' विषय पर पी-एच.डी. शोध कार्य किया है। आधुनिक हिन्दी कविता, बुन्देली भाषा और साहित्य, हिन्दी पत्रकारिता, मुक्तिबोध, निराला में आपकी विषय विशेषज्ञता है। आपकी कई पुस्तकें प्रकाशित हैं, जिनमें 'निर्गुण और सगुण भक्ति के दो आयाम: कवीर और तुलसी', 'शताब्दी की बेचैनी का कवि अशोक वाजपेयी', 'बुन्देली लोक साहित्य वैश्वीकरण एवं मानव मूल्य', 'साहित्य और समाज', 'हिन्दी उत्तर मध्यकाल और बुन्देलखण्ड', 'शब्द और सामथ्यं' (भाग-1), 'हिन्दी साहित्य: सूफी भक्ति की प्रासंगिकता', 'भारतीय भाषा साहित्य' (विविध संदर्भ) भाग-1, 'भक्तिकाल वाणी और विचार', 'रामकाव्य परम्परा और बुन्देलखण्ड' आदि प्रमुख हैं। वर्तमान में आप द्वारा बुन्देली की प्रतिष्ठित शोध पत्रिका 'ईसुरी' के संपादक हैं। अकादमिक जगत में आप अपने शोधपरक व्याख्यान और आलोचना के लिए जाते हैं। आपको 'रमेशदत्त दुवे सम्मान-2016' प्रदान किया गया है।

सम्पादकीय

भारतीय भाषाओं के साहित्य में हिन्दी सहित अधिकाँश भाषाओं में मध्यकालीन साहित्य ने भारतीय समाज और संस्कृति को बहुत गहरे स्तर पर प्रभावित किया है। यह वही काल है जब भारत में बाहरी आक्रांताओं ने भारत की स्थानीय राजनैतिक व्यवस्था का अतिक्रमण कर अपनी सत्ता स्थापित करने के लिए जो लगातार आक्रमण किये, उससे भारतीय समाज और संस्कृति में गहरी निराशा उत्पन्न हुई। इसी दौर में भारतीय उपमहादीप में समाज को तत्कालीन राजनैतिक उथल-पुथल और सांस्कृतिक पराभव से बाहर निकालने लिए दक्षिण भारत में 'आलावार' और 'नयनार' दो भक्ति धाराओं में भारतीय सामाजिक जागरण के लिए जो भक्ति आन्दोलन प्रारम्भ हुआ, यहीं से भारतीय मध्यकालीन साहित्यक सामाजिक आध्यात्मिक आन्दोलन की शुरुआत हुई। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि दक्षिण भारत में उत्पन्न हुई भक्ति धाराओं में 'आलवार' संत वैष्णव मत अनुगामी थे और 'नयनार' भक्ति धारा के संत 'शिव' के उपासक थे। उत्तरभारत की समृद्ध स्थानीय भाषाओं खासकर अवधि भाषा और वृजभाषा के साहित्य में हिन्दी साहित्य के भक्ति आन्दोलन ने जिस कालजयी स्वरूप की अभिव्यक्ति की, वह दक्षिण भारत की 'आलवार' भक्ति धारा थी, जिसे 'रामानंद' उत्तर भारत में लाये थे। यहीं से हिन्दी साहित्य के स्वर्णयुग भक्तिकाल का प्रारंभ हुआ। जिसे हिन्दी साहित्य के इतिहास और हिन्दी की मुख्यधारा की आलोचना ने एकमत से भक्ति आन्दोलन की संज्ञा दी है।

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