आंगल साहित्य के विश्वविश्रुत नाट्यकार शेक्सपियर के ऊपर एक गणनानुसार हजारों पुस्तकें प्रणीत हो चुकी हैं, तथापि अद्यापि उसकी सार्वभौम प्रतिभा विपश्चितों को आवर्जित करती रही है। उसी प्रकार हिन्दी साहित्याकाश को अपनी त्रिकालदर्शिनी प्रतिभा के आलोक से पर्याच्छन्न करने वाले तुलसीदास पर अनेक ग्रंथ लिखे जा चुके हैं, तथापि अद्यावधि वे हमें अपने कर्तृत्त्व से आकर्षित करते हैं। यह भिन्न प्रमेय है कि विश्वविद्यालयीय अध्यापक-समाज लगभग यह मान बैठा है कि अब तुलसी पर शोध की गुंजायश नहीं रह गयी है। वर्तमान लेखक इस निर्णय से सहमत होने से अपने को अक्षम पा रहा है। जब तक रामकथा जीवित रहेगी, तब तक तुलसी तथा उनके 'मानस' के अनुशीलन अनुसंधान की प्रक्रिया चलती रहेगी- ऐसा मैं मानता हूँ। वर्तमान अध्ययन मेरे स्वतंत्र चिन्तन एवम् अनुशीलन की प्रसूति है। प्रकारान्तरेण यह कहना चाहूँगा कि 'मानस' ने विद्वत्-समुदाय को इतना आवर्जित किया है कि कवितावाली, गीतावली, विनयपत्रिका इत्यादि रचनाओं में प्रतिफलित तुलसी के व्यक्तित्त्व के कई बहुमूल्य पक्ष समुचित सम्मान के साथ उद्घाटित नहीं हो सके हैं। चाहता हूँ विश्वविद्यालयीय अध्यापक अपने छात्रों से इन कृतियों पर भी और शोध-कार्य सम्पन्न कराते।
प्रस्तुत पुस्तक में मेरे समय-समय पर लिखे तथा विभिन्न मान्य पत्रिकाओं में प्रकाशित गवेषणात्मक निबंध संकलित हैं। एक-दो प्रकरण, इधर निबंधों को पुस्तकाकार प्रदान करने की प्रक्रिया में, लिखे गये हैं। स्वभावतः कतिपय प्रकरणों में पुनरावृत्ति दृष्टिगोचर होगी, किन्तु ये पुनरावृत्तियाँ मेरी 'मानसी' दृष्टि को अधिक प्रांजल बनाने में सहयोगी सिद्ध होंगी- यह मेरा विश्वास है। यों-भी, साहित्य 'गणित' नहीं है, उसकी 'संस्कृति' बहिष्कारिणी नहीं, समावेशिनी होती है। विद्वद्वर्य इस दृष्टि से प्रस्तुत अध्ययन का अवलोकन करें, यह मेरा अनुरोध है। लगभग समग्र निरूपण 'मानस' पर केन्द्रित है जिससे यह प्रतीति पाठक-वर्ग के समीप खुल जायेगी कि तुलसी ने जो रामकथा वर्णित की है, वही आज हमारे एक विशाल जनसमुदाय को अनुप्राणित कर रही हैः हम वाल्मीकि के राम-सीता को बिल्कुल विस्मरण कर गये हैं और 'मानस' के राम तथा सीता ही 'काव्यमीमांसा' के रचयिता राजशेखर के शब्दों में, हमारी "लोकयात्रा" के बहुमूल्य पाथेय सिद्ध हो रहे हैं।
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