संस्कृत साहित्य में वाल्मीकि कृत 'रामायण' आदिकाव्य और महर्षि वाल्मीकि 'आदिकवि' के रूप में विख्यात हैं। 'रामायण' में राम के आदर्श चरित का वर्णन है। यह हमारी भारतीय संस्कृति, सभ्यता एवं मानव मूल्यों की प्रतिष्ठा का आधार ग्रन्थ है। इस कालजयी साहित्य का सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टि से विश्व साहित्य में अमूल्य योगदान है। इसकी प्रासंगिकता के सम्बन्ध में यह उक्ति- "यावत्स्थास्यन्ति गिरयः सरितश्च महीतले है । तावद् रामायण कथा लोकेषु प्रचरिष्यति।" अर्थात् जब तक पहाड़ों और नदियों का अस्तित्व इस पृथ्वी पर रहेगा, तब तक रामायण की कथा लोक में प्रचारित रहेगी ।
इस कालजयी ग्रन्थ की प्राचीनता के सम्बन्ध में यह निर्विवाद है कि वेदों के पश्चात् जिस अनुषुप वाणी में काव्य का प्रवर्तन हुआ, वह 'रामायण' ही है। महर्षि वाल्मीकि ने देवर्षि नारद जी से जो राम कथा सुनी, उसी का वर्णन एवं विस्तार इस का प्रतिपाद्य है। रामायण के सृजन के सम्बन्ध में एक विलक्षण घटना है। एक बार महर्षि वाल्मीकि अपने शिष्य भरद्वाज के साथ गंगा नदी से कुछ दूर ही तमसा नदी के तट पर गये। वहाँ जाकर स्वच्छ जल को देखकर वाल्मीकि मुनि ने अपने शिष्य भरद्वाज से वृक्ष की छाल का बना वस्त्र माँग कर स्नान करने की इच्छा व्यक्त की और वृक्ष की छाल का बना वस्त्र लेकर वहाँ के रमणीय वन की शोभा के दर्शन करने लगे। इसी क्षण एक क्रौंच पक्षी का जोड़ा दिखाई दिया, जिसमें से एक नर क्रौच पक्षी को किसी बहेलिये ने अपने बाण से घायल कर दिया था। वह पक्षी खून से सना, लड़खड़ाता, तड़पता हुआ जमीन पर गिरा और मर गया। उसकी प्रिया क्रौच्ची विलाप करती हुई करूण - क्रन्दन करने लगी, ऐसे करूण क्रन्दन को सुनकर वाल्मीकि मुनि का अन्तःकरण करूणा से द्रवित हो गया और उन्होंने उस बहेलिये को शाप दे दिया किः-
मा निषाद ! प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समा ।
यत् क्रौच्वंमिथुनादेकमवधीः काम मोहितम् ।।
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