रामायण का अध्ययन कर रहा था कि एक दिन पढ़ते समय देखा कि रामायण में प्रसंग अधूरे हैं। बहुत खोजनेपर भी नहीं मिले तो श्री ज्वाला प्रसाद मिश्रकी क्षेपक सहित टीका वाली रामायण पढ़ी। तब यह समझमें आया कि जिस प्रकार मूलकथा क्षेपक में मिलगई है इसी प्रकार क्षेपक की कथाएं भी मूल में मिलगई होंगी। दैव योगसे प्रथम आवृति की भूमिका पढ़ी जिसमें पं. श्री ज्वालाप्रसादजी ने लिखा है
"गुणी और गुण में कोई विशेष भिन्नता नहीं होती, यह राम चरित रामका गुण होने से राम से भिन्न दृष्टि नहीं आता और सबको आनन्द दायक है। इस ग्रन्थ पर बड़े-बड़े-प्रेमी महात्माओंने तिलक भी रचे हैं और उनमें यथाशक्ति अपनी प्रीति भी झलकाई है। परन्तु अब काल क्रमसे इस पुस्तक में क्षेपक भी बहुत से मिश्रित हो गये हैं और उन का भी प्रचार इस के संग होने से ऐसा होगया है कि जिस रामायणमें क्षेपक कथा नहीं होती उसको बहुत ही कम मनुष्य लेना अंगीकार करते हैं। बहुधा रामायण जो तिलक सहित हैं उनमें क्षेपक छोड़कर मुख्य कथा की ही महात्माओं ने टीका रची है। जिसमें क्षेपक न होनेसे लोग उसे ग्रहण करने में हिचकिचाते हैं। इस कारण मेरा बहुत दिनों से यह विचार था कि तुलसीकृत रामायण के तिलक की रचना इस प्रकार की जाय जिसमें सम्पूर्ण क्षेपक की कथाओं की भी तिलक रचना हो और उस टीका में किसी बात की अपेक्षा न रहे।...... इस तिलकको इतना नहीं बढ़ाया है जो मूल अर्थ खोजाय और समझमें न आए। सम्बंधित कथाएं इसमें जहां उचित जाना है वहां मिश्रित कर दी गई हैं और उनका भी तिलक कर दिया गया है। यद्यपि इस के मिलाने पर विद्वान कहेंगे कि मिलाकर इस ग्रन्थ में यह कैसे विदित रहेगा कि कौनसी कविता तुलसीदास जी की है और कौनसी मिलाई गई है। इस के निश्चय करने में बड़ी गड़बड़ी होगी। सो यह दोष भी इसमें से निकाल दिया है।
वास्तव में मूल से क्षेपक अथवा क्षेपक से मूल को पृथक करना उतना ही असम्भव है कि जितना कोई द्रव पदार्थ गंगाजल में मिलाकर निकालना कठिन है।
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