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राजयोग- Raja Yoga by Swami Vivekananda

$15
Specifications
HBC896
Author: Swami Vivekananda
Publisher: Vani Prakashan
Language: Hindi
Edition: 2024
ISBN: 9788170553785
Pages: 142
Cover: PAPERBACK
9.00 X 6.00 inch
310 gm
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Book Description
पुस्तक का पिछला भाग
प्रत्येक प्राणी में प्राण ही जीवन है। विचार प्राण की सबसे सूक्ष्म और सुन्दर क्रिया है। पर विचार ही से इति नहीं। इंसटिंक्ट (Instinct) या स्वभाव मानव-क्रियाओं की सबसे नीची भूमि में है। यदि एक मच्छर काटे, तो उसे मारने के लिए हाथ अपने ही आप स्वभाव से उठ जाता है। विचार इस रूप में भी प्रकट होता है। शरीर के सभी अपने आप होने वाली क्रियाएँ इसी के अन्तर्गत हैं। इसके उपरान्त विचार का दूसरा क्षेत्र है, जो चैतन्य होता है। मैं तर्क-वितर्क करता हूँ सोचता हूँ। किसी काम की भलाई-बुराई को तौलता हूँ, यह चैतन्य विचार है। फिर भी इससे अन्त नहीं होता। हम जानते हैं कि बुद्धि का क्षेत्र परिमित है। किसी हद तक बुद्धि सोच सकती है, उसके आगे नहीं। जिस दायरे में वह घिरी हुई है, वह वास्तव में बहुत संकुचित है। हम देखते हैं कि कभी विचार बाहर से भी इस दायरे के अन्दर घुस आते हैं। टूटते हुए नक्षत्रों के समान कुछ बातें उसमें आ जाती हैं और यह निश्चित है कि वे बाहर से आती हैं जहाँ हमारी बुद्धि पहुँच नहीं सकती। उन्हें लाने वाली शक्तियाँ बुद्धि की सीमाओं के बाहर ही हैं। मन का एक इससे भी ऊँचा क्षेत्र है। जब मनुष्य उस एकाग्रता की अवस्था को पा लेता है जिसे समाधि कहते हैं, तो वह साधारण बुद्धि की सीमाओं को लाँघ जाता है और उसे वह ज्ञान प्रत्यक्ष होता है जिसे कोई तर्क या बुद्धि नहीं जान सकती। शरीर की सूक्ष्म शक्तियाँ जिनके रूप में प्राण प्रकट होता है, यदि वश में की जायें तो वे मस्तिष्क को ऊपर उठने तथा समाधि की अवस्था तक पहुँचने में सहायता देंगी जहाँ से वह स्वेच्छानुसार कार्य कर सकेगा।

पुस्तक परिचय
वेदान्त दर्शन में कर्मयोग की तरह राजयोग भी दर्शन की एक घारा के रूप में वर्णित है। ऋग्वेद में योग दर्शन का वर्णन मिलता है। वैदिक काल तक योग दर्शन का पर्याप्त विकास हो चुका था। योग दर्शन में राजयोग मनुष्य के अन्तर्जगत और उसकी चित्त-वृत्तियों की एकाग्रता पर बल देता है। योग दर्शन के व्याख्याकारों ने कर्मयोग, भक्तियोग की तरह समय-समय पर राजयोग की भी व्याख्याएँ की हैं। राजयोग के व्याख्याकारों में स्वामी विवेकानन्द की व्याख्याएँ सर्वाधिक सहज और ग्राह्य प्रतीत होती हैं। स्वामी विवेकानन्द भारतीय दर्शन की अन्य धाराओं की तरह राजयोग के जटिल पक्ष को सहज बनाकर प्रस्तुत करते हैं। उसकी व्यावहारिकता पर बल देते हैं। अन्य दर्शनों की भाँति उन्होंने राजयोग के दर्शन को भी समाजोन्मुख किया है।

'राजयोग' में स्वामी विवेकानन्द द्वारा की गयी प्राचीन ऋषियों और योगियों की राजयोग से सम्बन्धित मान्यताओं की मीमांसा है जो आधुनिक समाज में दर्शन के नाम पर एक प्रागैतिहासिक दुरूहता समझी जाती रही हैं। स्वामी विवेकानन्द ने भारतीय दर्शन की इस गूढ़ता को देश काल की आवश्यकताओं के अनुसार विश्लेषित किया है। यह पुस्तक स्वामी विवेकानन्द के राजयोग दर्शन से सम्बन्धित विचारों का अनुवाद है। अनुवादक हैं भारतीय इतिहास दर्शन के सुविज्ञ चिन्तक डॉ. रामविलास शर्मा । आज से छः दशक पूर्व किये गये इस पुस्तक के अनुवाद की भाषा में गजब की ताजगी है।

लेखक परिचय
रामविलास शर्मा: 10 अक्टूबर, 1912 को जिला उन्नाव के ऊँचगाँव सानी में जन्म। लखनऊ विश्वविद्यालय से 1932 में बी.ए. और 1935 में अंग्रेज़ी साहित्य से एम.ए.। 1938 से 1943 तक लखनऊ विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी अध्यापक। 1943 से 1971 तक बलवन्त राजपूत कॉलेज, आगरा में अध्यापन। 1974 तक के.एम. हिन्दी संस्थान के निदेशक रहने के बाद अवकाश ग्रहण ।

देशभक्ति तथा मार्क्सवादी चेतना रामविलास जी की आलोचना का केन्द्र-बिन्दु है। उनकी लेखनी से वाल्मीकि तथा कालिदास से लेकर मुक्तिबोध तक की रचनाओं का मूल्यांकन प्रगतिवादी चेतना के आधार पर हुआ। उन्हें न केवल प्रगति-विरोधी हिन्दी आलोचना की कला एवं साहित्य-विषयक भ्रान्तियों के निवारण का श्रेय है, वरन् स्वयं प्रगतिवादी आलोचना द्वारा उत्पन्न अन्तर्विरोधों के उन्मूलन का गौरव भी प्राप्त है।

रामविलास जी को निराला की साहित्य साधना पुस्तक पर 'साहित्य अकादेमी पुरस्कार' प्राप्त हुआ। इसके अतिरिक्त वे 1988 में 'श्लाका सम्मान', 1990 में 'भारत भारती पुरस्कार', 1991 में 'व्यास सम्मान' और 2000 में हिन्दी अकादमी, दिल्ली द्वारा 'शताब्दी सम्मान' से सम्मानित। इन पुरस्कारों की राशि को देश में सारक्षरता के प्रसार के लिए दान।30 मई 2000 को निधन ।

भूमिका
योग ऐसा दर्शन है जिसका व्यवहार से घनिष्ठ संबंध है। सांख्य और योग संसार के प्राचीनतम दर्शन हैं; ऋग्वेद में दोनों का, विषेष रूप से योग का, यथेष्ट विकास हो चुका था। सांख्य बाह्य जगत् की व्याख्या करता है, योग मनुष्य के अंतर्जगत् पर ध्यान केन्द्रित करता है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं।

कौटिल्य ने अर्थशास्त्र के आरम्भ में चार विद्याएं गिनाते हुए सबसे पहले अन्वीक्षकी का नाम लिया है। फिर सांख्य, योग और लोकायत को आन्वीक्षकी के अंतर्गत माना है। लोकयत भौतिकवादी दर्शन के रूप में प्रसिद्ध है। योग और सांख्य उसके सहयोगी हैं।

प्राग्वचन
ऐतिहासिक काल के आरम्भ से ही मनुष्यों में भाँति-भाँति के अद्भुत चमत्कारों का होना पाया जाता है। वर्तमान विज्ञान की रोशनी की चकाचौंध में रहने वाले समाजों में आजकल भी ऐसे चमत्कारों के मानने वाले पुरुष दुर्लभ नहीं। साधारणतः इस प्रकार की बातें अज्ञानी, अन्धविश्वासी और धोखेबाज आदमियों में हुआ करती हैं और इसीलिये अविश्वसनीय होती हैं। इस प्रकार के चमत्कार बहुधा नकलें होती हैं, पर किसकी नकलें ? बिना पूर्ण विचार किए एक स्वतंत्र वैज्ञानिक मस्तिष्क को यह न चाहिए कि वह ऐसी बातों को दूर हटा दे। थोथे वैज्ञानिक बहुत से विचित्र मानसिक क्रिया-कलापों का कारण न बता सकने के कारण उनकी सत्ता को ही अस्वीकार कर देते हैं। अतः ये लोग उन अज्ञानियों से भी अधिक दोषभागी हैं, जो समझते हैं कि उनकी प्रार्थनाओं को बादलों के ऊपर आकाशस्थित कोई ईश्वर सुनता है अथवा उनसे, जिन्हें विश्वास है कि उनकी फरियादों को सुन ईश्वर सृष्टि के नियमों में परिवर्तन कर देगा। ऐसे लोग अपने अज्ञान और कुशिक्षा की दुहाई दे सकते हैं, जिसने उन्हें इस प्रकार की शक्तियों का दास होना सिखाया है तथा जो दासता उनकी पतित प्रकृति का एक अंग हो गई है। वैज्ञानिकों के पास ऐसा कोई बहाना नहीं।

परिचय
हमारे ज्ञान का आधार अनुभव है। जब एक को देखकर अधिक का अथवा अधिक को देखकर एक का हिसाव लगाया जाता है, तो वह ज्ञान भी अनुभव के ही आधार पर होता है। जिन्हें आजकल स्पष्ट विज्ञान कहा जाता है, इसलिये जल्दी ही सच मान लिये जाते हैं कि उनकी अपील प्रत्येक मनुष्य के कुछ विशेष अनुभवों से होती है। वैज्ञानिक तुमसे किसी बात पर अकारण ही विश्वास करने के लिए नहीं कहता। अपने अनुभवों से ही वह किन्हीं परिणामों तक पहुँचता है। उन पर विश्वास करने के लिए वह सारी मनुष्य जाति के किन्हीं अनुभवों को साक्षी करता है। प्रत्येक सष्ट विज्ञान की तह में एक अनुभव होता है जिस तक हर मनुष्य की पहुँच है, जिससे कि हम उस अनुभव से खींचे गये परिणामों की सत्यता की जाँच कर सकते हैं। अब प्रश्न यह है, क्या धर्म का भी ऐसा ही कोई आधार है? इसका उत्तर मैं 'हाँ' और 'नहीं' दोनों में दूँगा। धर्म, जैसा कि उसका संसार में प्रचार किया जाता है, लोग कहते हैं, विश्वास और श्रद्धा पर स्थिर है। कोई-कोई धर्म हैं भी तार्किक सिद्धान्तों का संग्रहमात्र और इसीलिए वे आपस में लड़ते रहते हैं। ये सिद्धान्त भी विश्वास पर ही निर्भर होते हैं। एक जन कहता है कि बादलों के ऊपर ईश्वर है जो सारे ब्रह्माण्ड का स्वामी है और अपने कहने पर ही उसमें हमें विश्वास करने के लिए कहता है। इसी प्रकार मैं भी बिना पूरा सबूत दिये दूसरों से अपने विचारों पर विश्वास करने के लिए कह सकता हूँ। इसीलिए तो आजकल धर्म और दर्शन बदनाम हो रहे हैं। हर एक पढ़ा-लिखा मनुष्य मानो यही कहता है- "अरे यह धर्म सब मिथ्या वितण्डावाद हैं जिनके सत्यासत्य-निर्णय के लिए कोई आधार नहीं। जिसे देखो वही अपने विचारों की डुग्गी पीट रहा है।"

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