पुस्तक के विषय में
रवीद्रनाथ ठाकुर की कहानियों में वंचित और लांछित नारी के विविध चित्र बार-बार अंकित हुए है। कभी दहेज की माँग के रूप में तो कभी दूसरी नारी के प्रति आकर्षण के रूप में, कभी धन-संपदा के लोग में, तो कभी समाज-राष्ट्र के तथाकथित बृहत्तर-दायित्व पालन की चेष्टा करवाने के रूप में। एक स्त्री की इच्छाएँ उसकी कामनाएँ उसके सुख-दुख आदि वहाँ निरर्थक और अनावश्यक माने जाते है। परंतु हर स्त्री उस अन्याय को स्वीकार कर लेती है। ऐसी बात नहीं है। एक स्त्री का हृदय अपने मन अनुसार गढ़ को लाँघ, कभी नि:शब्द तो कभी एक या दो शब्दों में दाम्पत्य के सात फेरों के बंधन को छिन कर, मृत्यु के माध्यम से भी पालन करती है आवश्यक दायित्व ऐसी ही दस कहानियों को इस संकलन में प्रस्तुत किया गया है।
लेखक के विषय में
जन्म:1956, कोलकाता में।
शिक्षा: कोलकाता विश्वविद्यालय, हैदराबाद के सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ इंगलिश एंड फॉरेन लैंग्वेज और यादवपुर विश्वविद्यालय में।
विधिवत् कहानी लेखन 1979 में शुरू किया। संप्रति साहित्य अकादेमी के पुर्वांचल शाखा के सचिव के पद पर कार्यरत हैं। कार्यक्षेत्र का प्रसार महानगर से लेकर सुदूर उत्तर -पूर्वांचल तक है। अनेक पुरस्कारों से सम्मानित, जिनमें प्रमुख हैं: पश्चिम बंग बांग्ला अकादमी का सोमेन चंद्र स्मारक पुरस्कार, कथा पुरस्कार, भागलपुर से शरद् पुरस्कार, गल्पमेला पुरस्कार एवं गजेंद्रकुमार मित्र जन्म शतवार्षिकी पुरस्कार।
प्रकाशित कृतियाँ: मादोले नोनून बोल, परिक्रमा, शाखाँ, कथारकथा, दुखे केवड़ा, भवदीय नंगरचंद्र, भांगा नीड़ेर डाना, दशटि गल्पो, रामकुमार मुखोपाध्यायोर छोटो गल्पो, धनपतिर सिंहल यात्रा आदि कहानी संग्रह एवं उपन्यास। संपादन किया है। कई पुस्तकों का। निबंध संग्रह 'बंगाली संस्कृति आयतन' प्रकाशित। हिंदी में 'टूटे घोंसले के पंख' उपन्याय राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित।
प्रकाशकीय
विश्वकवि रवींद्रनाथ ठाकुर ने साहित्य की लगभग सभी विधाओं में अपने लेखन के माध्यम से वैश्विक प्रतिमान स्थापित किया। उनकी कहानियों और उपन्यास भारतीय नवजागरण के दस्तावेज हैं। उनके विश्वप्रसिद्ध उपन्यास 'गोरा' से हिंदी के आम पाठक भी परिचित हैं। इस पुस्तक में रवींद्र द्वारा लिखी गई नारी-जीवन पर आधारित दस कहानियों को संकलित किया गया है। इन दसों कहानियों में चित्रित नारी पात्रों के नाम अलग हों सकते हैं पर समग्रता में उनकी समस्या एक जैसी है। ये समाज द्वारा वंचित और लांछित नारियाँ हैं जो किसी- न-किसी रूप में प्रताड़ना की शिकार होती हैं। इन कहानियों के माध्यम से रवि बाबू स्त्री-शिक्षा पर बल देते हैं साथ ही अन्याय का प्रतिवाद भी करते हैं । उनके स्त्री पात्रों में माँ बेटी, बहू स्त्री के सभी रूप हैं जिन्हें समाज मानव मात्र का दर्जा नहीं देना चाहता। निःसंदेह रवींद्र की ये कहानियाँ आज भी प्रासंगिक हैं। साथ ही स्त्री-विमर्श के इस 'तुमुल-कोलाहल' भरे समय में भारतीय स्त्री मुक्ति आदोलन की पृष्ठभूमि में पुरुषों की सहभागिता और प्रयासों को भी रेखांकित करती हैं । रवींद्र की एक सौ पचासवीं जयंती पर उनकी कहानियों के इस संकलन का प्रकाशन मंडल के लिए गौरव की बात है।
अनुक्रम
1
नयनों के नीर आखों की अग्नि : रवींद्र कहानियों में नारी
09
2
मध्यवर्तिनी
23
3
सज़ा
38
4
बादल और धूप
51
5
दीदी
83
6
मानभंग
96
7
नष्टनीड़
109
8
बोष्टमी
175
9
स्त्रीर पत्र
190
10
अपरिचिता
208
11
पहला नंबर
224
12
अनुवादकों का परिचय
242
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