युवा कवि शचींद्र आर्य ने इन कविताओं के बारे में अपने आत्म-कथ्य में लिखा है कि "वह मेरे भीतर से बाहर और बाहर से भीतर आने की प्रक्रिया का विस्तार है।" यह एक कवि के लिए सामान्य-सा कथन है। महत्त्वपूर्ण और रेखांकित करने योग्य यह है कि इस प्रक्रिया में कवि कितना तटस्थ है! यह आग्रह इसलिए कि जब तक आप सर्जनात्मक आत्मरति से मुक्त होकर अपने भीतर के अंश को बाहर कर उससे एक अजनबी की तरह नहीं टकराते, यह आवाजाही लफ़्फ़ाज़ी भर है। सुखद यह कि शचींद्र अपनी रचना-प्रक्रिया में यह प्रविधि अपनाते हैं। शायद यह प्रविधि उनकी रचनात्मक मूल प्रतिज्ञा ही हो तभी उनकी कविताओं की संवेदना, भाषा, शिल्प, कथ्य सभी एक-एक करके बाहर-भीतर होते हैं ठीक उसी तरह जैसे किसी परमाणु में इलेक्ट्रांस अपनी कक्षा का अतिक्रमण कर अपरिमित ऊर्जा का सृजन करते हैं।
1985 में जन्मे इस कवि का यह पहला काव्य-संग्रह है जिसमें 60 कविताएँ 7 खंडों में विभक्त हैं। युवा कवि शचींद्र आर्य जीवन स्थितियों का सूक्ष्म प्रेक्षण कर उन्हें पहले सघन भावों में और फिर एक सघन अभिव्यक्ति में तब्दील कर देते हैं, बल्कि यह कहना अधिक समीचीन होगा कि संवेदन, अनुभव और भाषा-शिल्प के घर्षण से उपजे काव्य-वाक्य स्वतः ही अपनी सहज अभिव्यक्ति पा जाते हैं। मुझे यह किसी कविता की नैसर्गिक यात्रा लगती है जो उनके यहाँ अपनी सार्थक परिणति तक पहुँचती है। कुछ इसी तरह उनके यहाँ कविता संभव हो पाती है। यह दिलचस्प है कि यह सघन और मर्मपूर्ण कविता हमें पुनः उन कवि-प्रेक्षणों की ओर लौटाती है जो इन कविताओं का उत्स है। वे पाठक को असमंजस में क़ैद कर देते हैं कि आखिर संवेदनों के मूल में क्या है? वे कवि-प्रेक्षण जो एक संवेदित मनुष्य द्वारा अनुभव किए गए या उनसे घटित वह कविता जो एक संवेदित कवि-कर्म का उत्पाद है।
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