जगद्गुरु श्रीवल्लभाचार्यचरण ने अत्यन्त कृपापूर्वक प्राणिमात्र के लिये परम उपकारक ऐसे दिव्य औपनिषद सिद्धान्तों को सरल भाव से उपस्थापित करके जन-जन में प्रचारित-प्रसारित किया। आज हम जो भी है वह केवल श्रीवल्लभ की कृपा से हैं। श्रीवल्लभाचार्यजी एवं आपश्री के द्वितीय पुत्र श्रीविठ्ठलनाथजी गुसांईजी ने वल्लभ सम्प्रदाय में 'यशोदोत्संगलालित' पखह्य भगवान् श्रीकृष्ण से स्नेहात्मक स्वामी सेवक भावरूप सम्बन्ध जोड़ते हुए "गृहे स्थित्वा स्वधर्मतः अव्यावृत्तो भजेत् कृष्णं" का कर्तव्य बोध हम सब को कराया। परन्तु हमारे पूर्वाचार्यों द्वारा प्रदत्त इन सुसंस्कारों को हम जब तक अपने जीवन में नहीं उतारेंगे, आत्मसात् नहीं करेंगे, तब तक हमारी भावी युवा पीढ़ी उन संस्कारों से सुसंस्कृत नहीं होगी। बाल्यकाल की आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ-साथ अभिभावकों का यह भी प्रथम कर्तव्य है कि वे स्वार्य बुद्धि एवं प्रमाद को छोड़कर सम्पूर्ण राष्ट्र के विकास को ध्यान में रखते हुए अपने बालकों को सुसंस्कृत करें। बाल्यावस्था में जो संस्कार डाले जाते है वे ही दृढ़ मूल होते है एवं वहीं आगे चलकर विकसित होते है तथा भविष्य में स्थिरता को प्राप्त करते हैं। आज के युग की स्थिति-परिस्थिति के मध्य आधुनिक सभ्यता के साथ जीवन यापन करते हुए यदि हमें अपने मूल स्वरूप में भी स्थित रहना है तो हमारे प्राचीन ऐतिह्य को समझना हमारे लिये अत्यावश्यक हो जाता है।
उपर्युक्त समग्र कारणों को ध्यान में रखते हुए ही हमारे आदरणीय गुरुचरण श्रीगोपालदास गज्जा ने आज से तकरीबन ३०/४० वर्ष पूर्व पूज्य पितृचरण (नि०ली०गो० श्रीव्रजभूषणलालजी महाराज) की आज्ञा से 'पुष्टिमार्ग दीपिका' नामक एक लघु पुस्तिका का लेखन कार्य अत्यन्त आयास पूर्वक प्रारम्भ किया था। परन्तु भगवद् इच्छा को कोई नहीं जान सकता 'भगवदिच्छा न केनापि ज्ञातुं शक्या'। वे इस पुस्तिका को सम्पूर्ण नहीं कर सके। केवल प्रथम भाग एवं द्वितीय भाग का कुछ अंश ही वे लिख पाये। उस समय उनकी उपस्थिति में ही हमारे पूज्य पितृचरण ने इस पुस्तिका के प्रथम भाग का प्रकाशन वि०सं० २०२२ में करवाया जिसकी प्रतियाँ अब लगभग समाप्तः प्रायः है।
आज भी गुरुजी का स्मरण करके हृदय द्रवित हो जाता है। गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी वे संन्यस्त भाव से भावित थे। उनका हिन्दी, इंग्लिश, संस्कृत तीनों भाषाओं पर समान अधिकार था। उनमें निहित अध्यापन की सहज प्रवृत्ति, अध्यापन क्षमता, अध्यापन कला, अध्यापन के प्रति सम्पूर्ण समर्पण, विद्यार्थी के प्रति स्नेहपूर्ण कठोरता, स्पष्टवादिता, निरपेक्ष भाव, अहंकाररहित सात्विक जीवन, हास्यभाव आदि देखते ही बनता था। 'स्पर्शेषु यत् षोडशमेकविंशः' ही जिनका धन था ऐसे हमारे आदरणीय गुरुजी की कृपा हम पर कुछ विशेष रहती रही। अपने अन्तिम समय में उन्होंने कृपापूर्वक अपनी नित्य पाठ की श्रीमद्भागवत की पुस्तक हमें ही प्रदान किया था एवं स्वयं द्वारा लिखित कुछ अप्रकाशित साहित्य भी हमें दिया था जो आज भी हमारे पास उसी रूप में सुरक्षित है। अपने गुरु के प्रिय शिष्य होने के नाते उन के द्वारा लिखित साहित्य के परिवर्धन, परिशोधन एवं उसे पूर्ण करने का सहज अधिकार हमें प्राप्त है, और उसी अधिकार के तहत हमने प्रस्तुत पुस्तक 'पुष्टिमार्ग दीपिका' का द्वितीय संस्करण परिवर्धित परिशोधित करके एवं अपूर्ण भाग को पूर्ण करके, तथा अनुल्लिखित भाग को लिखकर समवेत रूप में इसे पुनः मुद्रित कर प्रकाशित करवाया है। इस पुस्तक में छोटे-छोटे प्रश्नोत्तर द्वारा सरल भाषा में अपने 'पुष्टि सम्प्रदाय' के सम्बन्ध में जानकारी दी गयी है। इसके प्रथम भाग में श्रीवल्लभ सम्प्रदाय से सम्बन्धित ऐतिहासिक तथ्यों को प्रश्नोत्तर प्रक्रिया से समझाने का प्रयास किया गया है। श्रीवल्लभाचार्यजी, श्रीविठ्ठलनाथजी तथा आपत्री के सम्पूर्ण परिवार का यथाशक्य परिचय कराया गया है। द्वितीय भाग में 'शुद्धाद्वैतब्रह्मवादनिर्गुणपुष्टि भक्तिमार्ग' के सैद्धान्तिक पक्ष को छोटे-छोटे प्रश्नोत्तर मार्ग से समझाया गया है। तृतीय भाग में श्रीगोवर्धनधरण भगवान् श्रीकृष्ण की पुष्टि सेवा से सम्बन्धित विषय वस्तु का वर्णन प्रश्नोत्तर के ही माध्यम से किया गया है। तीन भाग के अलावा कुछ अन्य आवश्यक प्रकीर्ण विषयों पर भी प्रकाश डाला गया है। जैसे वैष्णवों के लिये कुछ सदाचार के नियम, आचार पालन, शुद्धि-अशुद्धि का ज्ञान इत्यादि पर भी विवेचन प्रश्नोत्तर माध्यम से या सूत्ररूप में किया गया है। इन समग्र विषयों के प्रतिपादन में पुष्ट प्रमाण वाक्यों को ही आधार बनाया गया है।
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