पुस्तक के विषय में
जिसे प्रायः सत्य कहा जा सकता है वह वस्तुस्थिति का प्रत्यक्षीकरण मात्र है | लोग सत्य को जानते है, समझते नही | और इसलिए सत्य कई बार बहुत कड़वा तो लगता ही है, वह भ्रामक भी होता है | फलतः जन साधारण ही नही, समाज के शीर्ष व्यक्ति भी कई बार लोकापवाद और लोकस्तुति के झूठे प्रपंचो में फंसकर पथभ्रष्ट हो जाते है |
पुनर्नवा ऐसे ही लोकपवादों से दिग्भ्रान्त चरित्रों की कहानी है | वस्तुस्थिति की कारण परंपरा को न समझ कर वे समाज से ही नही, अपने आपसे भी पलायन करते है, और कर्तव्याकर्तव्य का बोध उन्हें नही रहता | सत्य की तह में जा कर जब वे उन अपवादों और स्तुतियों के भ्रमजाल से मुक्त होते है, तभी अपने वास्तविक स्वरुप का परिचय उन्हें मिलता है और नविन शक्ति प्राप्त कर वे नए सिरे से जीवन संग्राम में प्रवृत्त होते है |
पुनर्नवा ऐसे हीन चरित्र व्यक्तियों की कहानी भी है जो युग युग से समाज की लांछना सहते आए है, किंतु शोभा और शालीनता की कोई किरण जनके अंतर में छुपी रहती है और एक दिन यही किरण ज्योतिपुंज बनकर न केवल उनके अपने, बल्कि दूसरों के जीवन को भी आलोकित कर देती है |
पुनर्नवा चौथी शताब्दी की घटनाओं पर आधारित ऐतिहासिक उपन्यास है, लेकिन जिन प्रश्नों को यहाँ उठाया गया है वे चिरंतन है और उनके प्रस्तुतीकरण तथा निर्वहन में आचार्य द्धिवेदी ने अत्यन्त वैज्ञानिक एवं प्रगतिशील दृष्टिकोण का परिचय दिया है |
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