'प्रेरक-हनुमान्' में सात सोपान है। 'सोपान 1' में हनुमान् के प्रभु राम एवं हनुमान् के गुरु सूर्यदेव के साथ, हनुमान् के सम्बन्ध को मानव के जीवन, समाज, राष्ट्र एवं विश्व के उत्थान हेतु प्रेरक के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
प्राचीनकालीन भारत में शिक्षा के साथ अध्यात्म ज्ञान को भी गुरु-शिक्षक-आचार्यों द्वारा संस्कृत भाषा में दिया जाता था, मुस्लिम शासनकाल में भारत की शिक्षा में से, यद्यपि संस्कृत भाषा को पूर्णतः हटाया नहीं गया, किंतु उर्दू, अरबी, फारसी... को भी शिक्षा प्रणाली के साथ जोड़ दिया गया और ब्रिटिश शासन में भारत की शिक्षा प्रणाली से संस्कृत भाषा को हटाकर अंग्रेजी भाषा को आधिपत्य मिला।
अध्यात्म-ज्ञान के विषयों को शिक्षा प्रणाली से बहिर्गत करके, इतिहास-भूगोल आदि विषयों को प्रविष्ट करा दिया गया। भारत की संस्कृति पर भी प्रश्न चिह्न लगा दिए गए तथा भारतवासियों के आत्मबल आत्मविश्वास का भी हनन कर दिया गया। यह बदलाव सन् 1835 में ब्रिटेन के शिक्षाविद अर्थशास्त्री थॉमस बैबिंगटन मैकाले, (जिसे ब्रिटेन के द्वारा भारत में भारत को गुलाम बनाने का तोड़ ढूढ़ने के लिए भेजा गया था।) के द्वारा ब्रिटिश पार्लियामेंट में दी गई रिपोर्ट के बाद किया गया, जिसका दुष्परिणाम जल्द ही प्रकट हुआ कि सन् 1857 में ब्रिटिशों द्वारा शासक के रूप में भारत पर शासकीय अधिकार (कब्जा) कर लिया गया और अपने गुलाम देशों की सूची में भारत को भी एक और गुलाम देश के रूप में जोड़ लिया गया तथा यह गुलामी नब्बे वर्ष (लगभग एक शताब्दी) तक चली। भारत गुलामी की बेड़ियाँ तोड़कर एक स्वतन्त्र राष्ट्र होकर भी, ब्रिटिश शासन की कुटिल कुशासन नीति के कुप्रभाव से पूर्ण अनेकानेक विषयों का ज्ञानप्रदायक के रूप में वर्णन किया गया है।
ब्रिटिश शासन से पूर्व धर्मग्रन्थों का ज्ञान अल्प अथवा बहुल रूप में भारतवासियों को मिलता रहा और भारत की अस्मिता पूर्णतः लुप्त नहीं हुई, उसका कुछ-ना-कुछ स्वरूप शेष भी रहा; किंतु, ब्रिटिश शासन द्वारा अनधिकृत रूप से भारत के पाठ्यक्रम को बदल देने एवं भारत के शिक्षा-संस्थानों का मौलिक स्वरूप मिटाकर अपने शासन को गतिशील रखने में जो स्वरूप अनुकूल जान पड़ा, उसे ही लागू करते हुए, भारत की मौलिक अस्मिता को नष्टप्रायः स्थिति में पहुँचा दिया गया।
भारत की मूल भाषा संस्कृत को हटाकर जिस अंग्रेजी भाषा का ज्ञान पाना अनिवार्य कर दिया गया था, अनेक भारतीयों ने अपनी कुशाग्र बुद्धिमत्ता से नई भाषा (अंग्रेजी) का ज्ञानार्जन कर, विश्व-भर में अनेक देशों के वैज्ञानिक क्षेत्रों में महत्वपूर्ण पदों पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया।
भारत में अंग्रेजी भाषा के प्राविष्ट्य के विषय में देश-विदेश के चिन्तकों व विशेषज्ञों द्वारा अंग्रेज़ी भाषा के ज्ञानार्जन के पक्ष में सहमतिपूर्ण वक्तव्य भी समय-समय पर प्रकट हुए हैं, जिससे यह सिद्ध करने का प्रयास किया जाता रहा है कि ब्रिटिश शासन ने भारत में अंग्रेज़ी भाषा को शिक्षा से जोड़कर महत् उपकार किया था। यद्यपि इसमें कोई विवाद नहीं कि किसी भी नई भाषा का ज्ञान उन्नति में सहायक होता है, किंतु हमारी संस्कृत भाषा के ज्ञान को शिक्षा के क्षेत्र से ही नहीं, जन-जीवन से भी दूर कर देने का प्रयास, किसी भी दृष्टिकोण से भारत के उपकार के लिए नहीं था।
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