पुस्तक के विषय में
हिंदी के महान कलाकार और एक महामानव मुंशी प्रेमचंद की यह जीवनी उनके पुत्र अमृतराय ने, जो स्वयं भी हिंदी के एक सुपरिचित लेखक हैं, विशेषकर बच्चों के लिए लिखी है । प्रेमचंद की कलम क्या थी, एक सिपाही की तलवार थी । उसी के द्वारा उन्होंने समाज की तमाम कुरीतियों, अन्यायों और अत्याचारों पर हमला किया, और गरीबी के कष्टों को झेलते हुए भी अपने सिद्धांतों पर अटल रहे। प्रेमचंद की यह जीवनी रोचक भी है और प्रेरणाप्रद भी ।
शाम-का समय था । काफी देर इधर-उधर भटकने के बाद आखिर उन्हें प्रेमचंद का घर मिल ही गया । उनका नाम चंद्रहासन था और प्रेमचंद से मिलने केरल से काशी आए थे । बाहर थोड़ी देर ठहर कर खाँ-खूँ करने पर भी जब कोई दिखाई नहीं पड़ा तो वे दरवाजे पर आये और झाँककर भीतर कमरे में देखा - एक आदमी, जिसका चेहरा बड़ी-बड़ी मूछों में खोया हुआ-सा था फर्श पर बैठकर तन्मय भाव से कुछ लिख रहा था । चंद्रहासन ने सोचा यह शायद प्रेमचंद जी का लिपिक होगा । आगे बढ़कर उन्होंने कहा, ''मैं प्रेमचंद जी से मिलना चाहता हूँ । '' उस आदमी ने नज़र उठाकर आगंतुक की ओर देखा, कलम रख दी और ठहाका लगाकर हँसते हुए कहा, ' 'खड़े-खड़े मिलेंगे क्या । बैठिये और मिलिये । '' उर्दू के एक नौजवान कवि, नाशाद, पहली बार प्रेमचंद से मिलने के लिए लखनऊ पहुँचे । उन्हें जगह का तो पता था पर मकान का ठीक-ठीक पता न था । अत: उन्होंने सड़क पर चलते एक आदमी से, जो बस एक मटमैली-सी धोती और बनियान पहिने था, पूछा, '' आप बतला सकते हैं, मुंशी प्रेमचंद कहां रहते हैं?'' उस आदमी ने कहा, ''जरूर, बहुत खुशी से । '' फिर वह आगे-आगे चला और नाशाद उसके पीछे-पीछे चले । जरा देर में घर आ गया। दोनों सीढ़ी चढ़कर ऊपर पहुँचे, पहली मंजिल पर, एक बहुत ही खाली-खाली कमरे में । वहां उस आदमी ने नाशाद को थोड़ी देर बैठने के लिए कहा और अंदर चला गया । फिर तुरत-फुरत कुर्ता पहनकर बाहर आया और हँसकर बोला, ' 'लीजिए अब आप प्रेमचंद से बात कर रहे है। ''
दिल्ली में अप्रैल 1934 के एक दिन साहित्यिक सम्मेलन है । प्रेमचंद को कथागोष्ठी का सभापति बनाया गया है । अब तक वे अपनी कीर्ति के शिखर पर पहुँच चुके हैं पर सम्मेलन के आयोजकों से अपने लिए कोई विशेष मांग नहीं करते । प्रसिद्ध हिन्दी उपन्यासकार जैनेन्द्रकुमार के शब्दों में, ''वे आये और बाकी सब लोगों की तरह उन्हें भी ठहरा दिया गया - यानी बडे-से एक हाल में बीसियों और लोगों के साथ उन्हें भी एक खाट दे दी गयी ।'' अस्पताल के एक साधारण जनरल वार्ड के समान । पर प्रेमचंद को कोई शिकायत नहीं है । यही सर्वोत्तम है । खाने के समय वे कैंटीन में जाकर अपने लिए खाना मांगते हैं । ड्यूटी पर तैनात स्वयंसेवक उनसे खाने का टिकट मांगता है ।''टिकट? कैसा टिकट? कहां मिलता है?''
''वहाँ से खिड़की पर, अगर आप खरीदना चाहें, वर्ना दफतर से, '' स्वयंसेवक सीधा-सीधा जवाब दे देता है । वह नहीं जानता कि वह किससे बात कर रहा है । प्रेमचंद चुपचाप उस खिड़की पर जाकर टिकट खरीद लेते हैं और लाइन में खड़े हो जाते हैं। यही सादगी उस आदमी के चरित्र की बुनियादी चीज़ है ।
अब दृश्य बदलता है । यह लाहौर है । 1935 । प्रख्यात उर्दू नाटककार इम्तियाज़ अली ताज ने उनको चाय पर बुलाया है । ''ठीक है, पहुँच जाऊँगा, ''प्रेमचंद उनसे कहते हैं, मगर उसके पहले उन्हें और भी बहुत कुछ करना है । और दिन भर लाहौर की सड्कों और गलियों की खाक छानने के बाद जब वे शाम को ताज साहब के घर पहुँचते हैं, दिन-भर की धूल- धक्कड़ खाये हुए अपने मटमैले-से मोटे गाढ़े कुर्ते और घुटनों तक पहुँचने वाली उटंग धोती में, तो देखते हैं कि वहाँ एक-से-एक सौ से ऊपर शानदार मोटरगाड़ियाँ खड़ी हैं । ताज साहब ने शहर के तमाम बड़े-बड़े लोगों को बुला रखा था-जज, बैरिस्टर, डाक्टर, प्रोफेसर सभी तो मौजूद थे-और उन्होंने जो प्रेमचंद को देखा तो उनमें से बहुतों को, जो इस आदमी प्रेमचंद को ठीक से नहीं जानते थे, काफी कुछ समय लगा यह समझने में कि ये निरा ठेठ देहाती आदमी ही वह प्रेमचंद है जिसके सम्मान में यह सब आयोजन हो रहा था । ऐसी बहुत सी कहानियाँ हैं और उन सबसे एक ही बात का पता चलता है-उस आदमी की सादगी का, सरलता का । उसके पास बनावट नाम की चीज नहीं है । वह जैसा है, वैसा है । अगर दुनिया में कोई एक चीज है जिससे उस आदमी को घृणा है तो वह है झूठी शान ।
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