प्रकाशकीय
साहित्य समाज को रास्ता दिखाने वाली मशाल है, यह तथ्य जब उपन्यास सम्राट प्रेमचन्द ने कहा होगा तो निश्चय ही उनके अवचेतन में समूची मनुष्य जाति की उपलब्धियाँ और इनके सन्दर्भ में विश्व साहित्य के अतुलनीय योगदान की स्मृति भी रही होगी । इस यशस्वी परम्परा में राष्ट्रभाषा हिन्दी सहित समस्त भारतीय भाषाओं का योगदान अप्रतिम है । भारतीय भाषाओं के इस सद्साहित्य में सिर्फ क्षेत्र विशेष की संगीत ही नहीं, सम्बन्धित समाजों के दुखदर्द और संघर्ष ही नहीं, सम्पूर्ण भारतीयता और समग्रता में मानवता की अनंत ऊचाइयों से भी साक्षात्कार होता है । सच तो यह हे कि राष्ट्रभाषा हिन्दी सहित समस्त भारतीय भाषाओं के साहित्य के मूल्यांकन बिना विश्व साहित्य का कोई आंकलन पूरा ही नहीं हो सकता ।
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर (7 मई 1661-7 अगस्त 1941) महान भारतीय साहित्य परम्परा की इसी असाधारण धरोहर की अनुपम विभूति हैं । बंगला भाषा में अनेक यशस्वी रचनाकार हुए हैं, उनमें गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर सिरमौर है । 'गीतांजलि’ जैसी कालजयी रचना के लिए उन्हें विश्व का सर्वश्रेष्ठ नोबुल पुरस्कार मिला था । भारत का राष्ट्रगान उन्हीं की देन है और उनका अतुलनीय योगदान साहित्य से लेकर शिक्षा तक, समाज सेवा से लेकर मानवीय मूल्यों की पुनर्स्थापना तक अत्यंत विस्तीर्ण है । उदाहरणार्थ उनकी एक कविता का भावार्थ, जिसमें राष्ट्रप्रेम की असाधारण अभिव्यक्ति प्रतिभा पग-पग पर दिखती है, इस प्रकार है -’जहां दिमाग बिना भय के हों जहां सिर ऊंचा हो जहां ज्ञान गुला हो 'उसी स्वतंत्राता के स्वर्ग में हे प्रभु मेरा देश आँखें खोले ।’
यह वर्ष गुरुदेव की 150 वीं जयंती का है, ऐसे में राजभाषा हिन्दी में उनकी कालजयी कहानियों का यह प्रतिनिधि संकलन अत्यंत महत्वपूर्ण है । इसमें गुरुदेव की 16 लोकप्रिय कहानियां संग्रहीत हैं और ये सभी शिल्प को लेकर ही नहीं, विषय वैविध्य को लेकर भी अपनी उपमा आप हैं । महान रचनाकारों की प्रमुख विशेषता विषय और शैलीगत वैविधता भी होती है और यह सभी कहानियां इस सन्दर्भ भी पाठक को गहरे प्रभावित करती हैं । बंगला भाषा से इनका अनुवाद श्रीमती माधवी वन्द्योपाधाय ने किया है जो इन दोनों ही भाषाओं की अधिकारी विद्वान हैं उगी काफी समय में रचनाकर्म में रत हैं। उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान उनके इस अतुलनीय योगदान के प्रति आभार व्यक्त करते हुए भविष्य में भी उनके सहयोग की अपेक्षा करता है।
गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर की इन प्रतिनिधि कहानियों का प्रकाशन हम अपनी भारतीय भाषाओं की साहित्यिक कृतियों की अनुवाद योजना के अन्तर्गत कर रहे हैं । इसकी कई कहानियां जहाँ पहले से ही हिन्दी पाठकों के बीच लोकप्रिय रही हैं, वहीं कई कहानियां ऐसी भी हैं जो हिन्दी में अल्पज्ञात हैं । ऐसे में यह कहानी संग्रह हिन्दी साहित्य के सभी वर्गो के पाठकों के बीच आत्मीयता पायेगा, सभी को आहूलादित करेगा, ऐसा आशा है ।
अनुवादक की ओर से
बांग्ला कथा साहित्य में 'लघुकथा’ तथा 'उपन्यास’ दोनों विधाओं का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। इन दोनों की उपस्थिति के कारण ही बांग्ला कथा साहित्य इतने उच्च स्तर तक पहुँच पाया है। रवीन्द्र नाथ ठाकुर की साहित्य परिधि बहुत विस्तृत है। लघुकथा तथा उपन्यास दोनों की शिल्प-प्रकृति भिन्न है, पर इन दोनों ही विधाओं में रवीन्द्र नाथ का स्थान बहुत ऊँचा है।
लघुकथा केवल आकार में ही छोटी नहीं होती बल्कि इसकी विधा भी स्वतंत्र है। उपन्यास की भाँति लघुकथा में व्यापकता नहीं होती। इसमें चरित्र-चित्रण पर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता, पर विषय-चयन में काफी निपुणता की आवश्यकता होती है। जीवन की कोई छोटी सी घटना या फिर कोई अंश लेकर उस पर कथा की रचना की जाती है और उसी में पूर्णता लानी होती है। प्राचीन काल तथा मध्ययुग में भी लघुकथा का काफी प्रचलन था, पर उन दिनों ये धर्म, नीति या पुराण आधारित अधिक होती थी। कभी-कभी प्रेम को लेकर भी अच्छी लघुकथाएँ लिखी गयी, पर धीरे-धीरे लघुकथा का स्वरूप बदलता गया।
सबसे पहले अमेरीकी कहानीकारों ने लघुकथा विधा में विशेष रूचि ली । प्रसिद्ध अमेरीकी लेखक ऐडगर एलेन पो ने सबसे पहले सन् 1342 में कुछ अच्छी लघुकथाओं की रचना की और फिर यह सिलसिला नियमित रूप से चल निकला । इस समय लघुकथा की परिभाषा इस प्रकार विकसित हुई —“A short story must contain one and only one informing idea and that this idea must be worked out to its logical conclusion with absolute singleness of method.” अर्थात् लघुकथा केवल आख्यान सर्वस्व नहीं होती। जीवन की
किसी विशेष महत्वपूर्ण घटना को केन्द्र में रख कर उसी पर केन्द्रित रहना लपुकथा का लक्षण है।
भारतवर्ष में लघुकथा का प्रचलन काफी दिनों के बाद हुआ। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि भारत में सबसे पहले लघुकथा को जीवनदान रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने ही दिया। बहुत कम उम्र में ही उन्होंने लघुकथाओं की रचना आरम्भ कर दी थी। सबसे पहले उनकी लघुकथाएं 'साधना’ पत्रिका में प्रकाशित हुआ करती थी। बाद में उनकी सारी लघुकथाएं 'गल्पगुच्छ’ नाम से तीन खण्डों में संकलित की गयी।
जमींदार पुत्र होने के कारण उन्हें बचपन से ही जमींदारी की देखभाल करने का कार्य सौंपा गया था। इसलिये उन्हें गाँव-गाँव में घूमना पड़ा । अत: पहले की लघुकथाओं में ग्रामीण जीवन का वर्णन बहुत अच्छी तरह से मिलता है । साथ ही साथ उनमें प्रकृति का सौन्दर्य चित्रण भी अनुपम है। 'शुमा’, 'दालिया’ और घाटेरकथा’ .आदि कहानियाँ इन विशेषताओं की प्रतिनिधि रचनाएं है। कुछ दिनों के पश्चात् उन्होंने सामाजिक समस्याओं को भी अपनी कहानियों की विषय वस्तु बनाया । वैसे तो वे प्रकृति के कवि थे, उनकी हर तरह की कहानियों तथा कविताओं में प्रकृति का वर्णन अति प्राञ्जल है । यहाँ इस तथ्य का उल्लेख समीचीन होगा कि अपनी सारी रचनाओं में उन्होंने रहस्यमयी प्रकृति का वर्णन अद्भुत ढंग से किया है । वैसे तो उन्होंने प्रकृति को कोमलांगी तथा स्नेहमयी का रूप दिया, पर 'मुन्ने की वापसी’ में उन्होंने प्रकृति का प्लान रूप भी प्रस्तुत किया ।
सामाजिक समस्याओं को भी उन्होंने अपने दृष्टिकोण से देखा । उच्च वगों के धनी व्यक्ति प्राय: निम्न वर्ग के लोगों पर अत्याचार करते थे । उनकी बहुत सारी लघुकथाएं इन्हीं मानवीय समस्याओं पर आधारित हैं । उनकी कहानी 'सजा’ इसका श्रेष्ठ उदाहरण है । उन्होंने समाज में फैले अन्धविश्वासों पर भी कई कहानियाँ लिखीं हैं। नारी जागरण पर केन्द्रित उनकी कहानी 'पत्नी के पत्र’ भी इस तथ्य को सफलतापूर्वक मुखर करती है । बाद में महिला जागरण की पृष्ठभूमि में नारियों में राजनैतिक चेतना बढ़ी और उनमें वैज्ञानिक सोच विकसित होने लगी । इसके चलते रवीन्द्रनाथ की अनेक लघुकथाओं की विषयवस्तु पूरी तरह से नारी ही बन गई । उनकी 'बदनाम’ और 'लैबोरेटरी’ जैसी कहानियाँ नारियों में विकसित होती राजनीतिक और वैज्ञानिक चेतना की भी अभिव्यक्ति हैं ।
वास्तव में उनकी प्रारम्भिक कथाओं की तुलना में बाद की कथाएं अधिक गम्भीर है । इन कथाओं में भाषा की सरलता और प्रकृति सौन्दर्य वर्णन पर बहुत अधिक ध्यान नहीं दिया गया है, परन्तु उनमें मनोवैज्ञानिक समस्याओं पर प्रखर चिंतन पग-पग पर दिखता है । उनकी एक कथा 'मुसलमानी गल्प’ साम्प्रदायिक सद्भाव पर आधारित है । इनमें धार्मिक समन्वय की आवश्कयता बहुत अच्छी तरह से व्यक्त की गई है । रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने हिन्दू-मुस्लिम सद्भाव पर अत्यधिक जोर दिया है और धर्म को उन्होंने मानव धर्म के रूप में अधिक प्रतिष्ठित किया है।
श्रीस चन्द्र गुफा के साथ एक साक्षात्कार में उन्होंने अपनी लघुकथाओं के विषय में स्वयं कहा है- “My earler stories have a greater literary value, because of their spotaniety, My stories of a latter period have a different technique. Earlier stories have a fressness of youth, but my latter stories haven’t got that fresheness and tenderness, but hey have a physiology value.” आज यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि जहाँ तक लघुकथा की बात है, तो बांगला में नहीं अपितु सभी भारतीय भाषाओं में सबसे पहले इनका शुभारंभ रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने ही किया । उनकी लघुकथाओं का भण्डार इतना विस्तृत और समृद्ध है कि कोई अन्य रचनाकार इन ऊँचाइयों को छूने में सफल नहीं रहा।
कहानी क्रम
1
मुन्ने की वापसी
2
घाट की कथा
9
3
क्षुधित पाषाण
18
4
काबुलीवाला
29
5
लेन देन
37
6
दंड
43
7
जीवित और मृत
53
8
समाप्ति
65
सम्पत्ति समर्पण
82
10
अन्तिम रात
90
11
रात्रि
106
12
कंकाल
117
13
शुभदृष्टि
124
14
बदनाम
129
15
पत्नी का पत्र
141
16
हालदार घराना
154
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