प्रस्तुत कृति लेखक को प्राचीन भारत के आलोचनात्मक राजनीतिक इतिहास की बृहत् योजना का प्रथम भाग है। इतिहास लेखन की संश्लेषणात्मक एवं विश्लेषणात्मक पद्धतियों में से दोनों का अपने-अपने स्थान पर स्वतंत्र महत्व भी होता है। यहाँ लेखक ने विश्लेषणात्मक पद्धति का अनुसरण कर प्राचीन भारत के राजनीतिक इतिहास के गहन एवं विस्तृत विवेचन को अपना लक्ष्य बनाया है, बोर इस पक्ष की एकरूपता, क्रमबद्धता एवं स्पष्टता बनाये रखने के दृष्टिकोण से सांस्कृतिक पक्ष को प्रस्तुत सन्दर्भ में नहीं लिया है।
हिन्दी भाषा में प्राचीन भारतीय इतिहास पर इस प्रकार की मौलिक रूप से लिखी गई पुस्तकों का बड़ा अभाव है। अंग्रेजी में भी बहुत से तद्विषयक ग्रन्थों में आधुनिक शोधों का समावेश नहीं मिलता है। ऐसी स्थिति में यह पुस्तक इस अभाव की पूति के एक सराहनीय प्रयास का प्रारम्भ द्योतित करती है। इतिहास साक्ष्यों के विश्लेषण एवं विवेचन के आधार पर अग्रसर होता है और राजनीतिक इतिहास की वस्तुनिष्ठता प्रधानतया लिखित साक्ष्यों पर निर्भर करती है। पर प्राचीन काल के इतिहास में जहाँ साक्ष्यों की कमी एवं अस्पष्टता तथा उनमें विरोध एवं विसंगतियाँ रहती हैं, और जहाँ केवल पुराकथाओं, किम्वदन्तियों, लोक-प्रचलित परम्पराओं और अपर्याप्त विवरणों का ही धुंधला आलोक रहता है, कुछ निश्च- यात्मक रूप से नहीं प्रतिपादित किया जा सकता है। फिर भी उपलब्ध साक्ष्यों के आलोचनात्मक परीक्षण तथा विभिन्न मतों के विवेचन के आधार पर निकटतम सम्भावनाबों का निर्देश अवश्य किया जा सकता है और इस दिशा में इस पुस्तक में लेखक ने सुन्दर प्रयास किया है।
गुरुप्रवर प्रो० जी० आर० शर्मा द्वारा प्रावकथन में पुस्तक की प्रमुख विशेष- ताओं से पाठकों को परिचित करा देने के बाद इस सम्बन्ध में मेरे लिये कुछ भी कहने को शेष नहीं रह जाता। मुझे केवल पुस्तक की विषयवस्तु के बारे में बताते हुये उसके उन अप्रकाशित भागों के सम्बन्ध में कुछ निवेदन करना है जिनका संकेत प्राक्कथन में आ चुका है।
पुस्तक के प्रथम अध्याय में भारतीय इतिहास के स्वरूप निर्धारण की चेष्टा करते हुये उसके लिखित-देशी एवं विदेशी तथा पुरातात्विक स्रोतों के महत्व पर विचार किया गया है। दूसरे अध्याय में पोडश महाजनपदों के उदय तक भार तीय इतिहास की पौराणिक परम्पराओं का विवेचनात्मक वर्णन वैदिक, पौराणिक, प्राचीन बौद्ध तथा जैन साहित्य एवं अन्य प्राचीन ग्रन्यों के आधार पर आधुनिक मतों की समीक्षा करते हुये किया गया है। तृतीय अध्याय में चार प्रधान राज्यों के उदय, साम्राज्यवादी प्रवृत्ति के विकास एवं नन्दों के पतन तक मगध के उत्कर्ष पर पालि ग्रन्थों की, पौराणिक एवं अन्य परम्पराओं के विवेचन के आधार पर प्रकाश डाला गया है। चतुर्थ अध्याय में प्रारम्मिक विदेशी पारसीक एवं यवन- आक्रमणों तथा तरकालीन राजनीतिक परिस्थितियों पर एक विस्तृत संदर्भ में विचार किया गया है।
हिन्दी में प्राचीन भारतीय इतिहास की एक प्रामाणिक और सुविस्तृत पुस्तक लिखने की योजना का उदय मेरे मस्तिष्क में आज से लगभग ६ वर्ष पूर्व हुना और तभी से मैं इस योजना को पूरा करने में प्रयत्नशील हूँ। मूल योजना के अनुसार 'प्राचीन भारत का राजनीतिक इतिहास' तथा 'प्राचीन भारत का सांस्कृतिक इतिहास' इन दो खण्डों में विषय को विभाजित करके प्रत्येक खण्ड को दो दो भागों में प्रस्तुत करने का विचार था । प्रथम खण्ड का पहला भाग प्रारम्भिक काल से गुप्तों के उदय के पूर्व तक तथा दूसरा भाग गुप्तों से मुस्लिम आधिपत्य के प्रारम्भ तक परिकल्पित किया गया था। इसी प्रकार दूसरे खण्ड में लौकिक तथा आध्यात्मिक इन दो भागों में भारतीय संस्कृति के विविध पक्षों के सैद्धान्तिक एवं संस्थागत स्वरूपों को विवेचित करने की योजना थी। अभी तक इस विशाल योजना का केवल एक चौथाई अंश हो पूर्ण हो सका है। किन्तु कुछ अनिवार्य कठिनाइयों के कारण उस एक चौथाई अंश को प्रथम खण्ड के प्रथम भाग के रूप में एक साथ ही नहीं प्रस्तुत किया जा सका ।
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