प्रस्तुत पुस्तक का नामकरण इतिहास के पाठकों को कुछ असामान्य लग सकता है। संभवतः ऐसा हो भी किन्तु इसके पीछे वास्तविकता यह है कि इसके लेखक टहलते टहलते या यात्राओं में बहुत कुछ बताते रहे हैं। कुछ किसी मुख्य विषय पर बोलते-बोलते वे जान-बूझकर नये-नये तथ्यों से अवगत कराने के उद्देश्य से विषयान्तर तथ्यों को भी बताते जाते थे। इस पुस्तक में बहुत सारे ऐसे तथ्य हैं जो उन्होंने टहलते समय या यात्रा में बताया था। इसीलिए इस पुस्तक का नाम पथकथा रखने का निश्चय हुआ। इसके साथ-साथ एक भावनात्मक कारण भी है। इसके लेखक को माधुर्यभाव से 'अजाना पथिक' नाम से भी कुछ लोग पुकारते थे। इस नाम के पीछे तन्त्र साहित्य और साधना का गूढ़ संकेत अनुभव में आया है और यह अनुभव अपने में एक रहस्यात्मकता से 'ओत प्रोत है।
प्रथम पुस्तक 'पथ चलते इतिकथा बंगला भाषा में तैयार हुई थी। उसकी विषय-प्रस्तुति को अधिक प्रभावी और उपयोगी बनाकर कुछ अन्य तथ्यों को लेकर और नये शीर्षकों में विषय वस्तु को विभक्त कर यह पुस्तक एकाधिक खण्डों में प्रस्तुत की जा रही है। मूल संदर्भ भी दिये गये हैं जिससे रुचिकर प्रसंगों का पूरा विवरण भी यदि पाठक पढ़ना, चिन्तन और मनन करना चाहें तो कर सकें।
यह पुस्तक हिस्ट्री से सम्बन्धित है। इसलिए हिस्ट्री के विषय में लेखक के विचार जानना प्रासंगिक है। लेखक का कारन है "भारतीय परम्परा के अनुसार साहित्यिक रचनाओं के चार विभाग किये गये हैं. काव्य, पुराण, इतिकथा और इतिहास। काव्य की विषयवस्तु वास्तविक नहीं होती पर उसकी वर्णनशैली प्रांजल और चिन्ताकर्षक होनी चाहिए- वाक्यं रसात्मक काव्यं । सरस और प्रांजल भाषा में वर्णित रचना को काव्य कहते हैं। पुराणों में जिन घटनाओं का वर्णन है वे वास्तव न भी हों पर लोक शिक्षा के लिए वे बड़े मूल्यवान हैं। काव्य में रसात्मकता प्रधान है और पुराणों में लोक शिक्षा। इसी हेतु सामाजिक जीवन में पुराणों को बहुत मूल्य दिया है। तीसरा विभाग है इतिकथा। लोग जिसे इतिहास (History) कहते हैं वह यथार्थ में इतिकथा है। इतिकथा है घटनावलियों का क्रमिक समाहार, घटनाओं का क्रमिक पंजीकरण, छिन्न-विच्छिन्न घटनाओं का एक धारावाहिक विवरण। इस पंजीकरण से लोकशिक्षा हो भी सकती है नहीं भी हो सकती है। इसका लक्ष्य लोक शिक्षा नहीं है।... किसी विशेष समय में अथवा जीवन के किसी विशेष पक्ष में समाज किस प्रकार आगे बढ़ा इसका कुछ ज्ञान इतिकथा से अवश्य हो सकता है... पुराकालीन सामाजिक व्यवस्था के विषय में जाना जा सकता है- वर्तमान से उसकी तुलना की जा सकती है। संस्कृत में इतिकथा के अनेक पर्यायवाची शब्द हैं- पुराकथा, इतिवृत्त, पुरावृत्त आदि पर अंग्रेजी में इसके लिए एक ही शब्द है-History। चौथा विभाग है इतिहास- इति हसति इत्यर्थे इतिहास। 'हस धातु का अर्थ है, हँसना, विकशित होना, लिखना। इतिहास इतिकथा का सोद्देश्य विकशित रूप है। इतिहास लेखन के जिस रूप में शिक्षागत मूल्य सन्निहित है उसे ही इतिहास कहते हैं। विद्यालयों और महाविद्यालयों की पाठ विधि में जो इतिहास पढ़ाया जाता है- वह इतिकथा है, इतिहास नहीं। इतिहास लेखन सोद्देश्य होता है इतिकथा प्रामाणिक पंजीकरण मात्र होती है।"
'महाभारत की कथायें' में इतिहास लेखन की विधा के वर्तमान स्वरूप के सम्बन्ध में उनका कथन है, "पृथ्वी के विभिन्न देशों के शहर-ग्राम के नामकरण के पीछे एक जीवित इतिहास है। उस इतिहास के आवरण का उन्मोचन करने पर न केवल उस स्थान का बल्कि पूरे जनपद का भी इतिहास उन्मोचित हो जाएगा। पृथ्वी के जिन देशों का इतिहास लिखित रूप में नहीं है उन देशों और नगरों के नाम ढूँढ़ने पर उस देश का इतिहास भी मिल जाएगा। भारत के मनुष्यों में सुप्राचीन काल से ही इतिहास के विषय में अनीहा (अनिच्छा) रह ही गई है. इस कारण उसका लिखित इतिहास बहुत कम है। शिलालिपि, ताम्रलिपि और मुद्राओं से इतिहास का निर्धारण बहुत ही कम हो पाता है। इसी से ग्रामों शहरों के नाम के इतिहास निर्धारण का काम यथाशक्ति और आन्तरिक प्रयास करने पर नये ढंग से इतिहास लिखा जा सकेगा। आज विद्यालयों और महाविद्यालयों में जो इतिहास पढ़ाया जाता है, उसमें से बहुत अंश को निर्मम रूप से नामंजूर और खारिज कर देना पड़ेगा।" (वर्ण विज्ञान)
इस विधा से इतिहास लेखन का दिशा निर्देश लेखक पचासों वर्षों से देते रहे हैं किन्तु उसका बहुत सारा अंश लिपिबद्ध नहीं हो सका क्योंकि उनके अनुयाइयों ने उन्हें मूलतः एक धर्मगुरु के रूप में ही समझा था। किन्तु इस विधा से इतिहास लेखन आधारभूत और समर्थक तथा मनोरंजक और ज्ञानवर्द्धक तथ्य अभ्रान्त रूप में दे सकेगा। अब इतिहासकारों का ध्यान इधर आकर्षित भी हो रहा है। श्री प्रभातरंजन सरकार अध्यात्म में दर्शन के क्षेत्र में जिस प्रकार अद्वैत दर्शन के प्रतिपादक हैं उसी प्रकार अर्थ नैतिक और राजनीतिक क्षेत्र में विश्व मानवतावाद और विश्वसरकार के समर्थक हैं। वे सम्पूर्ण मानव जाति को विश्व बन्धुत्व के प्राण सूत्र में एकताबद्ध करके विश्वसरकार के निर्माण को मानव समाज की सभी समस्याओं के समाधान का आधार मानते हुए कहते हैं कि हम सभी सृष्टि के प्राण केन्द्र भूमाचैतन्य से आए हैं और अन्ततः उसी में समाहित होना है। अतः यह लक्ष्य रखकर ही हमें साहित्य, इतिहास आदि की संरचना करना उचित है।
किन्तु इस विधा से इतिहास लेखन की अपनी कठिनाइयाँ कम नहीं हैं। ऐसे इतिहासकार को एक साथ ही प्रायः सम्पूर्ण भाषाओं और
पृथ्वी के विभिन्न देशों में ग्रामों और शहरों के नामकरण के पीछे जो जीवन्त इतिहास छिपा हुआ है, उस छिपे हुए इतिहास के परदे को यदि हटा दिया जाए तो उस स्थान के साथ-साथ उस जिला-प्रदेश के छिपे हुए इतिहास का आवरण भी हट जाएगा। दुनिया के जिन देशों का इतिहास लिखित नहीं है उन सभी देशों के ग्रामों-नगरों के नामों का इतिहास खोलने से देश का इतिहास भी मालूम हो जाएगा। भारत के लोगों में प्राचीन काल से इतिहास के संबंध में उदासीनता रही है। इसलिए इसका लिखित इतिहास बहुत कम है। शिलालेखों, ताम्रलेखों एवं मुद्राओं से इतिहास निर्धारण में बहुत कम सहायता मिलती है। ग्रामों और शहरों के नामों का इतिहास यदि उचित ढंग से निष्ठापूर्वक लिखा जाए तो नये ढंग से इतिहास निर्मित हो जाएगा। आज विद्यालयों-महाविद्यालयों में जो इतिहास पढ़ाया जाता है उसे अधिकांशतः निर्मम रूप से अस्वीकृत कर देना होगा।
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