परिवार" एक प्रकार का छोटा सा राष्ट्र है। सुविस्तृत समाज का छोटा सा संस्करण है। "सृष्टि निर्माण" की क्षमता विकसित करने के लिए हमें "परिवार निर्माण" की पाठशाला में "प्रशिक्षण" प्राप्त करना चाहिए।" भोजन - वस्त्र की, शौक मौज की, शिक्षा सुविधा की व्यवस्था बनाए रहने से ही परिवार की आवश्यकता पूर्ण नहीं हो जाती, वरन उस छोटे क्षेत्र में ऐसा वातावरण बनाना पड़ता है जिसमें पलने वाले प्राणी हर दृष्टि से "समुन्नत सुसंस्कृत" बन सकें। अधिक खर्च करने, अधिक सुविधा साधन रहने से, नौकर-चाकरों की व्यवस्था रहने से घर साफ-सुथरा और सुसज्जित रह सकता है। संपन्नता के आधार पर बढ़िया भोजन-वस्त्र, ऐश-आराम, विनोद- मनोरंजन के साधन मिल सकते हैं। किंतु "व्यक्तित्व" को समग्र रूप से विकसित कर सकने वाले "सुसंस्कार" केवल उपयुक्त "वातावरण" में ही संभव हो सकते हैं। ऐसा "वातावरण" कहीं बना-बनाया नहीं मिलता, न कहीं खरीदा जा सकता है, उसे तो स्वयं ही बनाना पड़ता है।
प्राचीनकाल के गुरुकुलों की बात दूसरी थी, वहाँ "उत्कृष्टता" का "वातावरण" बना हुआ रहता था। घर-परिवार में जो कमी रहती थी उसकी पूर्ति वहाँ हो जाती थी। ऋषि-तपस्वी अपने ज्ञान, कर्म और प्रभाव से विद्यार्थियों के "चरित्र निर्माण" की आवश्यकता पूरी किया करते थे। पर अब वैसे गुरुकुल, विद्यालय भी कहाँ हैं? "अब तो वह आवश्यकता प्रत्येक "सद्गृहस्थ" को स्वयं ही पूरी करनी पड़ेगी।" इसे यदि पूरा न किया गया, घर में "सुसंस्कृत वातावरण" न बनाया जा सका, परिष्कृत परंपराओं का प्रचलन न किया जा सका तो उस घर में रहने, पलने वाले लोग "भूत-बेताल" बनकर ही रहेंगे। स्वास्थ्य, शिक्षा, चतुरता की दृष्टि से वे कितने ही अच्छे क्यों न हों, "मानवी सद्ग
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी ने कार्यकर्ताओं को पांच तत्वों को अपने जीवन में उतारने की बात कही, और आगे कहा कि स्वयंसेवक अपने दैनिक जीवन में सामाजिक समरसता, कुटुंब भाव, पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता, स्वदेशी का आग्रह और नागरिक कर्तव्य बोध का पालन करें। देव स्थल, सार्वजनिक पानी का स्थल और श्मशान भूमि पर सबका बराबर अधिकार होता है। अपना समाज एक परिवार के समान है। यह परिवार बोध सबके मन में होना चाहिए। स्वयंसेवकों को स्वयं और अन्य लोगों को भी प्लास्टिक के प्रयोग से बचना चाहिए। पानी के दुरुपयोग और वृक्षों के सुरक्षा व संवर्धन पर भी ध्यान देना चाहिए, स्वयंसेवकों को 'स्व' बोध का स्वाभिमान और स्वदेशी भाव पर जीवन को उत्कृष्ट बनाने की योजना करनी चाहिए। जिससे समाज प्रेरणा पा सके। किसी देश का समुचित विकास तभी संभव हो पाता है, जब उसके नागरिकों में नागरिक कर्तव्य का बोध हो और उसके पालन के प्रति कठोरता हो, इन्ही उपर्युक्त सपनों को प्रत्येक नागरिक के अंतःकरण में पुनर्जागरण, पुनर्साक्षात्कार हेतु पञ्च-परिवर्तन रूपी पुष्प के सृजन एवं पुष्पित करने की आवश्यकता अनुभव हुई जिसे अपने सहयोगियों के अप्रतिम सहयोग से पूर्ण कर पाने में सफल हुआ अतः उन सभी को हृदय की गहराइयों से आभार ज्ञापित करता हूँ और इसी प्रकार की भविष्य में भी अपेक्षा चाहूँगा।
आदरणीय जगराम भाई जी द्वारा लिखी गई पुस्तक "पञ्च परिवर्तन" के अवलोकन का अवसर मिला वस्तुतः यह पुस्तक भारतीय ज्ञान परम्परा के आधार पर पञ्च परिवर्तनों की उपयोगिता प्रासंगिकता और आवश्यकता को समझने का सरल माध्यम बन सकती है। वैसे तो समाज में सकारात्मक परिवर्तन के लिए पिछले कई वर्षों से निरंतर कार्य चल रहा है। भारतीय समाज में सकारात्मक परिवर्तन को गति देने एवं समाज में अनुशासन व देशभक्ति के भाव को बढ़ाने के उद्देश्य से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी समाज में पञ्च परिवर्तन का आह्वान किया है ताकि अनुशासन एवं देशभक्ति से ओतप्रोत युवा वर्ग अनुशासित होकर अपने देश को आगे बढ़ाने की दिशा में कार्य करे। इस पञ्च परिवर्तन में पांच आयाम शामिल किए गए हैं- (1) स्व का बोध अर्थात स्वदेशी, (2) नागरिक कर्तव्य, (3) पर्यावरण, (4) सामाजिक समरसता एवं (5) कुटुम्ब प्रबोधन। इस पञ्च परिवर्तन कार्यक्रम को सुचारु रूप से लागू कर समाज में बड़ा परिवर्तन लाया जा सकता है। 'स्व' के बोध से नागरिक अपने कर्तव्यों के प्रति सजग होंगे। नागरिक कर्तव्य बोध अर्थात कानून की पालना से राष्ट्र समृद्ध व उन्नत होगा। सामाजिक समरसता व सद्भाव से ऊँच-नीच जाति भेद समाप्त होंगे। पर्यावरण से सृष्टि का संरक्षण होगा तथा कुटुम्ब प्रबोधन से परिवार बचेंगे और बच्चों में संस्कार बढ़ेंगे। भारत की प्राचीन परिवार परंपरा को बढ़ावा देने की आज महती आवश्यकता है।
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