माधव हाड़ा: (जन्म: मई 9, 1958) मीरां के जीवन और समाज पर एकाग्र अपनी पुस्तक पचरंग चोला पहर सखी री (2015) और इसके अंग्रेज़ी अनुवाद मीरां वर्सेज़ मीरां (2021) के लिए चर्चित माधव हाड़ा की दिलचस्पी का मुख्य क्षेत्र मध्यकालीन साहित्य और इतिहास है। देहरी पर दीपक (2021), मुनि जिनविजय (2016), सीढ़ियाँ चढ़ता मीडिया (2012), मीडिया, साहित्य और संस्कृति (2006), कविता का पूरा दृश्य, (1992) और तनी हुई रस्सी पर (1987) उनकी मौलिक और सौने काट न लागै (2021) एक भव-अनेक नाम (2022), सूरदास, तुलसीदास, अमीर खुसरो, मीरां (2021), मीरां रचना संचयन (2017), कथेतर (2017) और लय (1996) उनकी संपादित पुस्तकें हैं। पत्न-पत्निकाओं में उनके शताधिक शोध निबंध, आलेख, विनिबंध, समीक्षाएँ आदि प्रकाशित हुए हैं। वे प्रकाशन विभाग, भारत सरकार के भारतेन्दु हरिश्चंद्र पुरस्कार (2012) एवं राजस्थान साहित्य अकादमी के देवराज उपाध्याय आलोचना पुरस्कार (1990) से पुरस्कृत हैं और साहित्य अकादेमी की साधारण परिषद् और हिंदी परामर्शदात्नी समिति (2012-2017) के सदस्य रहे हैं। मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर के हिंदी विभाग के प्रोफ़ेसर पद से सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने संस्थान की दो वर्षीय (2018-2021) अध्येतावृत्ति के अंतर्गत यह विनिबंध प्रस्तुत किया।
पद्मिनी-रनसेन प्रकरण सदियों से लोक स्मृति में 'मान्य सत्य की तरह रहा है। सोलहवीं से उन्नीसवीं सदी तक इस प्रकरण पर देश भाषाओं में निरंतर कथा-काव्य रचनाएँ होती रही हैं और ये अपने चरित्त और प्रकृति में परंपरा से कथा-आख्यान के साथ कुछ हद तक 'इतिहास' भी हैं। अज्ञात कविकृत गोरा-बादल कवित्त (1588 ई. से पूर्व), हेमरतनकृत गोरा-बादल पदमिणी चउपई (1588 ई.), अज्ञात कविकृत पद्मिनीसमिओ (1616 ई.), जटमल नाहरकृत गोरा-बादल कथा (1623 ई.), लब्धोदयकृत पद्मिनी चरित्व चौपई (1649 ई.), दयालदासकृत राणारासो (1668-1681 ई), दलपतिविजयकृत खुम्माणरासो (1715-1733 ई.) और अज्ञात रचनाकारकृत चित्तौड़-उदयपुर पाटनामा (प्रतिलिपि, 1870 ई.) इस परंपरा की अब तक उपलब्ध रचनाएँ हैं। पद्मिनी प्रकरण व्यापक चर्चा में तो रहा, लेकिन इसकी परख-पड़ताल में इस्लामी, फ़ारसी-अरबी स्रोतों की तुलना में इन रचनाओं का उपयोग नहीं के बराबर हुआ। अधिकांश आधुनिक इतिहासकारों ने इन देशज रचनाओं के बजाय अलाउद्दीन खलजी के समकालीन इस्लामी वृत्तांतों में अनुल्लेख के आधार पर देशज रचनाओं को मलिक मुहम्मद जायसी की पद्मावत (1540 ई.) पर निर्भर मानते हुए इस प्रकरण और इन रचनाओं को कल्पित ठहरा दिया। प्रस्तुत विनिबंध इन रचनाओं को भारतीय ऐतिहासिक कथा काव्य की परंपरा के परिप्रेक्ष्य में रखकर इनके ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक महत्त्व पर विस्तार से विचार करता है। ख़ास बात यह है कि इस विचार में बतौर साक्ष्य रचनाओं का मूल और हिंदी कथा रूपांतरण भी दिया गया है। इतिहास और साहित्य के अध्येता के रूप में पद्मिनी की प्रसंग में रुचि रखने वाले विद्वानों और सामान्य पाठकों के लिए यह विनिबन्ध सूचना और शोधदृष्टि प्रदान के लिए न केवल उपयोगी, बल्कि नेक्नोन्मीलक है। लेखक ने विवादास्पद विषय पर सम्यक् अध्ययन प्रस्तुत कर अकादमिक के साथ, सामाजिक उपयोगिता की दृष्टि से भी, महत्त्वपूर्ण कार्य किया है।
"क्या किसी एक रचना या दस्तावेज़ में जो नहीं है या उसका रचनाकार जिसके संबंध में मौन है, उसको महज़ इस आधार पर नहीं हैं' कहा जा सकता है? क्या इस तरह का निष्कर्ष तर्कसंगत है? जो एक जगह नहीं है, तो फिर किसी और जगह भी नहीं होगा-यह केवल संभावना या परिकल्पना है और संभावना और परिकल्पना पर निर्भरता तो 'आधुनिक' इतिहास की अभिलक्षणाओं में नहीं आती। विडंबना यह है कि जिस तर्क से कालिकारंजन कानूनगो पद्मिनी कथा को 'मिथ' या 'कल्पित' कहकर खारिज करते हैं, उसी तर्क से वे पद्मिनी के संबंध में 'नहीं हैं' का निष्कर्ष निकाल लेते हैं। पद्मिनी देशज कथा-काव्यों में है. वंश-प्रशस्ति प्रधान संस्कृत रचनाओं में है और सदियों से लोक स्मृति और स्मारकों में है, लेकिन उनके हिसाब से कोई एक इस संबंध में मौन है. इसलिए वह दूसरी जगह भी कैसे हो सकती है? दशरथ शर्मा की बात उस समय नही सुनी गयी. लेकिन जो उन्होंने कहा उसमें में वे यही तो कहना चाहते थे कि अगर वह वहाँ नहीं है. तो उसके कहीं और होने की संभावना तो है। विडंबना यह है कि पद्मिनी एक अमीर खुसरो की 'चुप' के बाहर सब जगह थी. लेकिन केवल एक 'चुप' के आधार पर उसका अस्तित्व संदिग्ध कर दिया गया। क्या इस तरह एक चुप पर पर निर्भरता और उसका इस तरह आग्रह दुराग्रह नहीं है?"
प्रस्तुत शोध कार्य मध्यकालीन साहित्य और इतिहास के बहुचर्चित, किंतु विवादित पद्मिनी-रत्नसेन प्रकरण (1303 ई.) पर निर्भर देशज ऐतिहासिक कथा-काव्यों का विवेचनात्मक अध्ययन है। कतिपय उपनिवेशकालीन और उनके उत्साही अनुगामी 'आधुनिक' भारतीय इतिहासकारों के संदेह के बावजूद पद्मिनी के लिए अलाउद्दीन ख़लजी का चित्तौड़गढ़ अभियान लोक स्मृति और साहित्य में सदियों से लगभग 'मान्य सत्य' की तरह रहा है। पुनर्जागरणकाल और बाद में राष्ट्र निर्माण की आरंभिक सजगता के दौर में महाराणा प्रताप के मुगलों के विरुद्ध संघर्ष की तरह ही पद्मिनी के अपने सतीत्व की रक्षा के लिए जौहर को भी साहित्य में आदर्श की तरह प्रस्तुत किया गया। पद्मिनी के जौहर पर प्रचुर मात्रा में रोमांटिक और राष्ट्रवादी साहित्य उपलब्ध है। उसके चरित्र को किशोर और युवा विद्यार्थियों में आदर्श की तरह प्रस्तुत करने के लिए साहित्य और चित्रकथाओं की रचनाएँ हुईं।' चित्तौड़ और उदयपुर- दोनों विश्व पर्यटन के मानचित्र पर हैं, इसलिए इन दोनों के अतीत को विदेशी पर्यटकों के लिए जिस तरह से प्रस्तुत किया गया, उसमें भी पद्मिनी विषयक प्रकरण बहुत प्रमुखता से, एक असाधारण घटना की तरह वर्णित है। ऐसी कई पुस्तकें चित्तौड़ और उदयपुर सहित संपूर्ण राजस्थान में देशी-विदेशी पर्यटकों के लिए उपलब्ध हैं। पद्मिनी-रत्नसेन प्रकरण में निहित रोमांस, शौर्य और बलिदान लोकप्रिय फ़िल्म और टीवी सीरियल निर्माताओं के लिए भी आकर्षण का विषय रहे हैं। फ़िल्म 'पद्मावत' पर हुए विवाद से पहले तक यह प्रकरण प्रमुखता से राजस्थान सहित अन्य एकाधिक राज्यों और केन्द्र की इतिहास और साहित्य संबंधी पाठ्य पुस्तकों में भी सम्मिलित था। विवाद के बाद कुछ पाठ्यक्रमों से इसको हटा दिया गया, जबकि कुछ में इसे राजपूत समाज की मंशा के अनुसार बदल दिया गया। यह भी कि सदियों से चित्तौड़ दुर्ग की कुछ इमारतें और स्थान पद्मिनी से संबंधित विख्यात हैं। दुर्ग में तालाब के किनारे बना हुआ एक विशालकाय महल भी 'पद्मिनी महल' के नाम से जाना जाता है और इसी तरह एक छोटा दुमंजिला महल तालाब के अंदर भी है, जिसे भी 'पचिनी महल' कहते हैं। दुर्ग में एक स्थान 'जौहरकुंड' के नाम से भी विख्यात है। पर्यटकों को यही जानकारियाँ दी भी जाती हैं। विख्यात इतिहासकार गौरीशंकर ओझा ने भी इन स्थानों का नामोल्लेख इसी रूप में किया है। फ़िल्म पर हुए विवाद से यह प्रकरण एकाएक पहले से अधिक चर्चा में आ गया और देखते-ही-देखते इस प्रकरण पर आधारित एकाधिक कथेतर और कथा रचनाएँ प्रकाशित हो गई। ये सभी रचनाएँ, फ़ौरीतौर पर कुछ हद तक इतिहास में भी जाती हैं, लेकिन ये सभी सदियों पुराने इस 'मान्य सत्य' पर निर्भर हैं कि पद्मिनी के लिए अलाउद्दीन ने चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण किया और अपने सतीत्व की रक्षा के लिए पद्मिनी ने जौहर किया।' साथ ही, ये रचनाएँ इधर कुछ समय से अस्मिता सचेत हुए भारतीय जनसाधारण की मंशा के अनुसार इस प्रकरण का रूमानीकरण भी करती हैं।
अधिकांश आधुनिक भारतीय इतिहासकारों का नज़रिया शुरू से ही इस प्रकरण पर उपनिवेशकालीन इतिहासकारों के अतिरिक्त उत्साही अनुगामी इतिहासकारों को तरह था। इन इतिहासकारों में से कुछ तो इस सीमा तक उत्साही थे कि वे यूरोपीय इतिहासकारों के बहुत अस्पष्ट और अपुष्ट संकेतों को भी पुष्ट और विस्तृत करने में ऐसे जुटे कि सच्चाई उनसे बहुत पीछे छूट गई और देशज ऐतिहासिक और साहित्यिक स्त्रोत और उनमें विन्यस्त कतिपय ऐतिहासिक 'तथ्य' उनसे अनदेखे रह गए। लगभग सार्वभौमिक बन गई ग्रीक रोमन ईसाई इतिहास चेतना से, सनातनता और चक्रीय कालबोध पर निर्भर भारतीय इतिहास चेतना कुछ हद तक अलग थी, लेकिन उसमें काल का रेखीय बोध भी पर्याप्त था, लेकिन इन ऐतिहासिक कथा-काव्यों का मूल्यांकन इस आधार पर नहीं हुआ। 'मान्य सत्य' या विश्वास का भी इतिहास में पर्याप्त महत्त्व होता है। "इतिहास की चेतना यदि मनुष्य की चेतना की यात्रा और उस पर पड़े प्रभाव का अध्ययन है, तो हमें उन घटनाओं को अधिक महत्त्व देना होगा, जो हमारी चेतना में अभी भी अस्तित्वमान हैं और इसलिए हमारे कार्यों को अभी भी प्रभावित करती हैं।"" खास बात यह है कि इन रचनाओं को इस निगाह से भी नहीं पढ़ा-समझा गया।
राजस्थान का पहला आधुनिक इतिहास लिखने वाले लेफ्टिनेंट कर्नल जेम्स टॉड (1829 ई.) के समय शोध के संसाधन बहुत सीमित थे। उन्होंने उपलब्ध सीमित जानकारियों, साहित्य और जनश्रुतियों को मिलाकर प्रकरण का जो वृत्तांत एनल्स एंड एंटिक्विटीज ऑफ राजस्थान में गढ़ा, वो इतिहास, साहित्य और लोक स्मृति का मिला-जुला, लेकिन आधा-अधूरा रूप था। टॉड के बाद इस प्रकरण का हवाला दि ओक्सफोर्ड हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया में पहली बार वी.ए. स्मिथ (1921 ई.) ने दिया।
उन्होंने अपनी तरफ से इस प्रकरण की खोजबीन नहीं की और न ही वे इसकी तफसील में गए। उन्होंने केवल यह लिखा कि यह "टॉड के पन्नों में है।" उन्होंने यह नहीं कहा कि यह मिथ्या, मनगढ़ंत या झूठ है, उन्होंने केवल यह लिखा कि यह 'सोबर हिस्ट्री' (sober history) नहीं है।" कुछ हद उनकी बात सही भी थी। साहित्य और लोक में व्यवहृत इतिहास सही मायने में पूरी तरह इतिहास नहीं होता, लेकिन फिर भी इतना तो तय है कि उसमें इतिहास भी होता है। वी.ए. स्मिथ की यह टिप्पणी इतिहास के यूरोपीय संस्कारवाले आधुनिक भारतीय इतिहासकारों के लिए आदर्श और मार्गदर्शक सिद्ध हुई। आरंभ में गौरीशंकर ओझा (1928 ई.) और किशोरीसरन लाल (1950 ई.) ने इस प्रकरण की ऐतिहासिकता पर संदेह व्यक्त किया। बाद में कालिकारंजन कानूनगो (1960 ई.) तो अति उत्साह में इस प्रकरण को सर्वथा मिथ्या और ग़लत सिद्ध करने में प्राणपण से जुट गए। उन्होंने दो तर्क दिए- एक तो समकालीन इस्लामी स्रोतों में इस प्रकरण का उल्लेख नहीं मिलता और दूसरा, कुछ वंश अभिलेखों में रत्नसिंह का नाम ही नहीं है। कुछ हद तक उनकी दोनों बातें सही थीं, लेकिन वे इसके कारणों में नहीं गए। उन्होंने हड़बड़ी में यह निष्कर्ष निकाल लिया कि यह प्रकरण मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा कल्पित है और इसका इतिहास से कोई लेना-देना नहीं है। उन्होंने आर.सी. मजूमदार के हवाले से यह कहने में भी देर नहीं की कि जायसी का चित्तौड़ मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ नहीं है, यह कहीं इलाहाबाद के समीप स्थित चित्रकूट है। उनकी देखा-देखी इस प्रकरण को मिथ्या सिद्ध करने वालों की भीड़ लग गई। बाद में फ़िल्म 'पद्मावत' पर हुए विवाद के दौरान हरबंश मुखिया, हरफान हबीब आदि भी इस मुहिम शामिल हो गए। उनकी राय राय में यह प्रकरण जायसी (पद्मावत, 1540 ई.) द्वारा कल्पित, इसलिए अनैतिहासिक है। ये अधिकांश इसकी पुष्टि इस तर्क से करते हैं कि समकालीन इस्लामी स्रोतों-अमीर खुसरो कृत खजाइन-उल-फुतूह (1311-12 ई.) और दिबलरानी तथा खिज्ञ खाँ (1318-19 ई.), जियाउद्दीन बरनी कृत तारीख-ए-फ़िरोजशाही (1357 ई.) तथा अब्दुल मलिक एसामी कृत फुतूह-उस-सलातीन (1350 ई.) में इसका उल्लेख नहीं है। इनके अनुसार जायसी ने इसकी कल्पना की और यहीं से यह परवर्ती और देशज चारण और जैन कथा-काव्यों में पहुँचा। इस मुहिम में शामिल ये विद्वान् इस तथ्य की अनदेखी ही कर गए कि "चुप्पी से बहसियाना तार्किक रूप से भ्रामक होता है और केवल चुप्पी के आधार पर की गई कोई भी परिकल्पना किसी दिन गलत भी साबित हो सकती है।" यही हुआ, बाद में यह धारणा गलत सिद्ध हो गई।
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