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पागलों की भीड़ में- Paaglon Ki Bheed Mein (Song Collection)

$30
Specifications
HBC316
Author: Raghavendra Narayan Singh
Publisher: Educational Book Service, Delhi
Language: Hindi
ISBN: 9789386541031
Pages: 120
Cover: HARDCOVER
9.00 X 6.00 inch
270 gm
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Book Description
पुस्तक परिचय
पागलों की भीड़ में राघवेन्द्र नारायण सिंह का सप्तम काव्य-संग्रह है। संग्रह की कविताएँ उन मानवीय मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता प्रदर्शित करती हैं जिन्हें आज की सायबर दुनिया ने लगभग अलविदा ही कह दिया है। आभासी दुनिया में सुख की तलाश करता हुआ मनुष्य उस शून्य में तिरोहित होने लगा है जहाँ उसे न कोई सुख और न ही कोई शान्ति मिल पाती है। आत्मविस्मृति के अन्धकूप में गिरा हुआ इन्सान अन्ततः भयंकर यातना और पीड़ा का अनुभव करता हुआ नितान्त अकेले ही साँसें लेने के लिए अभिशप्त नजर आता है। डिजिटलाइजेशन के इस समकालीन समय में मानवीय मूल्यों की दरकन को स्पष्ट रूप से सुनता हुआ कवि पागलों की उस भीड़ का दर्शन करता है जिसे अपने होने और न होने का भी अहसास नहीं रहता है। कवि की पीड़ा छलककर शब्द बिम्बों में उभरने लगती है। 'देखते हम रह गए बस दूर जाते बादलों को काँपते मन से सुनी हमने उतरती आहटों को। कवि व्यथित हो उठता है और प्रश्न स्वतः उसके शब्दों को चुनकर बोलने लगते हैं, 'क्यों हुआ, कैसे हुआ, अब तक नहीं हमको पता है/मंजिलें हैं दूर जातीं, क्या हुई हमसे खता है?' कवि की निराशा अधिक देर तक नहीं टिकती। वह अपने लक्ष्य के प्रति पुनः नये जोश से शर-संधान करता है, 'लक्ष्य भेदने के हित कोई अर्जुन जब है कहीं निकलता/नहीं कभी वह इधर-उधर की बातों में दिलचस्पी लेता'।

इस संग्रह की प्रत्येक रचना राघवेन्द्र नारायण सिंह की जीवन दृष्टि को बयां करती है। उनकी सामाजिक प्रतिबद्धता और सत्य तथा न्याय के प्रति कटिबद्धता सभी रचनाओं को ऊर्जान्वित करती रहती है, इसलिए ही इस संग्रह की प्रत्येक रचना अलग-अलग होते हुए भी भावनात्मक और वैचारिक स्तर पर एकरूपता लिए हुए हमें आश्वस्त करती है। सरल और कोमल शब्दावलियों में लिखी गई प्रत्येक कविता निःसन्देह पठनीय और संग्रहणीय है।

लेखक परिचय
राघवेन्द्र नारायण सिंह: वाराणसी (उत्तर प्रदेश) के बैजलपट्टी (हरहुआ) ग्राम में सन् 1960 में जन्मे डॉ० राघवेन्द्र नारायण सिंह आधुनिक समय के प्रमुख कथाकार, उपन्यासकार, समीक्षक, कवि एवं विचारक हैं। चौबीस से अधिक पुस्तकों के लेखक डॉ० सिंह अंग्रेजी और हिन्दी में समान रूप से लिखते हैं। आपकी कहानियाँ, उपन्यास एवं अध्यात्म-विज्ञान पर लिखी गई पुस्तकें देश और विदेश में समान रूप से लोकप्रिय हैं। अपनी रचनाओं के माध्यम से जीवन की अनेक विसंगतियों और विद्रूपताओं को झंकृत करते हुए आप पाठकों में जीवन के प्रति नई सोच और ऊर्जा प्रवाहित करने का प्रयास करते हैं। महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी से सम्बद्ध श्री बलदेव पोस्ट-ग्रेजुएट कॉलेज में अंग्रेजी के एसोसिएट प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष डॉ० सिंह की रचनाएँ पाठकों के मन-मस्तिष्क को गहराई तक प्रभावित करती हैं। सम्प्रति आप सपरिवार ए-55, 212, गौतम गॉर्डेन कालोनी, शिवपुर, वाराणसी में रहकर अपने सामाजिक, शैक्षणिक और साहित्यिक दायित्वों का निर्वहन कर रहे हैं।

दो शब्द
पागलों की भीड़ में मेरा सातवाँ काव्य-संग्रह है। पिछले कुछ समय में लीपिबद्ध की गई मेरी रचनाओं का प्रस्तुत संग्रह अपने शीर्षक के माध्यम से विषय-वस्तु की ओर इशारा कर देता है। जिन्दगी को देखने और समझने के नजरिए को ही दर्शन कहते हैं। यदि तटस्थ भाव से देखने की कोशिश की जाए तो जिन्दगी के तमाम संघर्ष, संत्रास, पीड़ाएँ, युद्ध, विभीषिकाएँ कुछ और नहीं वरन् मनुष्य के मस्तिष्क की विकृतियाँ ही प्रतीत होती हैं। परपीड़क अपनी विशेष रुग्ण मानसिकता के कारण ही दूसरों को अधिक से अधिक पीड़ित करके सुखी होने की सन्तुष्टि प्राप्त करता है। उसी तरह कोई मनस्वी अपनी उच्च मनोस्थिति के फलस्वरूप ही दूसरों को अधिक से अधिक सुखी और आनन्दित देखकर सुख की अनुभूति महसूस करता है। यह हमारा नजरिया ही होता है जो हम किसी वस्तु अथवा व्यक्ति को अपने अनुरूप अथवा विरुद्ध पाते हैं। कहने का तात्पर्य है कि कवि भी व्यक्तिगत रूप से निष्पक्ष नहीं रह पाता। वह पक्षधर होता है लेकिन उसकी पक्षधरता शान्ति, न्याय, साहचर्य, भ्रातृत्व और सार्वभौमिक मूल्यों के प्रति होती है। वह मानव-मानव के बीच भेद नहीं कर पाता। उसके लिए दिक्-काल की सीमाएँ कुछ मायने नहीं रखतीं, वह उन्हें संक्रमित करते हुए मनुष्यता की प्रतिष्ठा के लिए अपनी रचनाशीलता को समर्पित करता है। कोई भी सच्चा लेखक अन्याय का किसी भी परिस्थिति में समर्थन नहीं कर सकता, वह द्रष्टा और मूक भी नहीं रह सकता, उसकी कलम स्वतः ही जुल्म के प्रतिकार स्वरूप तलवार की तेजी अख्तियार कर लेती है।

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