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उस शहर में हमारा घर- (कहानी-संग्रह): Us Shahar Mein Humara Ghar- (Story collection)

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Item Code: HAD613
Author: Prakash Manu
Publisher: LITTLE BIRD PUBLICATIONS, DELHI
Language: Hindi
Edition: 2024
ISBN: 9789393091789
Pages: 195
Cover: PAPERBACK
Other Details 8.5x5.5 inch
Weight 260 gm
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Book Description
भूमिका

आज अपनी कहानियों पर बात करने बैठा हूँ, तो शुरुआत शायद यहीं से करना ठीक होगा, कि कहानी के लिए दीवानगी तो शुरू से ही थी। बचपन में मुझे याद है, माँ और नानी की सुनाई गई कहानियाँ मुझे किसी और ही दुनिया में पहुँचा देती थीं। लगता था, वह दुनिया मेरे आसपास की देखी-भाली दुनिया से काफी अलग और कौतुक भरी है। उसमें हर क्षण कुछ न कुछ घटित होता था और मुझे लगता था, मैं बिना पंखों के उड़ रहा हूँ, उड़ता जा रहा हूँ एक अंतहीन आकाश में, और जीवन-जगत के एक से एक नए रहस्यों को जान रहा हूँ।

कहानी के जरिए बिना पंखों के उड़ने की कहानी शायद मेरे जीवन की सबसे अचरज भरी कहानी है, जिसने मुझे भीतर-बाहर से बदल दिया, और जिस दुनिया में मैं था, जी रहा था, उसके मानी भी कुछ बदल गए। दुनिया वही थी, जिसमें सब जी रहे थे, पर मेरे लिए वह दुनिया कुछ अलग हो गई थी।

मुझे याद है, बचपन में माँ से सुनी कहानियों में एक अधकू की कहानी भी थी, जो मुझे सबसे ज्यादा अच्छी लगती थी। भला क्यों? इसलिए कि यह अधकू बड़ा विचित्र था। एक हाथ, एक पैर, एक आँख और एक कान...! सब कुछ आधा। ऐसा विचित्र था अधकू ।... और मैं भी तो कुछ ऐसा ही था। एकदम दुबला-पतला, सींकिया सा। अगर घर में कोई कुछ कह देता तो माँ बरजतीं। बार-बार कहतीं, "मेरा कुक्कू ताँ अड़या-जुड़या होया तीला है। इन्नू कुज्झ न आक्खो!" यानी जैसे तिनते एक-दूसरे में अटके हों, वैसे ही मेरा कुक्कू तो बस किसी तरह जुड़ा हुआ है। हाथ लगते ही तिनके बिखर जाएँगे ।... इसलिए इसे जरा भी छेड़ो मत ।

अधकू ऐसा था, विचित्र। पर बड़ा हँसमुख था। खुशमिजाज। हिम्मती और दिलेर भी, और आसानी से हार मानने वाला नहीं था ।... उसकी सबसे बड़ी ताकत थी उसकी माँ, जो उसे बेइंतिहा प्यार करती थी। बाकी सब लोग उसका मजाक उड़ाते थे। उसके छहों भाई भी, जो हरदम उससे पिंड़ छुड़ाने की फिराक में रहते । पर इसी अधकू ने अपनी धुन से ऐसा कमाल किया कि राजा ने अधकू और उसके सभी भाइयों को दरबार में रख लिया। सबको रहने के लिए एक सुंदर महल भी मिल गया। यों अधकू जो आधा था, अधकू जो सींकिया था, विचित्र भी, उसने जीवन में एक सम्मानपूर्ण जगह बनाई और अपने भाइयों को भी तारा ।...

इस कहानी में कुछ बात थी कि मैं उसे आज तक नहीं भूल पाया। क्यों

भला? शायद इसलिए कि मुझे लगता था, मैं ही अधकू हूँ। औरों से बहुत

अलग। इसलिए कि मुझमें शारीरिक ताकत ज्यादा नहीं थी। दुनियादारी में

कच्चड़। खेलकूद में कच्चड़... बहुत सारी चीजों में फिसड्डी। एकदम फिसड्डी।

पर फिर भी लगता, कुछ है मुझमें, कि मैं भी कुछ कर सकता हूँ। सारी दुनिया

से कुछ अलग कर सकता हूँ।... वह क्या चीज थी, जिस पर इतना भरोसा

था मुझे ? तब तो शायद बहुत साफ न रही होगी। पर आज जानता हूँ कि

वह मेरी चुपचाप सोचते रहने की आदत थी, और लिखने-पढ़ने की धुन, जो

शायद पाँच-छह बरस से ही शुरू हो गई थी। वही धुन जो आगे चलकर मुझे

साहित्य की खुली दुनिया में लाई ।... ऐसे ही माँ की सुनाई कहानियों में एक और कहानी थी, एक ऐसे राजकुमार की, जिसे सात कोठरियों वाले महल में कैद कर दिया गया था। उससे कहा जाता है कि वह छह कोठरियाँ तो देख ले, पर सातवीं न खोले, क्योंकि इससे उसका अनिष्ट हो सकता है। राजकुमार ने पहली कोठरी खोली, दूसरी कोठरी खोली, तीसरी कोठरी खोली, एक-एक कर छह कोठरियाँ देख लीं। पर सातवीं कोठरी...? राजकुमार ने सोचा, क्या सातवीं कोठरी भी खोलकर देखूँ ? उसने धड़कते दिल से सातवीं कोठरी का दरवाजा खोला, और उसे खोलते ही भीषण हलचल हुई, बवंडर सा आ गया। जैसे सिर पर खेल सरीखा खौलता हुआ समंदर, कभी आग की ऊँची-ऊँची, प्रचंड लपटें, कभी फुफकारते हुए बड़े-बड़े विशालकाय साँप... कभी जलती हुई आँखों के साथ गरजते शेर, चिंघाड़ते हाथी और दूसरे हिंस्र जंगली जानवर। एक के बाद एक सात समंदर भीषण आपदाओं के !

पर राजकुमार ने एक-एक कर सातों समंदर पार किए। बीच-बीच में डरा, काँपा, लेकिन जूझा भी हर एक विपत्ति से। फिर एक ऐसे द्वीप पर गया, जहाँ राजकुमारी कैद थी। फिर उसे कैद कराने से छुड़ाने की मुहिम ने उसे एक भीषण राक्षस के आगे ला खड़ा किया, जिसका भयानक अट्टहास ही धरती को कँपा देता था। पर राजकुमार गया उस राक्षस की गुफा में, और इतनी बहादुरी से भिड़ा कि राक्षस धड़ाम से गिरा... और फिर एक आकाशभेदी चीख के साथ उसका सारा तिलिस्म खत्म! कहानी का नायक राजकुमार राजकुमारी को लेकर लौटता है तो उसके चेहरे पर विजेता होने की जो चमक है, जान पर खेलकर भी कुछ हासिल करने की चमक, वह कहानी सुनते समय हमारे दिल और आँखों में भी एक खुशी की कौंध भर देती थी। और कहानी पूरी होने पर जो मीठा सा सुकून मन में उपजता था, उसे भला मैं किन शब्दों में बताऊँ? मुझे आज भी अच्छी तरह याद है कि कहानी सुनते हुए हर पल मेरी साँस अटकी रहती। लगता, आँधियों के बीच फँसा वह राजकुमार मैं हूँ। मैं ही हूँ। उसके साथ कुछ बुरा घटता तो मन बुरी तरह तड़पने लगता। मैं अंदर ही अंदर छटपटाता। और उसकी बेहद बेहद मुश्किलों से भरी किसी छोटी सी जीत पर भी आँख में आँसू आ जाते। यह कहानी थी। कहानी का जादू...!

आज सोचता हूँ, यह सब कैसे संभव होता, अगर राजकुमार सातवीं कोठरी का दरवाजा न खोलता तो...? बाकी छह कोठरियों के दरवाजे तो हर कोई खोलता है, पर सातवीं कोठरी का दरवाजा कोई-कोई ही खोलता है, और वही शायद अपने समय का नायक भी होता है।

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