हिन्दी कथा में अपने अलग और देशज छवि बनाए और बचाए रखनेवाले चर्चित लेखक भगवानदास मोरवाल के इस उपन्यास रेत के केन्द्र में है-माना गुरु और मान नलिन्या के संतान कंजर और उसका जीवन! कंजर यानी काननचार अर्थात जंगल में घूमनेवाला! अपने लोक-विश्वासों व लोकाचारों की धुरी पर अपनी अस्मिता और अपने असितत्व के लिए संघर्ष करती एक विमुक्त जनजाति! गाजूकी और इसमें स्थित कमला सदन के बहाने यह कथा ऐसे दुर्दम्य समाज की कथा है जिसमें एक तरफ़ कमला बुआ, सुशीला, माया, रूक्मिणी, वंदना, पूनम हैं, तो दूसरी तरफ़ हैं संतों और अनिता भाभी! 'बुआ' यानी कथित सभ्य समाज के बर-अक्स पूरे परिवार की सर्वेसर्वा, या कहिए पितृसतात्मक व्यवस्था में चुपके से सेंध लगाते मातृसत्तामक वर्चस्व का पर्याय और 'गंगा नहाने' का सुपात्र! जबकि 'भाभी' होने का मतलब है घरों की चारदीवारी में घुटने को विवश एक दोयम दर्जे का सदस्य! एक ऐसा सदस्य जो परिवार का होते हुए भी उसका नहीं है! रेत भारतीय समाज के अनकहे, अनसुलझे अंतर्विरोधों व वटों की कथा है, जो घनश्याम 'कृष्ण' उर्फ़ वैद्यजी की 'कुत्ते फेल' साइकिल के करियर पर बैठ गाजूकी नदी के बीहड़ों से होती हुई आगे बढ़ती है! यह सफलताओं के शिखर पर विराजती रूक्मिणी कंजर का ऐसा लोमहर्षक आख्यान है जो अभी तक इतिहास के पन्नों में अतीत की रेत से अटा हुआ था! जरायम-पेशा और कथित सभ्य समाज के मध्य गड़ी यौन-शुचिताओं का अतिक्रमण करता, अपनी गहरी तरल संलग्नता, सूक्ष्म संवेदनात्मक रचना-कौशल तथा ग़ज़ब की क़िस्सागोई से लबरेज़ लेखक का यह नया शाहकार, हिन्दी में स्त्री-विमर्श के चौखटों व हदों को तोड़ता हुआ इस विमर्श के एक नए अध्याय की शुरआत करता है!
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