षट् वेदाङ्गों में निरुक्त एक वेदाङ्ग है ! इससे स्पष्ट हो जाता है कि वेद के अध्यन के लिये इसकी उपयोगिता है , क्योंकि अङ्गों ( वेदाङ्ग ) को बिना जाने अङ्गी (वेद) के स्वरूप को नहीं जाना जा सकता ! आचार्य दुर्ग वेदाङ्गों की उपयोगिता प्रतिपादित करते हुए कहते है कि वेद और वेदाङ्गों कि प्रवृत्ति का कारण यह है कि इससे समस्त सांसारिक कामनाओं से लेकर मोक्ष पुरुषार्थ की सिद्धि होती है !
जैसे शब्द ध्वनिस्वरूप में सुनने के लिए नहीं होता, उसकी सफलता अर्थ के सम्प्रेषण में निहित है, इसी प्रकार छन्दरूप में गाकर सुनाने , विभक्ति आदि परिवर्तन , अर्थ विना जाने कर्म में विनियोग या किस काल में कर्म प्रारम्भ किया जाए, इसके लिए वेद नहीं है , क्योंकि ध्वनिस्वरूप वेद से लाभ अर्थ जानकार ही प्राप्त किया जा सकता है , यह कार्य निरुक्त करता है ! निरुक्त की समता यत्किञ्चित् व्याकरण से की जा सकती है , क्योंकि वह शब्द के माध्यम से अर्थ तक जाने का प्रयास करता है ! निरुक्त निर्वचनविज्ञान का नाम है ! निर्वचन उस प्रक्रिया का नाम है, जिसमे शब्द के वर्तमान स्वरुप से मूल स्वरूप तक की यात्रा की जा सकती है !
निरुक्त के प्राचीन भाष्यकारो में केवल दो ही नाम और उनके कार्य देखने को मिलते है , इनमे प्रथम आचार्य दुर्ग है , जिन्होंने विद्वत्तापूर्ण ढंग से यास्क को समझने के प्रयास किया है उसी क्रम में दूसरा नाम आचार्य स्कन्दस्वामी का है , जिनका निरुक्तभाष्य स्कन्दमहेश्वरवृत्ति के रूप में आज उपलब्ध है !
प्रस्तुत कार्य करते समय संपादक ने मूल आधार राजवाड़े द्वारा सम्पादित संस्करण को बनाया है ! जिस शैली में उन्होंने कार्य किया है , समय की माँग के अनुरूप उसमे और संसोधन करते हुए पाठक के लिए ग्राह्म बनाने का प्रयास किया है ! संपादक का यह प्रयास रहा है की दुर्ग के कथ्य को इतना स्पष्ट रूप से रेखांकित कर दिया जाये की दिए गए शीर्षक के आधार पर पाठक का अनुमान कर ले और अपेक्षित विषय तक पहुँच सुगम हो जाये !
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