1946 में महान भारतीय गुरु, परमहंस योगानन्द ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक, ऑटोबायोग्राफी ऑफ ए योगी को प्रकाशित किया। उनकी पुस्तक की एक लाख से अधिक प्रतियाँ बिकीं, उसे पिछली सदी की 100 श्रेष्ठ आध्यत्मिक पुस्तकों में से एक माना गया, और वह अभी तक की सर्वाधिक पढ़ी जाने वाली आध्यत्मिक आत्मकथा बन गई। योगानन्द की कथा से लाखों पाठकों को, ईश्वर को और अपने अन्दर दिव्य आनन्द को खोजने की प्रेरणा मिली।
दि न्यू पाथः परमहंस योगानन्द के साथ मेरा जीवन, उनके निकट शिष्य स्वामी क्रियानन्द द्वारा लिखित, ऑटोबायोग्राफी ऑफ ए योगी की अति आवश्यक उत्तरकथा है। वस्तुतः यह किसी द्वारा लिखा गया एकमात्र वृतान्त है जो गुरु के साथ रहा और जिसे गुरु ने व्यक्तिगत रूप से अपने शब्दों, शिक्षाओं और सन्देश को जनता के साथ बाँटने का कार्य सौंपा।
ऑटोबायोग्राफी ऑफ ए योगी का पाठक शायद, उस प्रेरक पुस्तक को पढ़ने के बाद सोचता हो कि इसके लेखक के साथ रहना कैसा होगा। क्योंकि योगानन्द ने, जिन महान सन्तों से मिले उनकी अपेक्षा अपने स्वयं के विषय में उन्होंने बहुत कम लिखा। यद्यपि उनकी पुस्तक एक आत्मकथा है पर वे यह दर्शाने में सफल हुए हैं कि वे एक ऐसे विनम्र साधक थे जो उन महान सन्तों के चरणों में ज्ञान प्राप्त करना चाहते थे। यद्यपि सत्य यह है कि वे पूर्ण प्रबुद्ध जन्मे थे और अधिकांश सन्तों से, जिन के विषय में उन्होंने लिखा था, अधिक ज्ञानी थे। अपने अन्तिम वर्षों में उन्होंने अपने शिष्य क्रियानन्द को कहा था, "मैं उन सन्तों के पास मार्ग-दर्शन के लिए जाता, पर उत्तरों के लिए वे मेरी ओर देखते थे।" स्पष्टतया ऐसी थी उनके जीवन की भूमिका। इस दृष्टि से वे अर्जुन के समान थे, जो पहले से ही प्रबुद्ध आत्मा थे, तथा जिन्होंने भगवद्गीता में भगवान कृष्ण से सत्य को प्राप्त करने वाले विनम्र साधक की भूमिका को निभाया था।
पाठक यह भी सोचता है कि योगानन्द का अमेरिका का क्या अनुभव रहा होगा? पश्चिम के लिए उनका क्या लक्ष्य था? उन्होंने आधुनिक श्रोताओं के सामने प्राचीन योग के विज्ञान को कैसे रखा होगा? और अन्ततः, उनकी जीवन कथा से अत्यधिक प्रभावित पाठक का यह ज्वलंत प्रश्नः उनके साथ रहना कैसा होगा?
योगानन्द के दो या तीन शिष्यों ने उनके बारे में सुन्दर और प्रेरक वृतान्त लिखा है। परन्तु उनकी पुस्तकों में वह अन्तर्दृष्टि नहीं है जो जनता के साथ अनेक वर्षों के अनुभव से आती है: वे इसका वर्णन करते हुए कि योगानन्द ने उनको व्यक्तिगत रूप से किस प्रकार प्रभावित किया, इस विशाल संभावना के विषय में बहुत कम कहते हैं और गुरुजी के जीवन और लक्ष्य के संबंध में अनगिनत सूक्ष्म ब्योरों को छोड़ देते हैं। उन पुस्तकों को पढ़ने के पश्चात् पाठक यह सोचता है, "ये लेखक कितने सौभाग्यशाली थे कि वे योगानन्द को जानते थे!
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