नेपथ्य के अतिथि में एक बार पुनः राघवेन्द्र नारायण सिंह ने अपने पूर्व प्रकाशित पाँच उपन्यासों की तरह ही एक ऐसे उपन्यास का सृजन किया है जिसमें लौकिकता और पारलौकिकता के तन्तुओं से निमित्त कथानक पाठक को उनकी उच्च कल्पना शक्ति और श्रेष्ठ सृजनशीलता से परिचित कराते हुए जीवन के अति दुरूह पक्षों पर विचार करने के लिए विवश कर देता है। सामान्य मध्यमवर्गीय पात्र जीवन में आने वाले संत्रास और उतार-चढ़ाव के माध्यम से इस उपन्यास को रोचक बनाते हुए पाठकों से आत्मीयता स्थापित कर लेते हैं। दृश्य और अदृश्य जगत को एक सूत्र में बाँध कर देखने की कोशिश करते हुए उपन्यासकार अपनी वह विशिष्ट दृष्टि भी पाठक के सम्मुख रखता है जिसके द्वारा जीवन के रहस्य से पर्दा उठ सके और वह कठिन तथा दुरूह सच्चाई को हृदयंगम कर सके। मास्टर प्रेमनाथ रस्तोगी की आदर्शप्रियता, हेडमास्टर प्रेमवंशीजी और उनकी सहयोगी मृणालिनी सरवर की जिजीविषा, कमलनयनजी की उदारवृत्ति और सरलता तथा नेहा और मृगेन्द्र का एक दूसरे के प्रति सहज प्रेम और आकर्षण इस उपन्यास के पाठ को सघनता से बुन कर उस अलौकिकता की उत्पत्ति करते हैं जिसे पढ़ते हुए पाठक जादुई यथार्थ से रू-ब-रू होता चलता है। सरल, सहज और प्रभावी शैली में लिखा गया राघवेन्द्र नारायण सिंह का यह उपन्यास उनकी मनोवैज्ञानिक परख को भी बखूबी प्रस्तुत करता है। उपन्यास निस्सन्देह सभी पाठक वर्ग के लिए संग्रहणीय और पठनीय है।
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