नाट्यशास्त्र, जो प्राचीन भारतीय ग्रंथों में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है, भरतमुनि द्वारा रचित एक संहिता है, जिसमें नाट्य कला, संगीत, नृत्य और अभिनय के सिद्धांतों का व्यापक वर्णन है। इसे पाँचवें वेद के रूप में मान्यता दी जाती है और भारतीय कला-संस्कृति का अद्वितीय अभिलेख है। नाट्यशास्त्र का उद्देश्य मनुष्य के जीवन को विभिन्न कलात्मक माध्यमों से समृद्ध करना था, और यह न केवल मनोरंजन का साधन था, बल्कि इसके माध्यम से धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक शिक्षा भी दी जाती थी।
इस ग्रंथ में नाट्य और रंगमंच की जटिलताओं, उसके गठन, मंच की संरचना, अभिनय की विभिन्न शैलियों, पात्रों की परिभाषा और संवाद की संरचना का विस्तार से उल्लेख है। भरतमुनि ने इसमें रस, भाव, अभिनय, और नृत्य की विविध शैलियों का भी वर्णन किया है। नाट्य शास्त्र में अष्टांग योग की भांति आठ प्रकार के रसों (शृंगार, वीर, करुण, अद्भुत, भयानक, बीभत्स, रौद्र, हास्य) का विवरण मिलता है, जो किसी नाटक के प्रभाव को गहराई प्रदान करते हैं। इसके अतिरिक्त, भरतमुनि ने अभिनय को अंगिक, वाचिक, आहार्य और सात्विक भेदों में बाँटा है, जो पात्रों की अभिव्यक्ति को और प्रामाणिक बनाते हैं।
इस ग्रंथ में नृत्य की मुद्राओं, ताल और लय की भी विस्तार से व्याख्या की गई है। भरतमुनि ने नृत्य की शाखीय मुद्राओं और भाव भंगिमाओं के माध्यम से अभिव्यक्ति की कला को एक नई ऊंचाई दी है। नाट्यशास्त्र केवल कलात्मक कौशल की गाइडबुक नहीं है, बल्कि इसे एक ऐसा दार्शनिक ग्रंथ भी माना जा सकता है, जिसमें समाज और मानव मनोविज्ञान को समझने के गहरे आयाम प्रस्तुत किए गए हैं।
भरतमुनि प्रणीत नाट्यशास्त्र के प्रदीप हिन्दी व्याख्यादि से मण्डित शोधपूर्ण संस्करण के प्रथमभाग के द्वितीय संस्करण को सहृदय पाठकों एवं विवेचक विद्वानों, प्राध्यापकों एवं अधीतिजन के समक्ष प्रस्तुत करते हुए प्रसन्नता हो रही है। इस व्याख्या के प्रकृत संस्करण के शीघ्र ही द्वितीय संस्करण होने की बात से यह भी स्पष्टतः दृष्टिगत होना आवश्यक है कि अब हमारे देश तथा प्रदेश में 'नाट्यविद्या' का अनुशील प्रभूतमात्रा में विकसित है तथा विद्वानों के ऊहापोह का लक्ष्य भी बन रहा है। इसी बीच नाट्यशास्त्र के अनेक प्रकरण ग्रन्थों की भी हिन्दी व्याख्याएँ प्रकाश में आयी तथा कुछ संस्कृत मूल के साथ भी इसी क्रम में सम्पादित हुए तथा हो रहे हैं। यह सभी बातें अधिक उत्साहवर्धक है तथा नाट्यविद्या का अनुशीलन करने वालों को आशादायी भी।
प्रथम से सप्तम अध्याय तक के प्रथम भाग के इस संस्करण में सभी प्रथम-भाग स्थलों को दोहराया जाकर उनमें अपेक्षित सुधार करते हुए प्रस्तुत किया जा रहा है। इसके अतिरिक्त टिप्पणियों में भी पञ्चम अध्याय से सप्तम अध्याय पर टिप्पणियाँ लगाई गयी हैं तथा इन्हीं अध्यायों पर पूर्व में मूल के साथ लगी टिप्पणियों को भी व्यवस्थित करते हुए रखा गया है।
इसी संस्करण को अनेक विश्वविद्यालयों के द्वारा 'एम. ए' के लिये अनुमोदित तथा स्वीकृत ग्रन्थ के रूप में अनुशंसित करने के भी प्रयास अधिकाधिक होते जा रहे हैं तथा अनेक विश्वविद्यालयों में यह लगभग ४ या ५ वर्षों पूर्व से ही सन्दर्भ ग्रन्थ अनुशंसित हो चुका है। मैं उन सभी मनीषी प्राध्यापकों एवं नाट्यविद्या के अन्वेषक एवं अधीतिजन का भी आभारी हूँ जिनने इसी संस्करण को प्रेमपूर्वक अपनाया और मुझे प्रोत्साहित किया। आशा है इस संस्करण का पूर्ववत् अब भी सभी कोनों से इसी भावना से अनुशीलनादि होता रहेगा।
प्रकृत संस्करण पर अनेक पत्र-पत्रिकाओं एवं भारत के मान्य मनीषी जन के आशीर्वाद प्राप्त हुए हैं जिनके प्रति अपनी विनम्र कृतज्ञता प्रकट करता हूँ तथा इनकी कृपा की सदैव अपेक्षा को अनुभव कर रहा हूँ। प्रक्कृत ग्रंथ को अपनी विश्रुत ग्रन्थ-परम्परा में प्रकाशित करने की भावना वाले चौखम्भा संस्कृत संस्थान के संचालक भाई श्री मोहनदास जी गुप्त तथा उनके समय परिवार जन का भी आभारी हूँ जिनने प्रथम संस्करण के समाप्त होने के कुछ समय बाद ही इस भाग का पुनर्मुद्रण आरम्भ कर इस ग्रन्थ को शीघ्र उपलब्ध करवाया। इस क्रम में प्रेस के सभी कार्यकर्तागण तथा व्यव - स्थापक का भी स्मरण करना आवश्यक है। मित्र श्री कपिलदेव गिरि ने यथासंभव प्रूफ की त्रुटियों का निराकरण किया है। अत एव मैं इन सभी के प्रति अपना विनम्र हार्दिक आभार मानता हूँ। अन्त में सभी मित्रों एवं स्नेहीजन को इस संस्करण को 'पूर्ववत् कृपा के साथ अपनाते हुए मुझे प्रोत्साहित करने की प्रार्थना है।
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