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नाट्यकला- प्राच्य एवं पाश्चात्त्य: Natyakala Pracya Evam Pascatya (Dramatic Art-Eastern & Western- An Expository and Comparative Study) An Old and Rare Book

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Item Code: HBB767
Author: Sudarshan Mishra
Publisher: Bharata Manisha, Varanasi
Language: Hindi
Edition: 1974
Pages: 260
Cover: HARDCOVER
Other Details 9.00x5.5 inch
Weight 340 gm
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Book Description
भूमिका

प्रस्तुत इत्य मेरे शोध प्रवश्व, जिस पर मुझे काक्षी-हिन्दू-विश्वविद्यालय ने १९७१ में पो-५० डी० की उपाधि प्रदान की, का मुद्रित रूप है। इसके मुद्रण का श्रेय आधुनिक विद्वानों के द्वारा दी गयी प्रेरणाओं को है। प्रेरणाएँ श्यों मिलों ?

भारतवर्ष में नाटपकता पर बनुशीलनात्मक प्रन्य नाटपकला की ही भाँति प्राचीन है। संस्कृत के पारावाहिक प्रवाह में अव्याहत रूप से यह अनुशीलन प्रारब्ध है। मयनि धनञ्जय के बाद साहित्य दर्पण आदि ग्रन्थों में भरत सम्प्रदाय को ही पुष्टि होती गयो, लेकिन तात्कालिक रचित रूपकों के आधार पर बनुद्योतन में भी कुछ बस्तुवान्त्रिक परिवर्तन भी लाना आवश्यक हो गया था। इस प्रकार नाटधकला का विकारा अनुशासनात्मक ग्रन्थों में भी प्रतिविम्बित हुआ । अनुद्योलनात्मक ग्रन्यों के आधार पर इसी विकास का सर्वाङ्गीण विवेचन इस इन्य का मुख्य उद्देश्य है।

लेकिन इस प्रकार का विचार संस्कृत भाषा में निबद्ध कुछ ग्रन्थों के आधार पर होने से सीमित होना अनिवार्य था। आधुनिक विचारकों के सामने जिस प्रकार प्राध्य-नाटध-परम्परा का महत्व है, उसी प्रकार पाश्चात्य परम्परा को भो देखने को इच्छा होती है। आज भारत विच्छित नहीं है, किन्तु आधुनिक जगत् का अनिवार्य अङ्ग हो गया है। बतः पाश्चात्य जगत् में नाटच परम्परा को रूपरेखा का, उस परम्परा के अनुशीलनात्मक प्रन्य के आधार पर ऊहापोह करना न्यायसंगत है। अतः इस ग्रन्थ में पाश्चात्त्य नाट्यकला के अनुशील- नात्मक ग्रन्थ के आधार पर तदीय नाटपकला के विकास का भी अवलोकन बपेक्षित था ।

लेकिन दोनों परम्पराओं में एक मौलिक वैषम्य भी है। पहले ही कहा जा चुका है कि धनञ्जय के बाद नाटपकला का पूर्णाङ्ग विवेचन मौलिक देन के आधार पर नहीं हो सका। क्योंकि मौलिक कृतियों के आधार पर प्राचीन से कुछ हेरफेर का अनुभव होते हुए भी यह बिल्कुल नया था। इसलिये आधुनिक रूपकों की गति तथा प्रगति के विषय में संस्कृत के माध्यम से बहुत कुछ मिलना प्रत्याशित नहीं है। आधुनिक भाषाओं में रूपकों को जो रूपरेखा बनी, यह प्रायशः पाश्चात्य प्रभावित है। साथ ही साथ आधुनिक भाषाओं के रूपकों में जो नवीनता पायो जाती है, उसका विवेचन इस ग्रन्थ का लक्ष्य भी नहीं है। क्योंकि संस्कृत भाषा के माध्यम से किसी भी आधुनिक नाटधकलाओं के परिशोचनात्मक ग्रन्य को रचना भी नहीं हुई ।

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