उल्लसित करती थी। काव्य, शिल्प, इतिहास, पुराण आदि के द्वारा उसे लोकोपयोगी बनाया गया था। इस प्रकार की साधना से संस्कृति की सुरक्षा की गयी थी। आधुनिक युग में प्रायः इस प्रवृत्ति का अभाव रहा। दर्शन को राष्ट्रीय संस्कृति में व्यवहृत कर देना ही भारतीय सांस्कृतिक साधना की सर्वोच्च देन है। यहीं से भारतीय संस्कृति और राष्ट्रवाद के पारस्परिक सम्बन्धों का सूत्रपात हुआ। राष्ट्रीयता के व्यापक स्तर पर साहित्य, संस्कृति और समाज एक दूसरे से घनिष्ठ रूप में संबद्ध हैं। सामूहिक प्रयत्नों के परिणामस्वरूप ही सांस्कृतिक विकास होता है। संस्कृति, परंपरागत आचार-विचार और भौगोलिक परिवेश से प्रभावित हुये बिना नहीं रह सकती है। परंपरागत उदात्त विचारों में समय के अनुसार परिवर्तन होने पर भी संस्कृति नूतन नहीं है क्योंकि संस्कृति का अस्तित्व नूतन और पुरातन अनुभूतियों के संस्कारों द्वारा निर्मित समुदाय के दृष्टिकोण में होता है। राष्ट्रीय संस्कृति, हमारे दैनिक जीवन में कला में, साहित्य में धर्म में मनोरंजन में और रहन-सहन, खान-पान, आचार-विचार आदि बाह्य उपादानों में झलकती है। इसी व्यापक अर्थ में राष्ट्र और राष्ट्रवाद की चर्चा की जा सकती है। राष्ट्रवाद क्या है, इस बारे में अनेक मतांतर प्रचलित हैं। राष्ट्र की परिभाषाएँ, अधिकतर एकपक्षीय होती हैं और राष्ट्रवाद का अध्ययन भी अनेक मानकों पर होता रहा है। राष्ट्र और राष्ट्रवाद का स्वरूप निश्चय ही सारे संसार में और सभी कालखण्डों में एक जैसा नहीं रहा है।
जब सर्वत्र राष्ट्रीय पक्षों को नयी गहराई, नया प्रसार, नये मूल्य और अर्थ प्रदान करने वाले जागरण की, नवोदय की, एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण की आकांक्षा प्रबल होती प्रतीत होती है तब औपनिवेशिकता के संदर्भ में भारतीय राष्ट्र एवं सभ्यता के समक्ष उभरी चुनौतियों की प्रतिक्रिया, साहित्य के धरातल पर किस रूप में प्रकट हुई ? क्या आधुनिक हिन्दी साहित्य भी अपने प्रतिमानों की पुनःस्थापना अथवा पुनःप्रतिष्ठा का संघर्ष सांस्कृतिक धरातल पर कर रहा था ? क्या वह कोई मौलिक दृष्टि प्रदान करने में निमग्न था? परस्पर विरूद्ध दिशाओं में चलने वाले 'वादों की एकांगी दृष्टि के भीतर से साहित्यकार की विश्वृदृष्टि अंत सलिला स्वरूप प्रवाहित तो नहीं हो रही थी। इन्हीं प्रश्नों के आधार पर इस अध्ययन का आरम्भ किया गया।
स्वभावतः हिन्दी के स्वातंत्र्योत्तर उपन्यासों में विन्यस्त राष्ट्रवादी विचारधारा इस अध्ययन के केन्द्र में है। इस पुस्तक प्रबंध के अंतर्गत उस भारतीय समाज को समझने की चेष्टा की गई है, जिसे आधुनिक युग ने अथवा विश्व की औपनिवेशिक वृति ने राष्ट्र को नया रूप दिया है और जो अपने आप में भारतीय मानव के लिए जटिल भावबोध बनकर उभरता है। इसने भारतीय परिवेश को चुनौतीपूर्ण परिवर्तनों से झिंझोड़ा है। इस संदर्भ में, राष्ट्र से संबंधित अनेक पक्षों को समझने का प्रयास किया गया हैं, यहाँ राष्ट्र की परिकल्पना के भारतीय, पाश्चात्य एवं आधुनिक अर्थों के विविध पक्षों को समझने के लिए उन परिभाषाओं को, विचारों को प्रस्तुत किया गया है, जिनके साँचे में ढलने की विषमता से भारत गुजर रहा है।
प्राचीन काल से भारत एक संस्कार-समूह रहा है और पश्चिम की राष्ट्रीयता से सामना होने के बाद विचारों की सह-अनुभूति में सार्थकता अनुभव करने वाले इस देश में धन व व्यवसाय की प्रतिस्पर्द्धा से उद्भूत 'राष्ट्र' ने विचित्र व भीषण परिणामों को झेला है। राष्ट्रीय जीवन की धुरी, मूल्यों, मान्यताओं और रागत्मिकता के सांस्कृतिक आयामों से हटकर अर्थ प्रधान भौतिकता पर टिक गई। स्वतंत्रतापूर्व और स्वातंत्र्योत्तर काल में इसके स्वरूप भेद ही नहीं, बल्कि उन आधारभूत संकल्पनाओं को भी विस्तृत रूप से जानने का प्रयास किया गया है, जो प्राचीन एवं अर्वाचीन परिवर्तनों से उत्पन्न मानवीय स्थिति, चेतना एवं विकास में योग देती है। यह अध्ययन स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी उपन्यासों की पृष्ठभूमि में राष्ट्रीय चेतना और तद्धनित राष्ट्रवाद पर केन्द्रित है।
राष्ट्रवाद को स्थूल रूप से राजनैतिक आन्दोलन माना जा सकता है, जिसका मुख्य प्रतिपाद्य राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता की स्थापना एवं रक्षा है। यह मुक्ति तत्व से जुड़ी प्रक्रिया है, किन्तु मुक्ति अपने आप में कई अर्थ संजोए हुए है। पराधीनता से मुक्ति एवं दबावों से मुक्ति इसकी केन्द्रीय अवधारणा है।
संपूर्ण तथ्यों पर समग्र दृष्टि डालने से यह स्पष्ट होता है, कि राष्ट्रवाद एक मनोभाव है, श्रद्धा एवं भक्ति से पूर्ण एक आदर्श है, जिसका आलंबन राष्ट्र होता है। प्रत्येक दृष्टि से राष्ट्र को संपन्न देखने और बनाने की भावना ही राष्ट्रीयता का मूल आधार हैं। अपनी जन्मभूमि से अनुराग, प्राचीन परम्परा के प्रति आस्था, अपने देश के प्रत्येक पदार्थ, प्राणी और प्राकृतिक सुषमा के प्रति ममत्व की भावना और अपनी सभ्यता तथा संस्कृति के प्रति प्रगाढ़ आदर से यह संगठित होता है।
राष्ट्र की परिकल्पना से भारतवर्ष कभी भी वंचित नहीं रहा। सत्य तो यह है, कि राष्ट्र शब्द भी हमें अपने वेदकालीन पूर्वजों से प्राप्त हुआ है और उक्त संज्ञा के साथ प्राकृतिक परिवेश और उसमें अन्तर्निहित रागात्मक भावना है, वह भी परंपरागत उत्तराधिकार ही कही जाएगी।
प्राचीन साहित्य में राष्ट्र की परिकल्पना काफी विकसित दिखाई देती है।
राष्ट्र प्राप्ति की कामना, शत्रुदमन तथा राष्ट्र की समृद्धि वर्धन हेतु की गयी प्रार्थनाएँ इस तथ्य को स्पष्ट करती हैं, अथर्ववेद में कहा गया है कि जिस राष्ट्र में विद्वान सताए जाते हैं, वह विपत्तिग्रस्त होकर वैसे ही नष्ट हो जाता है, जैसे टूटी नौका, जल में डूबकर नष्ट हो जाती है। बाद के वर्षों में यही राष्ट्र भावना, राष्ट्रवादी विचारधारा के रूप में सामने आयी, जिसका प्रभाव हिन्दी साहित्य पर भी पड़ा। हिन्दी उपन्यासों के प्रारम्भ काल में ही राष्ट्रीय विचारधारा का पल्लवन सांस्कृतिक उन्नयन और राष्ट्रीय जागरण का हिस्सा बन गया। इसमें संदेह नहीं कि किसी भी राष्ट्र की संस्कृति उसे एक चारित्रिक विशेषता प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। आधुनिक युग के तीव्रगामी परिवर्तनों ने राष्ट्रीयता, प्रजातंत्र और समानता के मूल्यों एवं प्रक्रियाओं द्वारा नए समाज को तो जन्म दिया ही है पर साथ ही संस्कृति को जटिल भाव-बोध में जकड़ लिया है।
राष्ट्रीय संस्कृति का प्रश्न इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि दीर्घकाल के दार्शनिक विचार और धार्मिक आचरण मनुष्यों के चित्त में एक विशेष प्रकार के संस्कार उत्पन्न करते हैं, जिनके कारण किसी राष्ट्र का प्रत्येक मनुष्य जीवन-मूल्यों का निर्णय करने वाली एक विशेष दृष्टि को, अन्यू दृष्टियों की अपेक्षा अधिक सम्मान देता हैं, राष्ट्रीय जागरण मात्र राजनैतिक उद्देश्य के लिए ही नहीं था बल्कि इसका एक गहरा सांस्कृतिक पक्ष भी था, जहाँ भारत की सर्जनात्मक मेधा उन मूल्यों एवं मान्यताओं से भी संघर्षरत थी, जिनका प्रतिनिधित्व अंग्रेज करते थे। वास्तविक संघर्ष दो जीवन-पद्धतियों के बीच था। स्वतंत्रता संग्राम काल में इसका विकट रूप प्रकट नहीं हुआ था पर स्वाधीनता पश्चात् यह संघर्ष परस्पर विरोधी अवधारणाओं के मकड़जाल में फँसी भारतीयता और सांस्कृतिक विभ्रम में परिणत हो गयी।
राष्ट्रीय संस्कृति के प्रश्नों को समझने के लिए अखंडित दृष्टि से विचार करना आवश्यक है, परन्तु संस्कृति के प्रश्न की असीम गहराइयों से परिणाम-परिमार्जन की चेष्टा दुस्साहस का काम है। इसलिए संस्कृति के पारंपरिक और उभरते मूल्यों को समकालीन हिन्दी उपन्यासों में गम्भीरतापूर्वक अपनाया है। प्रस्तुत पुस्तककार्य के अंतर्गत इसी स्तर पर राष्ट्रवादी विचारधारा का अनुशीलन किया गया है।
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