भूमिका
पाठक भाइयो! इस विषय के अधिक विवेचना की आवश्यकता नही कि, इस समय ससार की क्या अवस्था है, जो है वह किसी से भूली हुई नही, प्राय: आँख उठाकर देखते ही अपने कुकर्म से दूषित शरीरवाले नवयुवकों के झुंड ही दिखाई पड़ते हैं इन झुंडों में कुछ ऐसे भी होते हैं जो अपनी ऐसी रहो अवस्था होने मे घर में जाना मानो काल के मुख में पड़ना समझते है। कुछ ऐसे भी हैं जिनको स्वयं नपुंसक होने के सब बसे अपने घर के दुश्चरित्र देखने पड़ते हैं, ऐसी दु:खव्यंजक अवस्था में न जानें यह बिचारे क्या क्या सोचते होंगे सो भगवान् जाने परन्तु कोई कोई मूर्ख महान् अनर्थ भी कर बैठते हैं, जिसके फल से इनका तो यह लोक और परलोक दूषित होता ही है परन्तु यह दुष्ट अपने माता पिता आदि कुटुंबियों का जीवन भी कलंकित कर जाते हैं इस दुख से बढ़कर इस समय भारत को क्या दु:ख हो सकता है, ऐसा विचारकर मुझे महान् खेद हुआ करता था। दैवयोग से सं० 1965 के आरंभ में ही मैं अखिल भारतीय आयुर्वैदिक यूनीवर्सिटी के महोत्सव में वर्ग के निकट पनवेल गया था वहाँ पर परमोदारचरित शास्त्रोद्धारक वैश्यकुलभूषण श्रीयुत् सेठ खेमराजजी से भेंट हुई और कुछ इस विषय की चर्चा चली और लोगों की व्यवस्था तथा उनका झूठे सच्चे इस्तिहारों से लूटना आदि विशेष विवेचन होने के अनंतर श्रीयुक्त सेठजी ने ''इस विषय का कोई उत्तम प्रथ बनाकर भेजिये" ऐसी इच्छा प्रगट की मैं पहले ही से ऐसा ग्रंथ लिखना चाहता भी था सो श्रीयुक्त सेठजी के कहने से मानो सोती हुई इच्छा इस पुस्तक को बनाने को एकदम उठ खड़ी हुई। मैंने घर आने पर अवकाश पाकर यह नपुसकामृतार्णव नामक ग्रंथ नव तरगों में लिखकर आधुनिक लोगों के कल्याण के लिये श्रीमान् शास्त्रोद्धारक सेठजी के प्रति समर्पण किया और सेठजी ने इसे निज ''थीवेंकटेश्वर'' स्टीम्-प्रेस में छापकर सबके कल्याण के लिये प्रसिद्ध किया। आशा है सद्गुणग्राही इस ग्रंथ से स्वयं लाभ उठाकर औरो को भी शिक्षा देंगे।
विषय सूची
1
अथ प्रथमस्तरंग:
1-21
2
अथ द्वितीयस्तरंग:
22-41
3
अथ तृतीयस्तरंग:
42-56
4
अथ पंचमस्तरंग:
57-76
5
अथ षष्ठस्तरंग:
77-97
6
अथ सप्तमस्तरंग:
98-131
7
अथाष्टमस्तरंग:
132-142
8
अथनवमस्तंरग:
144-154
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