इस अमूल्य ग्रंथ के पहले पन्ने को लिखने की प्रारंभिक कड़ी में, मैं सबसे पहले अथाह समर्पण और विनम्रता के भाव में अपना शीर्ष झुकाना चाहता हूँ। जहां लोग पारंपरिक रूप से ईश्वरीय आशीर्वाद की प्रार्थना करते हैं, वहां मैं सबसे पहले, संभावित त्रुटियों और अपूर्णताओं के लिए आदरपूर्वक क्षमा याचना करता हूँ। जिस क्षण में मैंने स्वतंत्र भारतीय इतिहास के सबसे विशिष्ट गुरुमुख द्वारा की जाने वाली अतुलनीय गुरु सेवा की महाकाव्यीय प्रशंसा और उनकी अद्वितीय महिमा का चित्रण करने का संकल्प किया, उस अविस्मरणीय पल से ही मैं आप सभी का स्वाभाविक रूप से अपराधी बन जाता हूँ और अपनी इस त्रुटि के लिए, आप सभी का जीवन भर क्षमा प्रार्थी रहूंगा।
हुजूर महाराज जी द्वारा गुरु-शिष्य परंपरा के इतिहास में दर्ज की गई सेवा का स्तर इतने उच्च कोटि का है कि जिस क्षण कोई भी कलम इसका बखान करना शुरू करेगी वो स्वचालित रूप से उसकी शोभा, उसकी महानता और प्रतिष्ठा का स्वतः ही न्यूनीकरण कर देगी। हुजूर महाराज जी द्वारा अनंत और अपरिमित प्रेम से भरी सेवा को चुनिंदा लफ्ज़ो में समेटना उसको जबरन मात्रात्मक करने की गुस्ताखी होगी।
वास्तव में कोई भी जीव हुजूर साहेब की अतुलनीय गुरु भक्ति और उनके बड़े महाराज जी के प्रति सेवा की अथाह गहराई को समझ नहीं सकता और कोई कलम इसे यथासम्भव चित्रित नहीं कर सकती। हमारी मानव बुद्धि, चाहे वो कितनी भी तीक्ष्ण या विशाल हो, अपनी सीमाओं से बाधित है, जो हमें उनके अद्भुत प्रेम कथा का केवल एक संकेत देखने की क्षमता प्रदान करती है। इसे और अधिक स्पष्टता से प्रस्तुत करने के लिए, कल्पना कीजिए कि आपने एक बच्चे को आकाश के अपार विस्तार को उसके छोटे साथियों को चित्रित करने का कार्य सौंपा है। ऊपर देखते हुए, बच्चा केवल असीम आकाश का एक छोटा अंश देख पाएगा। उसका विवरण केवल उसे दिखाई देने वाले छोटे हिस्से पर आधारित होगा, अनजाने में उस विशाल आकाश को अनदेखा कर देगा, जो उसकी दृष्टि से परे फैला है। इसी तरह, यह पुस्तक उस बच्चे के ईमानदार लेकिन सीमित विवरण की तरह है। इन पन्नों में हुजूर साहेब के अद्भुत प्रेम की मात्र झलकियाँ, क्षणिक अहसास और प्रशंसा हैं, जो कि मेरी सीमित समझ से महसूस किया गया। फिर भी, बहुत कुछ मेरे परिप्रेक्ष्य के पार है। उनकी अगाध भक्ति का अपार विस्तार - वो मुझसे हमेशा अगम्य रहेगा, एक भावनाओं और समर्पण का ब्रह्माण्ड जिसे मैं कभी पूरी तरह से अनुभव या प्रस्तुत नहीं कर सकता ।
बड़े महाराज जी अक्सर सत्संग में फरमाते थे की पूर्ण गुरु और पूर्ण चेला एक साथ बड़े भाग्य से ही मिल पाते हैं। और इतिहास गवाह है, युगों-युगों से, जब भी ब्रह्माण्ड ने किसी पावन भूमि को गुरु और गुरमुख की अद्वितीय जोड़ी से अलंकृत किया है, तब-तब उस महान जोड़ी ने उस भूमि को एक परम पवित्र तीर्थ और एक आध्यात्मिक प्रकाश स्तंभ में परिणत कर दिया है। गुरु और शिष्य के अटूट प्रेम, गहन भक्ति और उनके अपार समर्पण की महायात्रा, उस भूमि के प्रत्येक रजकण को चिंतामणि के रहस्यमय सत्त्व से ओत-प्रोत कर देती है। उनके जाने के बाद भले ही कितनी ही सदियाँ बीत जाएँ, उस भूमि में एक ऐसी परिवर्तनशील शक्ति बसी होती है, जो फिर हर उस व्यक्ति की चेतना में समाहित हो जाती है, जो इस पवित्र भूमि पर चरण रखता है।
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