कभी कभी कानों में पड़ी बात और मामूली घटना भी इतिहास का हिस्सा बन जाती है। अकसर हिन्दुस्तान के बड़े शहरों में जाना होता है और कभी कभी उन महान संगीतज्ञों से भी मुलाकात हो जाती है जिनका सम्बन्ध उच्चकोटि के गायकों और वादकों से होता है। जब बातों बातों में रामपुर का नाम आता है तो रामपुर दर्बार के संगीतकारों का ज़िक्र छिड़ जाता है। कई बार ऐसा हुआ कि इन महान संगीतकारों ने अपने कान पकड़कर- उस्ताद मोहम्मद वज़ीर ख़ाँ बीनकार का नाम लिया। नाम लेते समय मोहम्मद वज़ीर ख़ाँ के प्रति उनकी श्रद्धा और अकीदत के जज़बात उनके चेहरों से साफ दिखाई देते थे और मैं अकसर सोचा करता था कि मोहम्मद वज़ीर ख़ाँ साहब बीनकार यकीनन कोई उच्चकोटि के संगीतकार होंगे लेकिन कभी उनके बारे में जानने का अवसर नहीं मिला और इसका कारण केवल इतना है कि किताबों की दुनिया में जीने वाला व्यक्ति आस पास की दुनिया से बेखबर रहता है।
जब मैं विशेष कार्य अधिकारी बनकर रामपुर रज़ा लाइब्रेरी रामपुर में आगया तो इत्तेफ़ाक से डूंगरपुर के आमों के एक बाग में जाने का अवसर मिला। मेरे साथ दिल्ली के एक संगीतकार थे। वह एक मामूली कब्र पर जाकर रुक गये। मैंने देखा- उनकी आँखों में आँसू थे। वो मेरी ओर देखकर, आँसूओं से धीमी आवाज़ में बोले- "ये क्या हुआ?" मैं भी हैरान होकर उनकी ओर देखने लगा। वो भर्राई हुई आवाज़ में बोले- "ऐसा होना नहीं चाहिये था। जालिमों ने तारीख को मिटा दिया।"
मैं सोचने लगा- ऐसी कौनसी तारीख है जो इस मामूली कब्र में दफ़्न है। इतिहास तो किलों, महलों, मकबरों और आस्तानों की शानदार इमारतों में दफ्न होता है। मैंने उनकी ओर सवालिया नज़रों से देखा। वो मेरे देखने का मतलब समझ गये और बोले- "यहाँ राग कामोद दफ्न था। जाफर हुसैन ख़ाँ की कब्र थी यहाँ जिन्होंने राग कामोद बनाया था। बहादर हुसैन ख़ाँ की कब्र थी जिनके शागिर्द हिन्दुस्तान के महान गायक और वादक थे। काज़िम अली ख़ाँ राहतुद्दौला की कब्र थी यहाँ। ये तीनों तानसेन और मिसरी सिंह के वंशज थे। देखिये जनाब! अब यहाँ सिर्फ एक कब्र बाकी रहगई है। पता नहीं बहादर हुसैन ख़ाँ की है, काज़िम अली ख़ाँ की है या जाफर हुसैन ख़ाँ की। ज़ालिमों ने नामोनिशान मिटादिया अज़ीम मौसीकारों का। ये बाग़ भी नवाब यूसुफ अली ख़ाँ ने बहादर हुसैन ख़ाँ को दिया था।"
मैंने पूछा- ये उस्ताद मोहम्मद वज़ीर ख़ाँ कौन थे? उन्होंने बताया- "वो भी मिसरी सिंह की औलादों में थे। वीणा वादक थे। मक़बरा जनाबे आलिया में दफ़्न हैं। और इनके वालिद अमीर ख़ाँ साहब भी रामपुर में दफ़्न हैं। हिन्दुस्तान के आखरी डागर-रौशन ख़ाँ डागर भी रामपुर में दफ़्न हैं।"
उनकी बातें सुनकर मैं बहुत दिनों तक सोचता रहा और मैंने तय कर लिया कि दरबार रामपुर के संगीतकारों पर ज़रूर काम कराऊँगा। मैंने स्वंय रोहेला इतिहास का अध्ययन किया। संगीतकारों पर काम करने के लिये संगीत जानने वाले से ज़्यादा इतिहास जानने वाले की ज़रूरत थी। इस काम के लिये रामपुर में श्री नफीस सिद्दीकी ही उचित थे। क्योंकि उन्होंने History and Culture में Post Graduation किया है। इस नाते उनका सम्बन्ध इतिहास और संगीत से भी था। मेरी खुवाहिश पर उन्होंने रोहेला इतिहास पर काम किया है। इस किलये ये काम मैंने उनके सुपुर्द कर दिया।
मुझे खुशी है कि उन्होंने मुझे मायूस नहीं यिा। बड़ी मेहनत और तवज्जो से काम किया है। उर्दू और फारसी की वो तमाम पाण्डुलिपियाँ जो अब तक संगीत- शोधकर्ताओं की नज़रों से ओझल रहीं, और जिनकी जानकारी के बगैर संगीत की क्रमबध श्रंखला कहीं कहीं से टूट जाती है, श्री सिद्दीकी ने उन सब इतिहासिक पाण्डुलिपियों का अध्ययन करके, रामपुर रज़ा लाब्रेरी के संगीत के अनमोल खजाने से, संगीत जगत को परिचित कराया है।
परम्पराओं की राग माला में गूंधा हुआ लोकसंगीत, अतीतकाल से हिन्दुस्तानी समाज को इंसानी रिश्तों के सूत्र में बाँधे हुये है। बहुत कम संगीत में दिलचस्पी रखने वाले ये जानते होंगे कि रामपुर के अन्तिम नवाब- नवाब रज़ा अली ख़ाँ ने 'कलामे रज़ा' संगीत ग्रन्थ लिखकर लोक संगीत में बहुमूल्य कार्य किया है। हालाँकि कि उनके द्वारा रचित ग्रन्थ का अधिकतर भाग नवाबी रस्मों से सम्बन्ध रखता है लेकिन बहुत सी रस्में जन साधारण में आज भी बाकी हैं।
श्री सिद्दीकी ने, अनेक हवालों से, विस्तारपूर्वक गीतों की व्याखया करके नवाब रज़ा अली ख़ाँ के गीतों को जिन्दा कर दिया है। मैं समझता हूँ कि हिन्दुस्तान में जो काम हज़रत अमीर खुसरो ने शुरू किया, मुगल शासक शाह आलम सानी ने आगे बढ़ाया, उसे नाब रज़ा अली ख़ाँ ने चरम सीमा तक पहुंचा दिया है।
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