अनेकानेक वसुपूर्णा इस वसुन्धरा के ऊपर वितानसदृश विस्तृत इस नीलाभनम में महामणियों एवं रत्नों के समान जटित, स्वकीय रश्मियों से निरन्तर जाज्वल्यमान इन सूर्यादि ग्रहों, ताराओं एवं नक्षत्रों का यथावत् एवं समीचीन ज्ञान जिससे भली-भांति किया जाय उसे ज्योर्तिविद्या एवं उसके शास्त्र को ज्योतिषशास्त्र कहते है।
इस शास्त्र की रूप निर्देशपूर्वक उदाल महिमा का जयघोष करते हुए आर्षवचन- यथा शिखा मयूराणां नागानां भ्रणयो यथा।
तथा वेदाङ्गशाखाणां ज्यौतिषां मूर्हिनवतंने ।।
सिद्धान्त संहिता होरारूपं स्कन्धत्रयात्मकम् ।
घेवस्य निर्मलं चक्षुर्योतिश्शाखमकल्मषम् ।।
विवैतदखिलं श्रौतं स्मार्त कर्म न सिध्यति ।
तस्माज्जगद्धितायेवं ब्रह्मणां निर्मितं पुरा ।।
अर्थात् जिस प्रकार मयूरो के मस्तकों पर शिखाएं, सर्पों के शीषों पर मणियों शोभायमान होती है उसी प्रकार वेदों एवं तदभूत शास्त्रों की शिरोमणि ज्योतिष है। सिद्धान्त संहिता एवं होरा एतत्स्कन्ध त्रितय समन्वित यह ज्योतिषशास्त्र वेदों के तेजस्वी एवं निर्मल नेत्र है। इसके बिना श्रौत स्मार्तादिष कर्मों की सिद्ध नहीं हो सकता। अतः जगत् के हितार्थ ब्रह्मा द्वारा प्राचीन काल में ही इस शास्त्र का निर्माण किया गया है।
ज्योतिशास्त्र के सिद्धान्त, संहिता एवं होरा में तीन स्कन्ध हैं। संहिता एव होरा स्कन्ध का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है, पर इन दोनों का मूल स्रोत तो सिद्धान्त स्कन्ध ही है, जिसे महसिद्धान्त भी कहा गया है। इस सिद्धान्त के प्रतिपादक एवं विवेचनाकार श्री आर्यभट्ट श्री भास्कराचार्य, श्री केतकर आदि जगद् विख्यात उद्भट गणितवेत्ता हुए है. जिन्हों ज्योतिशास्त्र के सिद्धान्त, संहिता एवं होरा में तीन स्कन्ध हैं। संहिता एव होरा स्कन्ध का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है, पर इन दोनों का मूल स्रोत तो सिद्धान्त स्कन्ध ही है, जिसे महसिद्धान्त भी कहा गया है। इस सिद्धान्त के प्रतिपादक एवं विवेचनाकार श्री आर्यभट्ट श्री भास्कराचार्य, श्री केतकर आदि जगद् विख्यात उद्भट गणितवेत्ता हुए है. जिन्होंने महासिद्धान्त, सिद्धान्तशिरोमणि, केतकी ग्रहगणित जैसे व्यापक विवेचनपूर्ण ग्रन्थो की रचना में अंकगणित, बीजगणित, रेखागणित, त्रैकोणमितिक एवं महगोलीय रेखागणित आदि गणित के उपकरणों के प्रयोग से अम्बर में स्थित इस सौर परिवार के पूर्ण यथावत् गतिवृत्त का विवेचनात्मक विवरण प्रस्तुत किया है।
इसी सिद्धान्तस्कन्धोक्त गणित के आधार पर किसी भी इष्ट समय के लग्न बिन्दु से तात्कालिक ग्रहों की विभिन्न स्थितियों के फलस्वरूप संसार के समस्त प्राणियों के विशेषकर मानवी सृष्टि में उत्पन्न जातकों के शुभाशुभ भविष्य ज्ञान की भूमिका में बुद्धि की स्वतः प्रवृत्ति होना स्वाभाविक ही है और इसी कारण से ज्योतिष के अवशिष्ट संहिता एवं होरा स्कन्धों में फलादेश की अनेक पद्धतियाँ जन्म-पनपी और अद्यावधि निरन्तर नवप्रणीत ज्योतिष के कई ग्रन्थों में उद्धृत एवं पल्लवित होती हुई दृष्टिगोचर हो रही है।
जातक शुभाशुभ, प्रश्न, नष्टजातक, पञ्चाङ्ग, मुहूर्त, स्वप्न, शकुन स्वर एवं सामुद्रिक आदि अनेकानेक फलादेश पद्धतियाँ विश्व विकसित हुई और आज तक विविध रूपों में विज्ञान के साथ समन्वय करती हुई अन्यान्य फलादेश पद्धतियाँ भी प्रणीत एवं परिवर्द्धित की जा रही है जिनमें विश्व के समस्त मानवों की रूचि एवं आस्था है।
उपरि प्रदर्शित फलादेश पद्धतियों में 'मुहूर्त ज्योतिष' हमारा प्रकृत विषय है। इस पर किञ्चित् लिखने के पूर्व ज्योतिः प्रासाद में प्रवेशार्थ जो मुख्यद्वारभूत है, उस 'पञ्चाङ्ग ज्योतीष' पद्धति के विषय में संक्षेपतः विचार करना आवश्यक ही नहीं, अपितु अनिवार्य हो जाता है, क्योंकि मुहूर्तज्ञात करने के लिए 'पञ्चाङ्ग' ही मुख्य उपकरण है।
'पञ्चाङ्ग' इस शब्द में ही स्पष्टरूपेण उन पांच अंगों का निर्देश है, जिन्हें तिथि, वार, नक्षत्र, योग व करण इन नामों से जाना जाता है। आकाशमण्डल में सूर्यादि ग्रह व असंख्य ताराएँ हैं। इन ताराओं में अश्विन्यादि रेवती पर्यन्त २७ ताराओं का इतर नाम नक्षत्र भी है। ये नक्षत्र आकाशमण्डल में नियतरूपेण विचरण करते हैं, फिर भी इनके अपने-अपने स्थान नियत हैं। इन्हीं नक्षत्रों के बारह राशियाँ भी है जो मेषादि मीनान्त है। चूंकि नक्षत्र २७ है और उनसे राशियाँ १२ बनती है, अतः एक राशि २७÷१२ = २१/४ अर्थात् सवा दो (२१) नक्षत्रों की होती है। एक नक्षत्र के चार माने गए हैं जो (चु, चे, चो, ला) इस प्रकार अक्षरात्मक है, अतः १ राशि में या २१/४ नक्षत्रों में २१/४०४ = ९ चरण होते है। एक राशि के तीन अंश है। एक अंश के सांठवें भाग को कला, कला के साठवें भाग को विकला और इसके भी साठवें भाग को प्रतिविकला संज्ञा से व्यवहृत किया गया है।
ज्योतिष शास्व जीवन का सचित्र दर्शन है। प्राचीन शास्वों में ज्योतिष शास्त्र ही एक ऐसा शास्त्र है, जिसे आज के भौतिक व वैज्ञानिक युग ने भी सप्रमाण व स्वयंसिद्ध माना है। इस शास्त्र की प्रमाणिकता जैन दर्शन को भी स्वीकार्य है, क्योंकि जैन दर्शन अपने ४५ आगमों के आधार पर ही अपनी प्रामाणिकता सिद्ध करती है उस ४५ आगमों मे ज्योतिष शास्त्र की प्रामाणिकता के आधार रूप से ग्रन्थ सूर्य प्रज्ञप्ति एवं चन्द्र प्रज्ञप्ति है। ज्योतिष के आदिग्रन्यों में ८४ ग्रह का प्रमाण मिलता है। व आज भी जब भारतीय ज्योतिष के ज्ञात नव ग्रहों पर ज्योतिष का अध्ययन करते है तो पाश्चात्य विद्वान हर्षल नेपच्युन व प्लुटो तीन ग्रह अधिक मानते हैं जिससे यह जैन शास्त्र के अध्ययन से जब ८४ ग्रह का प्रमाण मिलता है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं। आज मानव जीवन के प्रत्येक विद्वानों ने लेखनी चलाई है, किन्तु इस शास्त्र को प्रमाणिक करने में जैनाचार्यों एवं जैन दर्शन के विद्वानों एवं जैन मुनि प्रवरों ने इसको प्रत्येक दृष्टि से प्रमाणों को इसके अध्ययनार्थी जिज्ञासु के लिये जितना साहित्य लिखा है इतना श्रम युक्त साहित्य शायद ही दर्शनकारों ने लिखा होगा यह भी कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी ।
आज के बढ़ते हुए विज्ञान के साधन सम्पन्न युग में भी यही एक मात्र ज्योतिष शास्त्र है जिसे कोई भी विद्वान चुनौती नहीं दे सका और इसके ज्ञाता पृथ्वी पर बैठ कर गगन की बातें करते हैं और यह लिख देते हैं कि इस दिन आकाश में इतने बजकर इतने मिनट पर ग्रहण होगा यानि सूर्य या चन्द्र के नीचे से ग्रहों के यानि राहु-केतु के विमान निकलते हैं तो उसे ग्रहण कहते हैं। जन्म कुण्डली के ऊपर से फलित ज्ञान के विद्वान् मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन के प्रत्येक कार्य को कह सकते है। जिस प्रकार दर्पण के सम्मुख अपनी मुखाकृति स्पष्ट दिखती है ठीक उसी प्रकार ज्योतिष के फलित के विद्वान् को कुण्डली में कुण्डली के धारक का जीवन दर्शन होता है। जीवन में प्रतिपल ऐसे क्षण आते हैं कि मनुष्य को कई कार्य करने पड़ते हैं। फिर वह कार्य स्थाई हो या अस्थाई हो या दर्शन से सम्बन्धित हो या आत्मा से, ऐसे प्रत्येक कार्य को शुभ घड़ी और शुभ समय पर प्रारम्भ किये तो वे जरूर सफल होते हैं एवं इच्छित फल को प्राप्त भी होते हैं।
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