श्रीमद्भागवतम् महापुराण, हिंदू सनातन धर्म का एक विशेष पौराणिक ग्रंथ है। इस पुराण में भगवान कृष्ण तथा उनके भक्तो की कथाओ के माध्यम से मनुष्य जीवन के परम् लक्ष्य को बताने तथा उसकी प्राप्ति के मार्ग को प्रसस्त किया गया है। प्रायः, हम लोग पुराणों में आयी कहानियो, कथाओ को पढ तो लेते है या किसी से सुन भी लेते है, परन्तु ये कथाये हमें क्या कहना चाहती है?, हमें क्या सीखना चाहती है?, इनका गुढ़ आध्यात्मिक रहस्य क्या है? ये हम नहीं जान पाते और ये कथाये हमारे लिए सिर्फ धार्मिक मनोरंजन बन कर रह जाती है। पुस्तक "मृत्यु से मुक्ति तक" शुरू तो होती है, राजा परीक्षित के मृत्यु के भय के साथ लेकिन खत्म होती है राजा परीक्षित की मुक्ति के साथ। यह पुस्तक एक प्रयास है, इस तथ्य को दर्शाने के लिए कि मुक्ति, मोक्ष, सुःख-दुःख से छुटकारा या परमानन्द कोई कोरी कल्पना नही है, ये पारमार्थिक सत्यता है। यह पुस्तक अवश्य ही एक पथ-प्रदर्शक साबित हो सकती है, उन सभी जिज्ञासुओ के लिए जो समझते है कि मनुष्य जीवन का प्रथम और अंतिम लक्ष्य, जीवन में कृत-कृत्यता, आत्म-ज्ञान और आंनद प्राप्ति है।
डॉ. रमेश सिंह पाल पेशे से वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक हैं। उन्होंने विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में 50 से अधिक शोध लेख प्रकाशित किए हैं और दर्जनों से अधिक, उच्च उपज एवं गुणवत्ता वाली फसल किस्मों के विकासकर्ता के रूप में योगदान दिया है। डॉ. पाल जुनून से एक आध्यात्मिक लेखक और विचारक भी हैं। वे एक दशक से, हिंदू धर्मग्रंथों का अध्ययन करने के साथ-साथ विभिन्न दिव्य आत्माओं की शिक्षाओ को भी ग्रहण कर रहे है। वह अपनी सीधी बातचीत और व्याख्यानों के माध्यम से एक आध्यात्मिक कार्यकर्ता के रूप में युवाओं और समाज से जुड़े हुए हैं। साथ ही साथ, डॉ. पाल यूनेस्को समावेशी नीति प्रयोगशाला के लिए भारत से एक विशेषज्ञ भी हैं। अपनी आध्यात्मिक यात्रा से प्राप्त ज्ञान के सार को उन्होंने वर्ष 2018 में, पहली हिंदी पुस्तक "अपना स्वरूप" के रूप में प्रकाशित किया। इस पुस्तक को पाठकों ने खूब सराहा। KuKu FM पर इस किताब को 5 लाख से ज्यादा बार सुना जा चुका है। उनकी दूसरी पुस्तक "स्पिरिचुअल विजडम" वर्ष 2020 में तथा तीसरी पुस्तक "रूपांतरण के सूत्र" वर्ष 2023 में प्रकाशित हुई, जिन्हें पाठको का भरपूर प्रेम मिला। डॉ पाल की तीनो पुस्तकों को देश की संसद पुस्तकालय के साथ-साथ, अन्य केंद्रीय एवं राज्य के प्रतिष्ठित संस्थानों में सम्मलित किया गया है।
एक बार किसी ने मुझसे पूछा कि हम जीवन जी क्यों रहे है? तो मेरे मुख से स्वतः ही निकल गया कि हम सब लोग मरने के लिए ही जी रहे है। उस समय तो मैंने बोल दिया लेकिन बाद मे मेरे मन में इस वाक्य को लेकर बहुत विचार आने लगे क्यो कि देखा जाय तो यह सत्य है कि हम सब मरने के लिए ही, जीवित है। मरण (मृत्यु) ही एक मात्र सत्य है, लेकिन हमने वेदान्त में पढ़ा है कि मृत्यु तो असम्भव है, मृत्यु केवल एक अवस्था परिवर्तन मात्र है। जिस प्रकार जब हम पैदा होते है तो हमारा देह एक शिशु का देह होता है, फिर यह देह बढ़ता है और जवान (प्रौढ़) अवस्था में आता है, फिर यह देह मे विकार आते है, तथा इसका क्षय शुरू होता है और फिर बुढ़ापा आता है और एक दिन यह देह की मृत्यु हो जाती है।
अगर थोड़ा ध्यान से देखा जाए तो यह उसी प्रकार है जैसे, समुद्र मे पानी भाप बनकर उड़ा फिर वो बादल बना और फिर बादल नष्ट होकर फिर से पानी मे मिल गये तो क्या पानी का जन्म हुआ और क्या पानी की मृत्यु हो गयी? मनुष्य अपने संस्कारो के अनुरूप एक देह धारण करता है और उस देह के साथ वह इतना अधिक (प्रगाढ़) तादात्म कर लेता है कि वह देह को ही सत्य मान कर जीने लगता है, और जैसे-जैसे इस देह में विकार आने शुरू होते है, मनुष्य को गहरी चिन्ता घेर लेती है। देखा जाय तो कोई भी मनुष्य मृत्यु के कारण दुखी नही होता क्यों कि शायद सभी को पता है कि एक दिन तो मरना ही है, मनुष्य मृत्यु के भय के कारण दुखी होता है, मृत्यु का भय आदमी को जीने नहीं देता।
जब हम इस संसार मे आते है हमे हर एक चीज सीखनी पड़ती है चाहे वह गाड़ी चलाना हो या जीवन निर्वाह के लिए कोई भी कार्य हो, तो क्या हमे यह नहीं सीखना चाहिए कि मरना कैसे है? यदि जीवन जीना एक कला है तो मरना भी एक कला है। भगवान ने भगवतगीता मे कहा है, "अमृतं चौव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन" कि जीवन भी मैं ही हूँ और मृत्यु भी मैं ही हूँ। सत भी मैं ही हूँ और असत भी मैं ही हूँ। अगर मृत्यु भी परमात्मा ही है तो भला मृत्यु से कैसा भय? परंतु यह बात बोलने मे तो ठीक लगती है लेकिन जब तक हम जीवन को सही ढंग के नही समझते, तब तक मृत्यु को भी हम नही समझ सकते।
भगवत गीता में भगवान कहते है कि आदमी का दो तरह से देह त्याग हो सकता है, एक तो है कीट पतंगे की तरह का कीट पटगे, कामना के वसीभूत होकर गति प्रकाश/अग्नि की ओर आकर्षित होते है। और उनमे जलकर तड़प-तड़प कर अपने प्राण त्यागते है। ये बड़ी दर्द-दायक मृत्यु है, लेकिन क्योंकि कामना मे चाहे, कीट-पतंगे हो या मनुष्य हर कोई अन्धा हो जाता है। उसे पता होता है कि वह किस नरक से गुजर रहा है। लेकिन फिर भी अपनी कामनाओं को नही त्यागता । दूसरी तरह की मृत्यु हमें दिखाई नहीं पड़ती है। नदी भी सागर में मिलकर स्वयं को खो देती है लेकिन वो मिटती नही, अब वो सागर हो जाती है। अब वो अनंत हो जाती है, जो ज्ञानीजन, विवेकी पुरुष है, वो जानते है कि मृत्यु, मुक्ति के रास्ते मे आने वाला एक पड़ाव मात्र है, मृत्यु तो अनंत होने का अवसर है। अपने व्यतित्व को मिटाकर अनंत के साथ एक हो जाना, ऐसी मृत्यु, मुक्ति है।
यह पुस्तक श्रीमद भागवत महापुराण को आधार बनाकर लिखी गयी हैं, श्रीमद भागवत महापुराण इतना विस्तृत है कि एक आम आदमी इसे पूरा अध्यन करने से पहले १०० बार सोचता है इसलिए वह कथावाचकों से भागवतम सुन लेता है, इसमें बताई गयी कथाओ को भी याद कर लेता है। लेकिन उन कथाओ का तात्यर्य निर्णय, व्यवहारिक एवं आध्यात्मिक तौर पर सही-सही नहीं कर पता है। आजकल के कथा वाचक भी केवल धर्म और कथा को, धन और यश बटोरने साधन बनाये हुए है। इसलिए शायद आज एक आम आदमी, धर्म और अध्यात्म को लेकर जितना संदेहित है, इतना कभी भी नहीं था।
श्रीमद भगवत महापुराण में सबकुछ है, उपनिषद जैसा ज्ञान है, भक्ति-सूत्र जैसी भक्ति है और भगवत गीता जैसा कर्म-सन्यास भी है। नीति, धर्म और अध्यात्म का पूर्ण समवेश हमें श्रीमद भगवत महापुराण में देखने को मिलता है। इस पुस्तक में तत्व (वेदान्त) की दृष्टि से भागवत महापुराण के तथ्यो का विवेचन किया गया है, जब तक हम लोग अपनी दृष्टि में दैवत को छोड़कर अद्वैवत भाव नही ले आते, यह पुस्तक पूर्ण रूप से समझ मे नही आ सकती तथा इसमें बताये गये तथ्य हमे केवल मानसिक कल्पानाओ मे ही डालेंगे।
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