ई. पू. तृतीय शताब्दी से लेकर ई. पू. प्रथम शती के मध्य दोलायमान महाकवि शूद्रक की एकमात्र 'मृच्छकटिकम् कृति ही वर्तमान समय में उपलब्ध है। यद्यपि दण्डी तथा वामन के उल्लेखों के आधार पर कहा जा सकता है कि इनकी कुछ अन्य रचनाएँ भी अवश्य रही होंगी। कुछ वर्ष पूर्व 'पद्मप्राभृतक' नामक भाण दक्षिण भारत से प्रकाशित हुआ, जिसके सम्पादक का मानना है कि यह महाकवि शूद्रक की ही रचना है, किन्तु फिर भी इस विषय में पर्याप्त अन्वेषण की आवश्यकता है। दस अङ्गों में निबद्ध 'मृच्छकटिकम् की कथा के ऊपर भास के 'चारुदत्त' नाटक का प्रभाव स्पष्टरूप से परिलक्षित होता है। नाट्यशास्त्रीय नियमों के अनुसार लिखे गए इस रूपक की महत्त्वपूर्ण विशेषता तात्कालिक समाज का स्वाभाविक चित्रण रही है।
अब तक नाट्यग्रन्थों की व्याख्या के क्रम में जिस सरल शैली में अभिज्ञानशाकुन्तलम्, विक्रमोर्वशीयम्, मालविकाग्निमित्रम्, नागानन्दम्, रत्नावली नाटिका, स्वप्नवासवदत्तम्, प्रतिमानाटकम्, मुद्राराक्षसम्, वेणी- संहारम्, उत्तररामचरितम् आदि की व्याख्याएँ, विस्तृत भूमिका व 'चन्द्रिका' हिन्दी, संस्कृत व्याख्या सहित प्रस्तुत की गयीं। उसी क्रम में विद्वानों के आग्रह एवं विद्यार्थियों के सौख्य के लिए 'मृच्छकटिकम् की यह व्याख्या भी प्रस्तुत की जा रही है।
(1) काव्य का स्वरूप- साहित्यशास्त्रियों' ने काव्य को प्रथम दृष्ट्या दो भागों में विभाजित किया है- दृश्यकाव्य एवं श्रव्यकाव्य। इनमें भी दृश्यकाव्य जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है, देखे जाने के कारण इसे 'दृश्यकाव्य' कहा जाता है। अभिनेता, कथा अथवा काव्य की भावना के अनुसार उसके पात्रों की वेशभूषा को धारण करके मञ्च पर नाटक के पात्रों के आचरण एवं वाणी का, अपनी योग्यता एवं अभ्यास से अत्यन्त सुन्दर अनुकरण करते हैं, जिसे देखकर सहृदय सामाजिक स्वयं को उसी काल एवं परिस्थितियों में अनुभव करता है. जिसमें नाटक की कथावस्तु निबद्ध होती है।
इतना ही नहीं, कलाकारों की अभिनेयता के कौशल से वह दर्शक उस कथा का एक पात्र स्वयं भी हो जाता है और तन्मयता से उस सम्पूर्ण परिस्थिति का अनुभव करके अत्यधिक आनन्दित अनुभव करता है। काव्य की भाषा में इसे ही 'रूपक' कहते हैं। इसीप्रकार पात्रों की अवस्था का अनुकरण करने के कारण विद्वानों द्वारा इसे 'नाट्य' संज्ञा भी प्रदान की गयी है।'
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