प्राचीनकाल से भारतभूमि में शक्ति उपासना होती आई है। ताम्रप्म संस्कृति के समय की मृण्मयी मातृदेवी प्रतिमाएं प्राप्त होती हैं जो संकेतक है तत्कालीन शक्ति/मातृ उपसना की। भारत की प्राचीन सभ्यता के मूलप्रन्ध चार वेद है, इन्हीं चार वेदों में अथर्वणवेद तन्वागम का मूल है। ऋग्वेद का ऋषि अदिती, सरस्वती, राका, कुहु, वाक्, रात्रि आदि स्वरूपों में महाशक्ति की वन्दना करता है, खिलभाग का श्रीसूक्त तो विश्व प्रसिद्ध है ही। यजुर्वेद में रूद्रस्वसा, अम्बा, अम्बिका, अम्बालिका आदि का वर्णन प्राप्त होता है। सामवेद के सामविधान ब्राह्मण का 'रात्रिसाम' सामगों में प्रसिद्ध है। अथर्वणवेद के सौभाग्यकाण्ड को शाक्तागमों का मूल माना गया है, तत्कारण शाक्तागमों का प्रामाण्य सहज ही सिद्ध होता है। अथर्वणवेद में ऐहिक तथा आमुष्मिक फलप्रदान करने वाली विविध उपासनाओं का वर्णन प्राप्त होता है।
भारतीय अवधारणा है कि जब जीव निगमोचित उपसना करने में अक्षम हो जाता है तब परमकारूणिक भगवान् परमशिव अपने पांच प्रकट तथा एक रहस्यमुख से आगमों का प्राकट्य करते हैं। इस प्रकार पंचसोत तथा कुलनय के आगमशाखों का आविर्भाव होता है जिनका आलम्बन कर अणु शीघ्र ही भुक्ति तथा मुक्ति का लाभ करता है। आगमिक सम्प्रदाय के उत्कर्ष के साथ तन्त्रोपासना की प्रसिद्धि हुई। विविध आगमिक सम्प्रदायों में अपने-अपने इष्टदेवता के एकाक्षर से लेकर लक्षाक्षर पर्यन्त के नाना मन्त्रों का प्रचलन रहा है। विविध आगमिक सम्प्रदायों में कालीक्रम चूड़ामणि के समान स्थित है। इस सम्प्रदाय में परतत्व को 'काली' की अभिधा से कहा गया है।
काली' पद से विश्वरूप में परिणीत होने हेतु भैरव में उठी प्रथम ऊर्मी अथवा आद्य स्पन्द का बोध होता है। काली वह महाशक्ति है जो विश्व को सृष्टि, स्थिति एवं संहार के क्रम से गति प्रदान करती है। अनुग्रह शक्ति के द्वारा विश्वात्मक एवं विश्वोत्तीर्ण परमतत्त्व का ज्ञान करवाती है। विश्व का क्षेपण एवं गणन कर अन्त में स्वात्म में लय कर लेती है।
कालीकुल में भगवती काली की उपासना चिन्तामणिकाली, स्पर्शमणिकाली, सन्ततिप्रदाकाली, सिद्धिकाली, दक्षिणाकाली, कामकलाकाली, हंसकाली तथा गुह्यकाली आदि स्वरूपों में की जाती है। इनमें भी भगवती का गुह्यकाली स्वरूप सर्वोत्कृष्ट है।
महाकालसंहिता के अनुसार रावण, श्रीरामचन्द्र, भरत जी, च्यवनमहर्षि, हिरण्यकशिपू, ब्रह्मा, वशिष्ट, कामदेव, पावक, आदित्य, शचि, दानव, मृत्य एवं काल, हारीत महर्षि, ऋषि जाबाल तथा दक्ष प्रजापति आदि के द्वारा भोग एवं मोक्ष की सिद्धि हेतु इनकी उपासना की गई। इनके अतिरिक्त भी कई ऋषियों, मुनियों, सिद्धजन, योगिनीगण, गीर्वाणगण तथा मानवों द्वारा भगवती की उपासना की गई है। भगवती अपने उपासक को सहज ही भुक्ति तथा मुक्ति प्रदान करती है। साधक का इहलोक तथा परलोक उभय सिद्ध होता है।
यह हर्ष का विषय है कि पण्डित अनिमेश नागर के द्वारा हाहारावतन्त्र के अनुसार माता गुह्यकाली के पूजाविधान का संकलन कर प्रकाशित किया जा रहा है। इस पद्धति ग्रन्थ में तन्त्रप्रक्रिया के अनुसार देवी गुह्यकाली का सविस्तार पूजन, गुह्यकाली यन्त्र पर षोडशावरण पूजा, बलिदान, मन्त्रजप विधान आदि दिया गया है। सुकुमार साधकों के हितार्थ लघुपूजा के विधान को भी संकलित किया गया है जो ग्रन्थ की उपादेयता बढ़ा देता है। विविध कामनाओं की पूर्ति के लिए पुष्पार्पणकल्प का वर्णन किया है।
देवी गुह्यकाली के यज्ञ को करने वाले साधकों के लिए स्पष्ट एवं सरल होमविधान का सन्निवेश किया गया है जो प्रशंसनीय है। स्तोत्रखण्ड में देवी गुह्यकाली के तीन सहस्रनाम, दो कवच एवं अनेको दुर्लभ स्तोत्रों का संकलन किया गया है। पुष्पार्चन तथा कुंकुमार्चन के लिए दशनामावलि एवं अष्टोत्तरशतनामावलि भी संकलित है। परम्परा से उपदेश प्राप्त साधकों के लिए सभी निर्देश स्पष्ट एवं सहजभाषा में दिये गये है। आपका प्रयास बहुत सुन्दर है। मेरी ओर से लेखक को शुभकामनाएं एवं आशीर्वादा
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