अब से 50 वर्ष पूर्व सन् 1942 में स्थापित वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद् (सी.एस.आई.आर.) विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी के माध्यम से देश में आर्थिक और औद्योगिक विकास लाने के लिए वचनबद्ध है। सी.एस.आई.आर. ने अनेक प्रयोगशालाओं की स्थापना की है जिनमें अनुसंधान और विकास का कार्य विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विभिन्न क्षेत्रों में हो रहा है। इन प्रयोगशालाओं में वस्तुओं के मानकीकरण, परीक्षण और प्रमाणीकरण करने की सुविधा उपलब्ध है । ये प्रयोगशालाएँ शोधकर्ताओं को प्रशिक्षण देने, विज्ञान को लोकप्रिय तथा देश में वैज्ञानिक प्रवृत्ति को अंतर्निविष्ट करने में जुटी हुई हैं।
सी.एस.आई.आर. की पूरे देश में फैली हुई 41 प्रयोगशालाओं में आण्विक जीव विज्ञान, खान से खनिज निकालना, औषधि-युक्त पौधों से औषधि, यांत्रिक्त अभियांत्रिकी, गणितीय योजना, मौसम विज्ञान, रासायनिक पदार्थ, कोयला इत्यादि पर शोध हो रहा है।
जनादेश का पालन करते हुए सी. एस.आई.आर. ने सदैव इस बात का ध्यान रखा है कि प्रौद्योगिकी के अग्रिम क्षेत्रों में कुशलता लाने तथा इस कार्य हेतु विशेषज्ञों को प्रशिक्षित करने के लिए विज्ञान का उच्चतम स्तर रखना होगा। सी.एस.आई.आर. में उच्च तकनीकी और उभरते हुए विज्ञान और तकनीकी क्षेत्रों में उल्लेखनीय कार्य हो रहा है। उदाहरणार्थ ऊतक परिष्कृत बाँस की पूर्वविकसित अवस्था, डी एन ए फिंगरप्रिंटिंग, उत्कृष्ट धातु जिओलाइट, भारतीय सागर तल से विभिन्न धातु ग्रन्थिकायें निकालने, शोधकार्य के उद्देश्य से कम भार के हवाई जहाज बनाने तथा उच्च तापमान अतिचालकता इत्यादि पर इसकी प्रयोगशालाओं में शोध हो रहा है।
सी. एस. आई. आर. इस तथ्य से पूरी तरह परिचित है कि वैज्ञानिक तथा प्रौद्योगिक विकास की गति को योग्य युवा वैज्ञानिकों की उपलब्धता के बिना निरंतर बनाये रखना संभव नहीं है। अतः उसने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के सहयोग से मानव संसाधन विकास का एक ओजस्वी कार्यक्रम हाथ मे लिया है जिससे विज्ञान और प्रौद्योगिकी क्षेत्रों में उभरते युवा स्नातकों को प्रशिक्षण दिया जा सके ।
हम होमो सैपियन्स अपने आप को बुद्धिमान जाति कहते हैं। बुद्धिमत्ता की इसी समपन्नता के कारण अनेक प्रश्न मन में आते हैं। उनमें से ही एक है कि हमारा व्यवहार ऐसा क्यों है? हमारे बुद्धिसंगत और असंगत व्यवहार की उत्पत्ति एक पहेली है। यह समझ पाना कठिन है कि किस प्रकार भाँति भाँति के अनुभव, स्मृतियों और ज्ञान के रूप में संचित हो जाते हैं और बाद में हमारे विभिन्न क्रिया-कलापों के रूप में प्रकट होते हैं। प्रयोगों द्वारा इस की पुष्टि सम्भव न हो पाने के कारण हमने भौतिक और रासायनिक उत्तरों का सहारा लिया है। और हमें कुछ प्रश्नों के उत्तर मिले भी हैं। तंत्रिका विज्ञान के मंत्र मुग्ध करने वाले पहलू हम में से प्रत्येक की दिनचर्या के अनिवार्य अंग हैं। पुस्तक इसी विस्मयकारी विकास को प्रस्तुत करती है।
इसी विकास का परिणाम है प्रवीणता से परिपूर्ण संवेदी भाग- हमारा मस्तिष्क । ज्ञान की जो उत्कृष्टता आज देखने को मिलती है वह पहले नहीं थी। इसके अतिरिक्त मुनष्य में तंत्रिका कोशिकाओं की जो विशेषता पायी जाती है उसने हमें अन्य सभी जीवधारियों से आगे ला कर खड़ा कर दिया है। हमारी सीखने, स्मरण करने, कल्पना में विचरने और सृजन करने की सामर्थ्य ही हमारी शक्ति है। बोलने की क्षमता ने हमारी जाति को सफल बना दिया है। इस पुस्तक में इन्ही विशेष क्षमताओं पर प्रकाश डाला गया है।
वेदान्त की व्याख्या करते हुये स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, "भौतिक तत्व, मन और आत्मा में कोई अन्तर नहीं है"। तंत्रिका विज्ञानी भी आज इससे सहमत हैं, यह बात अलग है कि उनका सोचने का तरीक़ा भिन्न है। इस धूसर पदार्थ को जिसे हम मन की संज्ञा भी दे देते हैं, समझना इतना आसान नहीं है। आज हम जो कुछ भी समझ पाये हैं वह विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में हुये योगदान के कारण ही सम्भव हो पाया है। हाल ही में जीव विज्ञानियों और कम्प्यूटर वैज्ञानिकों द्वारा किये गये संयुक्त प्रयास फलदायक रहे हैं।
इस पुस्तक में अपने आप को जानने के प्रयासों में हुये विकास की रूपरेखा प्रस्तुत की गई है। आशा है, विषय का संक्षिप्त रूप में प्रस्तुतीकरण अधिक जानकारी हासिल करने के लिये पाठकों को प्रेरित करेगा। इस सब का मूल उद्देश्य तंत्रिका विज्ञान में दिलचस्पी जागृत करना है। पुस्तक में यही करने का प्रयत्न किया गया है।
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