भूमिका
भारतवर्ष धर्मप्राण देश है। अतः यहाँ 'धर्म' पर विशेष ध्यान दिया गया है, 'धर्मो रक्षति रक्षितः'। धर्म ही एक ऐसा जीवंत तत्त्त्र है जिसके आधार पर मनुष्य और पशु की परख होती है, 'धर्मण होना पशुभिः समानाः'। यह 'धर्म' शब्द संस्कृत श्रृ धातु से बना है, जिसका अर्थ है - धारण करना, पालन करना, आलम्बन देना। इसके अतिरिक्त यह धर्मशब्द अनेक अर्थों में अनेक परिस्थितियों के परिवर्तन चक में घूम चुका है, जैसे महात्मा बुद्ध का धर्म के साथ चक्र-परिवर्तन एक क्रान्ति पैदा करता है, समाज में अपनी प्रतिष्ठा अलग ही बनाता है। यह धर्म- शब्द कहीं विशेषण बनकर आता है तो कहीं संजात्राची रूप में। कीं पुलिंग में तो कहीं नपुंसक रूप में प्रयुक्त हुआ है।
प्रस्तावना
सृष्टि का यह नित्य-नियम है कि चौरासी लाख योनियों में से किसी भी योनि में उत्पन्न प्राणी अधिकसे अधिक सुख पाना चाहता है; उनमें ते प्रायः मनुष्ययोनि ही ऐसी है, जिसमें उत्पन्न होकर वह प्राणी पुण्य कर्मोंके द्वारा सुखसाधनका उपार्जन तथा मोक्षलाम मी कर सकता है। शेष समस्त योनियोंमें तो प्राणियोंके कर्मोंका क्षय मात्र होता है। सुख-दुःखका साधनभूत क्रमशः पुण्यापुण्य कर्मों की उपार्जन प्रायः नहीं होता है।
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