समस्त प्राणि-जगत् के जीवन का एकमात्र लक्ष्य है-शान्ति। इसी के लिए, इसी की खोज में, अखिल सृष्टि के जीवधारी-मानव, पशु-पक्षी और जीव-जन्तु भटकते रहते हैं। उनके द्वारा किये जाने वाले विभिन्न क्रिया-व्यापारी, बहुविध प्रयासों और व्यवहारों के मूल में यही अभीष्ट लक्ष्य रहता है-शान्ति-सन्तुष्टि।
यह सन्तुष्टि क्या है-उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति और समस्याओं से मुक्ति। अर्थात् तब उसे कोई अभाव नहीं रह जाता; वह स्वयं को सन्तुष्ट अनुभव करता है। उसे किसी अभाव की अनुमति नहीं होती, कोई लालसा उसे उद्वेलित नहीं करती। यही शान्ति है।
पर, क्या ऐसी शान्ति सुलभ है?
युगों पूर्व, प्रकृति के रहस्यवेत्ता ऋषियों ने, जो अणु से लेकर विराट् ब्रह्माणु तक का सूक्ष्मातिसूक्ष्म ज्ञान रखते थे, मानव के लिए विभिन्न प्रकार के ऐसे साधना-पथों का निर्माण किया था, जिन पर चलकर वह अपने लक्ष्य-शान्ति-को प्राप्त कर सके।
भारतीय धर्म, दर्शन और संस्कृति के मर्मज्ञ मनीषियों ने ऐसी व्यवस्था की थी कि उसके माध्यम से व्यक्ति अपने वांछित रूप में शान्ति को पा सके; उसका अनुभव, उपयोग कर सके। भारतीय अध्यात्म-साधना का चरमबिन्दु यही शान्ति है और इसके विभिन्न रूपों की उपलब्धि के लिए ज्ञानाचार्यों ने बहुविध उपाय बताये हैं। मन्त्र-साधना इसी शान्ति-प्राप्ति का सर्वश्रेष्ठ और सबल-सफल उपाय हैं।
कालान्तर में मन्त्र-विद्या ने विकसित होकर 'तन्त्र' का आयाम प्रस्तुत किया। तन्त्र के विकास का रूप 'मन्त्र' है। कालान्तर में यह मन्त्र विज्ञान दो दिशाओं में विभक्त हो गया-भौतिक यन्त्र और आध्यात्मिक यन्त्र।
मन्त्र' का अर्थ है, ध्वनि-विज्ञान। यह एक अतिसूक्ष्म, जटिल किन्तु निश्चित-रूपेण प्रभावशाली साधना-पद्धति है। इसके द्वारा संसार में कुछ भी देखा, सुना और किया जा सकता है।
मन्त्र, तन्त्र और यन्त्र, तीनों साधना-पद्धतियाँ प्रभावशाली हैं। तीनों का हो प्राचीन काल में चरम विकास हुआ।
समय की झंझा में युग-के-युग उड़ जाते हैं। भारतीय मन्त्र-साधना भी, जो कभी विकास के चरम शिखर पर थी, कालान्तर में हासोन्मुख हो चली। कारण था, विदेशी आक्रान्ताओं का शासन, उनकी अस्थिर और आस्थाहीन शासन प्रणाली तथा देश के सामाजिक जीवन में निरन्तर बढ़ता जा रहा भौतिक असन्तुलन।
मन्त्र-शक्ति के द्वारा कुछ भी किया जा सकता है। आज भी अनेक ऐसे मन्त्रज्ञ विद्यमान हैं, जिनकी साधना का प्रभाव बड़े-बड़े भौतिक वैज्ञानिकों को भी विस्मयग्रस्त कर देता है।
प्रस्तुत पुस्तक में अनेक प्रकार के मान्त्रिक प्रयोग संकलित हैं। ये सब प्राचीन और प्रामाणिक ग्रन्थों से उधृत हैं। मौलिकता की बात करना एक प्रवंचना है। आज का मस्तिष्क इस प्रकार के, इन कोटि के साहित्य का सृजन कर ही नहीं सकता। पूर्व मनीषियों के सूत्रों से यदि कुछ लाभ उठा लिया जाय, तो यह भी अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि होगी।
विधिपूर्वक सम्पन्न साधना की सफलता सदैव असन्दिग्ध होती है। श्री-समृद्धि और शान्ति-सुख के लिए मन्त्र-साधना से बढ़कर शक्तिशाली उपाय अन्य कुछ नहीं है।
आस्थावान पाठक इस पुस्तक से कुछ-न-कुछ अवश्य लाभान्वित होंगे; ऐसा मेरा विश्वास है। साथ ही, यहाँ यह संकेत देने में मुझे कोई संकोच नहीं है कि यदि किसी साधक को विधिगत, प्रयोज्यवस्तुगत अथवा वैचारिक त्रुटि (अशुद्धता-अपवित्रता) के कारण असफलता मिलती है, अथवा अन्य किसी प्रकार की क्लेशजनक हानि होती है, तो इसका उत्तरदायित्व स्वयं उसी पर होगा। ऐसे किसी भी असावधानीजन्य दुष्परिणाम से लेखक और प्रकाशक सर्वथा तटस्थ हैं।
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