विश्व के अनेक भागों की तरह हमारे देश के विभिन्न प्रान्तों में भी पूर्व काल से कई लोक गाथाएँ प्रचलन में हैं। विशेष रूप से मध्य हिमालय क्षेत्र का वह भाग जो उत्तरांचल के नाम से जाना जाता है, उसमें तो इन लोक गाथाओं का भण्डार ही भरा पड़ा है। उत्तरांचल में कुमाऊँ एवं गढ़वाल के दोनों मण्डल सम्मिलित हैं। उत्तरांचल को हमारे देश भारत का मुकुट भी कहा जाता है। चमचमाते मुकुट की तरह ही यहाँ की लोक संस्कृति की महत्वपूर्ण विधा-लोक गाथाएँ भी, सम्पूर्ण देश के अन्य प्रान्तों में प्रचलित लोकगाथाओं में, आदिकाल से ही अपना शीर्ष स्थान बनाए हुए हैं। लोक गायकों द्वारा सदियों से, इन्हें अपने मधुर कण्ठ में पिरोकर पीढी-दर-पीढ़ी वर्तमान तक मौखिक परम्परा से जीवित रखा गया है।
मेरे विचार में इन गाथाओं को पाँच भागों में बाँटा जा सकता है-
(1) प्रेमगाथाएँ, (2) वीरगाथाएँ, (3) पौराणिक गाथाएँ, (4) ऐतिहासिक गाथाएँ, (5) स्थानीय देवी-देवताओं पर आधारित गाथाएँ। इन गाथाओं का अपने-अपने स्वरूप के आधार पर लोकसाहित्य एवं समाज में अपना विशेष महत्व है। मूल में लोक गाथाएँ अपने कालं, उस समय की सामाजिक परम्पराएँ, मान्यताएँ, ऐतिहासिक एवं आर्थिक स्थिति का स्पष्ट दर्पण भी कही जा सकती है।
संदर्भित लोकगाथा (मालूशाही) लगभग पन्द्रहवीं सदी की एक प्रसिद्ध प्रेमगाथा है। जिसमें सम्पूर्ण कुमाऊँ का पर्वतीय क्षेत्र तराई का मैदानी भग एवं कुछ रूप में गढ़वाल तक का एक विशाल कलेवर समाया हुआ है।
इस लोकगाथा का अपना अलग ऐतिहासिक भौगोलिक एवं सांस्कृतिक महत्व है जैसा कि मेरी काव्य कृति राजुला मालूशाही में डा० गोविन्द चातक ने स्पष्ट किया है:
'गाथा के संदर्भ ऐसे हैं कि मालूशाही और राजुला ऐतिहासिक व्यक्ति प्रतीत होते हैं। यह ठीक है कि यह गाथा अनेक रूपान्तरों के साथ उपलब्ध होती है, किन्तु फिर भी इसके इतिहास तत्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। इसके साथ ही इसके भौगोलिक आयाम भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। सुनपति का व्यापार मार्ग और राजुला की प्रिय मिलन की यात्रा भौगोलिक वर्णनों से युक्त है। सांस्कृतिक स्तर पर गाथा में मालूशाही का योगी बनकर राजुला की खोज में चल पड़ना- मध्यकालीन भारतीय प्रेमाख्यानों की परम्परा को ही निभाता है।'
यह निर्विवाद है कि मध्य हिमालय क्षेत्र में प्रेमगाथा के रूप में इस लोकगाथा को अन्य गाथाओं की अपेक्षा कुछ अधिक ही सामाजिक स्नेह एवं महत्व मिला है। जिसका मुख्य कारण इसकी हृदयस्पर्शी विषयवस्तु एवं गायन शैली की लोकप्रियता को जाता है।
यद्यपि यह गाथा विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न रूपों में वर्णित होती है। जिसमें गाँऊली (गाँगुली) सौक्याण एवं रानी धर्मादेवी का मिलन स्थल, राजुला एवं मालूशाही का प्रथम मिलन स्थल, मालूशाही एवं सुनपति शौक के युद्ध के तौर-तरीके, युद्धस्थल, कथा की नायिका राजुला की जन्मभूमि एवं उसके एकाकी बैराठ नगर तक जाने के रास्ते आदि में भिन्नता है। लेकिन मूल कथा एवं प्रेम की पराकाष्ठा के चित्रण में कोई भी बदलाव नहीं है।
इस गाथा के समाज में आज तक जीवित रहने व इसकी असीम लोकप्रियता के मूल में मुझे निम्न कारण जान पड़ते हैं-
(1) गाथा का नायक मालूशाही सामंती परम्परा का राजकुमार हैं वह शक्ति का प्रतीक है। लेकिन इतिहास प्रसिद्ध अन्य विलासी राजकुमारों की तरह किसी सुन्दर कन्या का बलात् अपहरण करना उसकी मनोवृति नहीं। यह उसके क्षत्रिय धर्म एवं मर्यादा के पालन का प्रतीक है।
(2) कथा की नायिका राजुला ने मालूशाही के रूप में जीवन में केवल एक ही पुरूष को चाहा है। जिसकी प्रतीक्षा वह जीवन के अन्तिम क्षणों तक करना चाहती है। यह नारी हृदय की गहराइयों में छिपे पवित्र प्रेम का अनंत स्रोत है।
(3) सुनपति शौक अपार सम्पत्ति का स्वामी होते हुए भी और अधिक सम्पत्ति की चाह में अपनी कन्या का विवाह वृद्ध और कुरूप हूण राजा ऋषिपाल (बिखपाल) से करता है। उसकी मान्यता है कि प्रेम केवल भूखे लोगों की भाषा है। यह मानव हृदय में छिपे अंतहीन लोभ एवं वैभव के प्रति असीम तृष्णा का प्रतीक है।
(4) गाँऊली सौक्याण अपनी बेटी का दुख नहीं देख सकती। उसका पति एवं धर्मपरायण रूप, माँ के ममतामय स्वरूप से हार जाता है। वह राजुला को अपने पति से छिपा कर उसके प्रेमी मालूशाही के पास भेजती है। युग बदले हैं, कई सामाजिक मान्यताएँ बनीं, मिटीं व बदली हैं लेकिन अपनी संतान के प्रति माँ की ममता कभी भी नहीं बदली है।
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