मैकलुस्कीगंज, राँची के पास बसे एक एंग्लो-इंडियन गाँव का नाम है! इसी गाँव को केन्द्र मानकर लिखा गया है उपन्यास-मैकलुस्कीगंज'! आंग्ल मूल के हिन्दुस्तानियों का चाक गिरेबां दिखानेवाला यह हिन्दी का अद्वितीय उपन्यास है! पहले यह गाँव बिहार में था लेकिन वर्ष २००० में झारखंड गठन के पश्चात् मैकलुस्कीगंज झारखंड प्रांत का एक गाँव है! इस तरह कई राजनीतिक, प्रशासनिक और सामाजिक परिवर्तनों के बावजूद बीते कई दशकों से इस गाँव की पीड़ा इस सवाल के साथ अपनी जगह कायम है कि क्या एक दिन पृथ्वी के नक्शे से मैकलुस्कीगंज का नामोनिशान मिट जायेगा?
उपन्यास में एंग्लो-इंडियन और आदिवासी समुदाय के जीवन-दर्शन और परिवेश की न सिर्फ मोहक झाँकियाँ हैं बल्कि इन दोनों के रक्त में समाये संतापों की मार्मिक व्याख्या भी है! भारत की आजादी के तक़रीबन डेढ़ दशक पूर्व अस्तित्व में आया 'मैक्लुस्कीगंज' पतझड़ और बसंत के कालचक्र की अद्भुत महागाथा है! 'मैक्लुस्कीगंज' के बहाने यह भारत की वर्तमान पीढ़ी की भी कथा है, जो पश्चिमी बाजारवाद की होड़ में अपनी जड़ों से कट कर लगातार उसकी कसक महसूस कर रही है! इस लिहाज से यह उपन्यास पाठकों को आगाह करता है!
मैकलुस्कीगंज के पात्र, उनके परिवेश और संबद्ध जनजातीय क्षेत्र के हालत को उपन्यासकार ने एक अनुभूत सत्य की तरह अद्भुत अभिव्यक्ति दी है! झारखंड की समस्याएं और वहां के सामाजिक-राजनीतिक हालत इस उपन्यास में हू-ब-हू चित्रित हैं! छोटानागपुर और मैकलुस्कीगंज से जो परिचित हैं, उन्हें इस उपन्यास को पढ़ते हुए यह महसूस होगा कि नायक और नायिका के इर्द-गिर्द कुछ घटनाओं और परिस्थितियों का ताना-बाना बुनने और उनकी भावनात्मक बुनियाद पर संवादों को विकसित करने के लिए थोड़ी-बहुत काल्पनिकता का सहारा तो लिया गया है लेकिन ज्यादातर हिस्सों में यथार्थ को बखूबी सामने रख गया है! कुल मिलाकर 'मैकलुस्कीगंज' उपन्यास विश्वभाव का एक ऐसा अनुपम दस्तावेज़ है, जो निरीह, निर्बल और भावुक कौम की पीड़ा का प्रतिकार चाहनेवालों के पक्ष में खड़ा हो सकता है!
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