लेखक परिचय
बहुमुखी प्रतिभा के धनी श्री जागेश्वर प्रसाद श्रीवास्तव का जन्म 17 मई 1911 को मध्य प्रदेश में कटनी शहर के सम्पन्न एवं प्रतिष्ठित परिवार में हुआ । भारतीय संस्कृति में पूर्ण रूप से आस्था रखने वाले परिवार से इनको आध्यात्मिक शिक्षा विरासत में मिली । कटनी एव जबलपुर से शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात आध्यात्मिक, साहित्य एवं काव्य भाषा के क्षेत्र में प्रवेश किया और हिन्दी, उर्दू एवं संस्कृत तीनो भाषाओं में निपुणता एवं विद्वता प्राप्त की और प्रारम्भिक आयु में ही महर्षि महेश योगी जी के गुरूदेव ज्योर्तिमठ के तत्कालीन शंकराचार्य परम पूज्यनीय स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती जी महाराज से दीक्षा प्राप्त की और महर्षि जी के राष्ट्रीय एवं अन्तराष्ट्रीय कार्यो को सफल बनाने में पूर्ण रूप से भूमिका अदा की और महर्षि जी के आध्यात्मिक जान प्रकाश को नई पीढ़ी में जागृत करने में सम्पूर्ण रूप से योगदान दिया जिसके अन्तर्गत विश्व के अनेक देशों की यात्रा की । आध्यात्मिक एवं साहित्यिक रूप से विशेष पकड़ रखने वाले लेखक के राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में कई शोध एवं आलेख भी प्रकाशित हो चुके हैं और अपने उन्कृष्ट कार्यो के कारण राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के विभिन्न संघ एवं सामाजिक संस्थानों से विभिन्न स्तरों पर ख्याति प्राप्त कर चुके हैं । परिवार से विरासत में मिली धार्मिक विचारधारा होने के कारण विभिन्न धार्मिक ग्रन्थों का अध्ययन, काव्य रचना एवं भाषा साहित्य इत्यादि में इनकी विशेष रूचि एवं पकड़ है ।
पुस्तक परिचय
एक वैज्ञानिक संत महर्षि महेश योगी पुस्तक गागर में सागर जैसी एक महत्वपूर्ण कृति है । आधुनिक इतिहास में अपनी अमिट छाप छोड़ने वाले महर्षि महेश योगी जी की साधना, व्यक्तित्व एवं कृतित्व और उपलब्धियां इतनी विस्तृत और विशिष्ट हैं कि उन सभी को संकलित और प्रस्तुत किया जाता, तो कितने ही महाग्रंथ तैयार हो जाते । शिष्य महेश, योगी महर्षि, प्रतिपादक महर्षि, भाष्यकार महर्षि, वैज्ञानिक महर्षि, संस्थापक महर्षि, प्रशासक महर्षि और समष्टि के रूप में युग प्रवर्तक महर्षि । इस पुस्तक की खास विशेषता यह है कि ये ऐसा वृत्त खींचती है जिसमें महर्षि का कोई भी रूप उससे बाहर नहीं रह जाता । महर्षि जी का सबसे बड़ा योगदान है भावातीत ध्यान । विज्ञान जगत ने भी इस खोज का अनुभव करना प्रारंभ कर दिया है किन्तु पहले से ही प्राय ऐसा माना जाता रहा है कि विज्ञान अपने आपको भौतिक वस्तुओं के अध्ययन तक और अधिक सीमित नहीं रख सकता, यदि उसे प्रगति करनी है, तो उसे शुद्ध ऊर्जा के गुणों का परीक्षण प्रारंभ कर देना चाहिए । इस स्वीकारोक्ति के साथ विज्ञान ने इस तथ्य को भी मान्यता प्रदान की है कि पदार्थ, जीवन की पूर्णता का द्योतक नहीं है ।
पुस्तक हमें महर्षि जी के उन पड़ावों को दिखाती है, जो आने वाले युग के लिए तीर्थ की तरह सिद्ध होंगे । अभिव्यक्ति का पाला जब ज्ञान और ज्ञानी से पड़ता है, तो उसके दुरूहता में फंसने की संभावनाएँ प्रबल हो जाती हैं । यह इस प्रस्तुक के लेखक श्री जागेश्वर प्रसाद श्रीवास्तव की भाषा और शैली की विशेषता हे कि पुस्तक बहुत ही सरल, रोचक एवं विशेष उपलब्धि की संवाहक है ।
प्रस्तावना
यह भारत के लिए ही नहीं पूरे विश्व के लिए हर्ष और कल्याण का विषय है कि पूज्य महर्षि महेश योगी के दिव्य जीवन को प्रकाशित करने का महती प्रयास हुआ है । जब भी संसार में सत्य की क्षति होती है, तब महापुरुष का अवतरण होता है । ऐसे महापुरुषों में इक्कीसवीं सदी के शीर्षप्राय रहे महर्षि महेश योगी ।
उनका जीवन ज्ञान विज्ञान का अद्धृत समन्वय, हास्य और गंभीरता का अनुपम दर्शन एवं ज्ञान, भक्ति और कर्म का नितांत संगम रहा । उनका व्यक्तित्व अपने आप में अद्वितीय था । चाहे आयुर्वेद हो या यज्ञानुष्ठान, वास्तु अथवा गन्धर्व वेद, इन विद्याओं को पुनर्जीवन देने का और विश्वव्यापी बनाने का श्रेय उनका ही है । वेद विज्ञान को नया स्वरूप देना, विचारों के सीमित जगत में खोये व्यक्ति को भावातीत जगत का परिचय कराना, वहां दैवी शक्ति के स्पंदनों को जाग्रत करना, विश्व में शांति की स्थापना के लिए अग्रसर रहना ऐसी विविध भूमिकाएं उन्होंने पूर्णता और कुशलता से निभाई । उनसे प्रज्जवलित यह ज्ञान ज्योति सदियों तक पीढ़ी दर पीढ़ी विश्व का मार्गदर्शन करती रहेगी । महर्षि नारद भक्ति सूत्र में कहते हैं
महत्सङ्गस्तु दुर्लभोऽगम्योऽमोघश्र
लभ्यतेऽपि तक्तपयैव
महापुरुषों का सान्निध्य दुर्लभ, अगम्य एवं अमोघ है और मिलता भी उन्हीं की कृपा से है । युवावस्था में हमें भी कुछ समय महर्षि जी के सान्निध्य में रहने का अवसर प्राप्त हुआ । सरलता, सहजता और गाम्भीर्य के वे अनूठे संगम थे । क्या युवा, क्या वृद्ध और क्या महिला, जो भी उनके संपर्क में आया उन सबके जीवन के वे केन्द्र बिन्दु रहे ।
महर्षि जी का जीवन चरित लिखना साधारण कार्य नहीं है । मुझे हर्ष है कि । यह शुभकार्य शतायु पुरुष श्रद्धेय श्री जागेश्वर प्रसाद श्रीवास्तव के द्वारा संपन्न हुआ है जो उनके लगभग पूरे जीवन साक्षी रहे हैं । महर्षि जी हमेशा कहते थे कि ज्ञान चेतना में निहित है । उनका जीवन चरित सत्वमयी चेतना वाले व्यक्ति ही लिख सकते हैं । इस दृष्टिकोण से भी श्रद्धेय श्रीवास्तव जी, जिन्हें सब प्यार से बड़े भैया कहकर पुकारते हैं, हमें सबसे समर्थ लगते हैं । हमने आपके साथ भी कुछ समय व्यतीत किया । आपका स्वभाव सदा शांति और प्रसन्नता से परिपूर्ण रहा है ।
हम आशा करते हैं कि इस ग्रंथ का अध्ययन करते हुए पाठकगण महर्षि जी के सान्निध्य की अनुभूति करेंगे, उनकी चेतना का विकास होगा और वे पूज्य महर्षि जी द्वारा देखे गए उज्जवल समाज के स्वप्न को साकार करने में अग्रसर रहेंगे ।
भूमिका
भगवान् कृष्ण ने गीता में कहा है
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानंऽधर्मस्य तदात्मानम सृजाष्यहम् ।।
अर्थात हे अर्जुन, जब जब धर्म की हानि होती है और अधर्म की वृद्धि होती हें, तब तब मैं अवतार लेता हूं और धर्म की रक्षा करता हूं । भारत के इतिहास मैं ऐसे बहुत से अवसर आए हैं, जब परमात्मा ने पूर्णावतार, अंशावतार और आवेशावतार लेकर दुष्टों का दमन किया, धर्म की स्थापना की और भक्तों को मुख दिया ।
यह प्रकृति का शाश्वत् नियम है कि जब कोई अवतार होता है, तो वह धम की मौलिकता और पूर्णता में स्थापना करता है, किंतु काल के प्रभाव से मनुष्य जीवन में धर्म धीरे धीरे पुन शिथिल होने लगता है, प्रकृति के नियम टूटने लगते हैं और अधर्म बढ़ने लगता है । परिणामस्वरुप सामाजिक जीवन अपराध, अनाचार, दु ख, अशांति तथा भौतिक, दैविक और दैहिक, तीनों तापों मै त्रस्त हो जाता है, प्रकृति में क्षोभ उत्पन्न होता है । ऐसा ही त्रेता के उस कालखंड में हुआ जब भगवान् राम का अवतार हुआ और द्वापर में जब श्रीकृष्ण ने अवतार लिया ।
महाभारत युद्ध के ढाई हजार वर्ष पश्चात् जब वैदिक धर्म में साधना पक्ष शिथिल होने लगा और अनुष्ठानों में हिंसा और अज्ञानता का प्राधान्य होने लगा, ऐसे मैं अहिंसा प्रधान जैन और बौद्ध संप्रदायों का अम्युदय हुआ और वैदिक धर्म की पूर्णता तिरोहित हुई, अधर्म की प्रधानता हो गई, किंतु धर्म के आशिक मूल्य के चलते ये संप्रदाय भी पांच सौ वर्ष के अंदर विकृतियों का शिकार हो गए एसे में प्रकृति के नियमानुसार आदिगुरु शंकराचार्य के रूप में भगवान् शंकर का प्रादुर्भाव हुआ, जिन्होंने जैन एवं बौद्ध धर्मावलंबियों के साथ कापालिकों को शास्त्रार्थ में परास्त कर वैदिक धर्म को पूर्णता में प्रतिष्ठित किया
कुछ समय तक सब ठीक ठाक रहा, किंतु जब काल ने करवट ली और देश पर विदेशी आक्रमण हुए और उनका शासन प्रारंभ हुआ, तो एक एक कर वैदिकता के स्तंभों को नष्ट किया जाने लगा । यह स्थिति देश के स्वतंत्र होने के बाद भी नहीं सुधरी । अंग्रेज भले ही चले गए, किंतु अपने पीछे मानसिक दासता का जो राजनीतिक नेतृत्व और प्रशासनिक ढांचा छोड़ गए, उसमें धर्मनिरपेक्षता के नाम पर सभी धर्मा के प्रति आदर भाव रखने के स्थान पर वैदिक धर्म की उपेक्षा की जाने लगी । प्राय सभी क्षेत्रों में विदेशी प्रभाव काम करने लगा और सरकारी स्तर पर भारतीय संस्कृति को हीनभाव से देखा जाने लगा । वैयक्तिक और राष्ट्रीय चरित्र गिर गया, तरह तरह के अपराध और अनाचार होने लगे और समाज में हिंसा का बोलबाला हो गया । यह कुछ वैसा ही परिदृश्य था, जैसा दो हजार वर्ष पहले प्रकट हुआ था, जब वाराणसी के एक घर से एक माता यह कहते हुए रोदन कर रही थी को वेदो अनुर्द्धस्यसि । उसी समय वहां से वैदिक विद्वान कुमारिल भट्ट जा रहे थे, वे रुके और उस माता को ढाढस बंधाया मां रोदसि वतनने एसो भट्टहि जीवति माता रोओ नहीं, अभी यह भट्ट जीवित है ।
बीसवीं सदी के मध्य में भारत माता का कुछ ऐसा ही करुण क्रंदन प्रयाग के सगंमतट पर जैसे महर्षि महेश योगी जी को सुनाई पड़ा और उन्होंने संकल्प लिया कि वैदिक ज्ञान को पूर्णता में जगाकर और आधुनिक विज्ञान सम्मत कराकर न केवल भारत, बल्कि पूरे विश्व में प्रचार प्रसार करना है । अपने संकल्प को पूरा करने के लिए वह उस समय के वेदांतावतार पूज्य गुरुदेव ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती महाराज के पास गए और उनकी पूर्ण समर्पण भाव से सेवा करते हुए पूर्ण ज्ञान और ऋद्धि सिद्धी का प्रसाद पाया । गुरुदेव की 13 वर्ष तक अनन्य भक्ति और साधना के उपरांत जब हिमालय से तपस्या करके निकले, तो उस समय तक चैन नहीं लिया, जब तक वैदिक ज्ञान को मौलिकता और वैज्ञानिकता के प्रकाश में लाकर व्यावहारिकता के स्तर पर पूरे विश्व में नहीं फैला दिया । उल्लेखनीय बात यह है कि अन्य महात्माओं की भांति महर्षि जी ने ज्ञान का केवल उपदेश ही नहीं दिया वरन् उसके सैद्धांतिक एवं प्रायोगिक दोनों पक्षों को प्रस्तुत किया, जिससे ज्ञानवर्धन के साथ साधना के प्रत्यक्ष लाभ भी विश्व के लाखों लोगों को मिल रहे हैं । वैदिक ज्ञान का प्रसाद पाने पर दुनिया भारत के सामने नतमस्तक है ।
ऐसे महापुरुष का जीवन चरित्र लिखने का साहस करना सीमित द्वारा असीम को नापने का दुष्तर प्रयास ही कहा जाएगा ।
तथापि
मैं ससीम हूं, तुम असीम हो, यह दायित्व कैसे निभेगा ।
करूं समर्पण इसे तुम्हीं को, तब यह उपक्रम सफल बनेगा । ।
इसी विश्वास के साथ एवं गुरु स्मरण करते हुए लेखन का प्रयास प्रारंभ करते हैं । यह विश्वास है कि जिस प्रकार पूज्य महर्षि महेश योगी जी के उपदेशों एवं साधना पद्धति से विश्व के लाखों लोग लाभ उठा रहे हैं, उसी प्रकार यह ग्रंथ मानव जाति का पथ प्रदर्शन करता रहेगा ।
विषय सूची
प्रस्तावना श्री श्री रविशंकर
7
संदेश भुवनेश्वर शर्मा
9
11
1
होनहार बिरवान के होत चीकने पात
17
2
केरल से भावातीत ध्यान का प्रचार प्रसार प्रारंभ
31
3
इतिहास के स्वर्णिम सुप्रभात का आरंभ, विदेश प्रस्थान
63
4
वैज्ञानिक अनुसंधान की पहल
76
5
यूरोप यात्रा और हेनरी नाइबर से भेंट
89
6
श्रीमद्भगवद्गीता के भाष्य की प्रेरणा
105
दैवी योजना का प्रारूप तैयार
114
8
भारतीय संसद में महर्षि जी का भाषण
120
भगवद्चेतना का वर्ष
131
10
अमेरिका में महर्षि अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय
143
12 जनवरी 1975 ज्ञानयुग के प्रभात का उद्घाटन
149
12
व्यापक महर्षि प्रभाव की खोज
156
13
कार्लमार्क्स की अपेक्षाएं और महर्षि
160
14
ऋग्वेद का अपौरुषेय भाष्य
161
15
वेद विज्ञान विश्व विद्यापीठ की स्थापना
162
16
अल्लौपनिषद का उद्घाटन
167
चीन में बौद्ध लामा के साथ सत्संग
170
18
फेयरफील्ड में टेस्ट ऑफ यूटोपिया
173
19
इंदिरागांधी स्टेडियम में योगिक उड़ान प्रतियोगिता का ऐतिहासिक आयोजन
181
20
वैदिक अनुष्ठानों के अप्रत्याशित सुखद परिणाम
185
21
वैदिक गणित के ज्ञान को प्रोत्साहन
190
22
रूस में महर्षि वैदिक विश्वविद्यालय की स्थापना
202
23
हालैंड और भारत में विश्वविद्यालयों की स्थापना
208
24
12 कालक्षेत्रों (टाइम जोन) में वैदिक विश्वप्रशासन की राजधानियाँ
210
25
राम मुद्रा का प्रारंभ
218
26
ब्रीवरी समुदाय के राजा का राज्याभिषेक
220
27
श्रीलंका और भारत के बीच रामसेतु के निर्माण का प्रस्ताव
221
28
पीस पैलेस और वेद भवनों के निर्माण की अनूठी योजना
223
29
वर्णानुसारी संस्कार से सफलता
224
30
न्याय के लिए हर गाँव में रामदरबार
228
देशभक्ति की नई परिभाषा
229
32
ग्लोबल यूनियन ऑफ साइंटिस्ट फॉर पीस का दिल्ली सम्मेलन
235
33
अमेरिका में वास्तुप्रधान भवनों की लोकप्रियता
236
34
अमेरिका के ब्रह्मस्थान में विश्वशांति राष्ट्र की राजधानी
239
35
रामायण इन अन फिजियोलॉजी का विमोचन
240
36
वैदिक साहित्य वेबसाइट का प्रारंभ
245
37
ब्रह्मस्थान करौंदी ग्राम में रामराज्य की राजधानी स्थापित करने का संकल्प
248
38
विश्व के पाँच शहरों में ग्लोबल फाइनेंसियल राजधानियाँ
250
39
विजयादशमी पर राजाओं और राज राजेश्वरियों का राज्याभिषेक
252
40
फोल्ड्राप पहुंची वैदिक पंडितों की टोली
255
41
ब्रह्मानंद सरस्वती ट्रस्ट की विश्व परिषद का गठन
257
42
श्रद्धा सुमन
261
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