प्रकाशकीय
हिन्दी के पाठक प्रस्तुत पुस्तक के विद्वान लेखक से भली- भांति परिचित हैं। उन्होंने जहां हमारी आजादी की लड़ाई में अपनी महान देन दी है, वहां अपनी। शक्तिशाली लेखनी तथा प्रभावशाली लेखन-शैली से साहित्य की भी उल्लेखनीय सेवा की है। 'मण्डल' से प्रकाशित उनकी 'दशरथनंदन श्रीराम', 'राजाजी की लघु कथाएं', 'कुना सुन्दरी' तथा 'शिशु-पालन' आदि का हिन्दी जगत में बड़ा अच्छा स्वागत हुआ है।
इस पुस्तक में राजाजी ने कथाओं के माध्यम से महाभारत का परिचय कराया है । उनके वर्णन इतने रोचक और सजीव-हैं कि एक बार हाथ में उठा लेने पर पूरी पुस्तक समाप्त किए बिना पाठकों को संतोष नहीं होता। सबसे बड़ी बात यह है कि ये कथाएं केवल मनोरंजन के लिए नहीं कही गई हैं, उनके पीछे कल्याणकारी हेतु है और वह यह कि महाभारत में जो हुआ, उससे हम शिक्षा ग्रहण करें।
इस पुस्तक का अनुवाद भी अपनी विशेषता रखता है। उसके पढ़ने में मूल का- सा रस मिलता है। भारत सरकार की ओर से उस पर दो हजार रुपये का पुरस्कार प्रदान किया गया था।
प्रस्तुत पुस्तक का यह नया संस्करण है। पुस्तक की उपयोगिता को देखते हुए विचार किया गया है कि इसका व्यापक रूप से प्रचार-प्रसार होना चाहिए। यही कारण है कि कागज, छपाई के मूल्य में असाधारण वृद्धि हो जाने पर भी इस संस्करण का मूल्य हमने कम-से-कम रखा है। हमें पूर्ण विश्वास है कि यह पुस्तक सभी क्षेत्रों और सभी वर्गो में चाव से पढ़ी जायेगी।
दो शब्द
मैं समझता हूं कि अपने जीवन में मुझसे जो सबसे बड़ी सेवा बन सकी है, वह है महाभारत को तमिल- भाषियों के लिए कथाओं के रूप में लिख देना । मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि 'सस्ता साहित्य मंडल' ने 'दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार-सभा' के एक दक्षिण भारतीय द्वारा किये हुए हिन्दी रूपान्तर को बढ़िया मानकर उत्तर भारत के पाठकों के समझ उपस्थित करने के लिए स्वीकार कर लिया।
हमारे देश में कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं होगा, जो महाभारत और रामायण से परिचित न हो, लेकिन ऐसे बहुत थोड़े लोग होंगे, जिन्होंने कथावाचकों और भाष्यकारों की नवीन कल्पनाओं से अछूते रहकर उनका अध्ययन किया हो। इसका कारण संभवत: यह हो कि ये नई कल्पनाएं बड़ी रोचक हों। पर महामुनि व्यास की रचना में जो गांभीर्य और अर्थ-गढ़ता है, उसे उपस्थित करना और किसी के लिए संभव नहीं । यदि लोग व्यास के महाभारत को, जिसकी गणना हमारे देश के प्राचीन महाकाव्यों में की जाती है और जो अपने ढंग का अनूठा ग्रंथ है, अच्छे वाचकों से सुनकर उसका मनन करें तो मेरा विश्वास है कि वे ज्ञान, क्षमता और आत्म-शक्ति प्राप्त करेंगे। महाभारत से बढ़कर और कहीं भी इस बात की शिक्षा नहीं मिल सकती कि जीवन में विरोध- भाव, विद्वेष और क्रोध से सफलता प्राप्त नहीं होती। प्राचीन काल में बच्चों को पुराणों की कहानियां दादियां सुनाया करती थीं, लेकिन अब तो बेटे-पोतेवाली महिलाओं को भी ये कहानियांज्ञात नहीं हैं। इसलिए अगर इन कहानियों को पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया जाये तो उससे भारतीय परिवारों को लाभ ही होगा।
महाभारत की इन कथाओं को केवल एक बार पढ़ लेने से काम नहीं चलेगा। इन्हें बार-बार पढ़ना चाहिए। गांवों में बे-पढे-लिखे स्त्री-पुरुषों को इकट्ठा करके दीपक के उजाले में इन्हें पढ़कर सुनाना चाहिए। ऐसा करने से देश में ज्ञान, प्रेम और धर्म-भावनाओं का प्रसार होगा, सबका भला होगा।मेरा विश्वास है कि महाभारत की ये संक्षिप्त कथाएं पाठकों को पहले की अपेक्षा अच्छा आदमी, अच्छा चिन्तक और अच्छा हिन्दू बनावेंगी।
प्रश्न हो सकता है कि पुस्तक में चित्र क्यों नहीं दिए गए? इसका कारण है। मेरी धारणा है कि हमारे चित्रकारों के चित्र सुन्दर होने पर भी यथार्थ और कल्पना के बीच जो सामंजस्य होना चाहिए वह स्थापित नहीं कर पाते। भीम को साधारण पहलवान, अर्जुन को नट और कृष्ण को छोटी लड़की की तरह चित्रित करके दिखाना ठीक नहीं है। पात्रों के रूप की कल्पना पाठकों की भावना पर छोड़ देना ही अच्छा है।
विषय-सूची
1
गणेशजी की शर्त
9
2
देवव्रत
12
3
भीष्म-प्रतिज्ञा
15
4
अम्बा और भीष्म
18
5
कच और देवयानी
23
6
देवयानी का विवाह
28
7
ययाति
33
8
विदुर
35
कुन्ती
38
10
पाण्डु का देहावसान
40
11
भीम
42
कर्ण
44
13
द्रोणाचार्य
47
14
लाख का घर
51
पांडवों की रक्षा
54
16
बकासुर-वध
59
17
द्रौपदी स्वयंवर
66
इन्द्रप्रस्थ
71
19
सारंग के बच्चे
77
20
जरासंध
80
21
जरासंध वध
83
22
अग्र-पूजा
87
शकुनि का प्रवेश
90
24
खेलने के लिए बुलावा
93
25
बाजी
97
26
द्रौपदी की व्यथा
101
27
धृतराष्ट्र की चिन्ता
106
श्रीकृष्ण की प्रतिज्ञा
111
29
पाशुपत
114
30
विपदा किस पर नहीं पड़ती?
118
31
अगस्त्य मुनि
122
32
ऋष्यशृंग
126
यवक्रीत की तपस्या
131
34
यवक्रीत की मृत्यु
133
विद्या और विनय
136
36
अष्टावक्र
138
37
भीम और हनुमान
141
'मैं बगुला नहीं हूं'
146
39
द्वेष करनेवाले का जी कभी नहीं भरता
149
दुर्योधन अपमानित होता है
152
41
कृष्ण की भूख
155
मायावी सरोवर
159
43
यक्ष-प्रश्न
162
अनुचर का काम
166
45
अज्ञातवास
171
46
विराट की रक्षा
176
राजकुमार उत्तर
181
48
प्रतिज्ञा-पूर्ति
184
49
विराट का भ्रम
189
50
मंत्रणा
193
पार्थ-सारथी
199
52
मामा विपक्ष में
201
53
देवराज की भूल
203
नहुष
206
55
राजदूत संजय
211
56
सुई की नोंक जितनी भूमि भी नहीं
215
57
शांतिदूत श्रीकृष्ण
218
58
ममता एवं कर्त्तव्य
224
पांडवों ओर कौरवों के सेनापति
226
60
बलराम
229
61
रुक्मिणी
230
62
असहयोग
233
63
गीता की उत्पत्ति
236
64
आशीर्वाद-प्राप्ति
238
65
पहला दिन
241
दूसरा दिन
243
67
तीसरा दिन
246
68
चौथा दिन
250
69
पांचवां दिन
255
70
छठा दिन
256
सातवां दिन
259
72
आठवां दिन
263
73
नवां दिन
265
74
भीष्म का अंत
268
75
पितामह और कर्ण
270
76
सेनापति द्रोण
272
दुर्योधन का कुचक्र
274
78
बारहवां दिन
277
79
शूर भगदत्त
281
अभिमन्यु
285
81
अभिमन्यु का वध
290
82
पुत्र-शोक
293
सिंधु राज
297
84
अभिमंत्रित कवच
301
85
युधिष्ठिर की चिंता
305
86
युधिष्ठिर की कामना
309
कर्ण और भीम
311
88
कुंती को दिया वचन
315
89
भूरिश्रवा का वध
319
जयद्रथ-वध
323
91
आचार्य द्रोण का अंत
326
92
कर्ण भी मारा गया
329
दुर्योधन का अंत
333
94
पांडवों का शर्मिन्दा होना अश्वत्थामा
337
95
अब विलाप करने से क्या लाभ
341
96
सांत्वना कौन दे?
344
युधिष्ठिर की वेदना
346
98
शोक और सांत्वना
349
99
ईर्ष्या
352
100
उत्तक मुनि
354
सेर भर आटा
357
102
पांडवों का धृतराष्ट्र के प्रति बर्ताव
360
103
धृतराष्ट्र
366
104
तीनों वृद्धों का अवसान
369
105
श्रीकृष्ण का लीला-संवरण
370
धर्मपुत्र युधिष्ठिर
372
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