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साहित्य समाज और संविधान- Literary Society and Constitution

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Item Code: HAF482
Author: Edited By Chanda Bain
Publisher: HANS PRAKASHAN, DELHI
Language: Hindi
Edition: 2023
ISBN: 9788196407643
Pages: 263
Cover: HARDCOVER
Other Details 9x6 inch
Weight 440 gm
Fully insured
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Book Description
पुस्तक परिचय

राष्ट्रीय एकता, अखण्डता, साम्प्रदायिक एकता आदि वे शब्द हैं जिनके अर्थों की एक विराट परिधि है। साधारण अर्थों में इन समस्त शब्दों से आशय व्यक्ति या व्यक्ति समूह की सकारात्मक एकजुटता से है और वह भी ऐसी जो राष्ट्रीयता या राष्ट्रवाद की वृद्धि करे, उसका पोषण करे न कि उसे क्षति पहुंचाये। इन्हीं सब शब्दों का मिला-जुला रूप ही राष्ट्रवाद को प्रदर्शित करता है। राष्ट्र की एकता, अखंडता, व्यक्ति की गरिमा और समस्त नागरिकों के अधिकारों का संरक्षण संविधान के माध्यम से संभव है। संविधान सामाजिक समरसता और परिवर्तन को आधार बनाकर समतामूलक समाज के निर्माण के लिए मार्ग प्रशस्त करता है। भारतीय संविधान के निर्माण में डॉ. अंबेडकर की भूमिका अतिमहत्वपूर्ण है। संविधान लागू होने के बाद भारतीय समाज का संचालन संवैधानिक और लोकतांत्रिक व्यवस्था के साथ किया जा रहा है। इस व्यवस्था में व्यक्ति और समाज से जुड़े हुए सभी विषय प्रभावित हुए हैं। साहित्य भी एक ऐसा ही विषय है जो संविधान से खुद को अलग-थलग नहीं कर सकता है।

हिन्दी साहित्य में लोकतंत्र की भूमिका को इस पुस्तक के माध्यम से समझा जा सकता है। संवैधानिक व्यवस्था के माध्यम से सामाजिक क्षेत्र में व्याप्त विभिन्न प्रकार के विभेद यथाः जातीय, धार्मिक, लैंगिक इत्यादि, पर भी अंकुश लगाने का प्रयत्न किया गया है। भारत में संविधान सर्वोपरि है और यह पुस्तक साहित्य- समाज के विभिन्न आयामों में संविधान की उपस्थिति का अवलोकन करती है। साथ ही भाषा, बोली और व्यक्ति की अभिव्यक्ति के विभिन्न संवैधानिक पक्षों को उ‌द्घाटित करती है। समाज के हासिए पर जीवन यापन करने वाले वर्गों की यथार्थ सामाजिक अवस्था और उनके संवैधानिक अधिकारों का विश्लेषण इस पुस्तक के केंद्र में है। संविधान की प्रस्तावना और उसकी उपयोगिता को यह पुस्तक संरक्षित करती है। आज के संवैधानिक दौर में साहित्य-समाज के मूल्यांकन की दृष्टि से यह पुस्तक बहुत ही उपयोगी साबित होगी।

लेखिका परिचय

डॉ. चन्दा बैन (जन्म: 5 फरवरी सन 1962, सागर, मध्य प्रदेश)। आप डॉक्टर हरीसिंह गौर केन्द्रीय विश्वविद्यालय, सागर, मध्य प्रदेश के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं।

उच्च शिक्षा में आप पिछले 35 वर्षों से अध्यापन कार्य कर रहीं हैं। आपने 'शिवकुमार श्रीवास्तव का व्यक्तित्व एवं कृतित्त्व' विषय पर पी-एच.डी. शोध कार्य किया है। हिन्दी साहित्य का इतिहास, हिन्दी कविता, भाषा विज्ञान, घनानंद, निराला और मुक्तिबोध में आपकी विषय विशेषज्ञता है। इससे पूर्व आपकी कई पुस्तके प्रकाशित हैं, जिनमें क्रमशः 'साहित्य: विमर्श और सरोकार', 'कृति-संस्कृति संवाद', 'साहित्य, समाज और संविधान', 'रामकाव्य परम्परा और बुन्देलखण्ड', 'बौद्ध दर्शन और भारतीय समाज' प्रमुख हैं। आपके द्वारा 'समकालीन कविता में पर्यायवरण विमर्श' पर केन्द्रित विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा अनुदानित शोध परियोजना को सफलतापूर्वक पूर्ण किया गया है। आकादमिक जगत में आप अपने शोधपरक व्याख्यान और आलेखों के लिए जानी जाती हैं। इसके साथ ही वर्तमान समय में विश्वविद्यालय में कुलानुशासक, भाषा अध्ययनशाला की अधिष्ठाता, भाषा विज्ञान विभाग तथा उर्दू एवं पर्शियन विभाग की अध्यक्ष, अम्बेडकर उत्कृष्ठता केन्द्र की समन्वयक इत्यादि महत्वपूर्ण प्राशासनिक दायित्वों का निर्वहन भी कर रहीं हैं। आपको मध्य प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मलेन द्वारा 'श्रीमती सुन्दरवाई पन्नालाल रान्धेलिया (स्वतंत्रता संग्राम सेनानी) सम्मान' (2013), गुरु फाउंडेशन, रोहतक, हरियाणा द्वारा 'राजमाता जीजाबाई सम्मान' (2023), ऋषि वैदिक साहित्य पुस्तकालय, आगरा, उत्तर प्रदेश द्वारा 'गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर स्मृति सम्मान' (2023)

प्राक्कथन

किसी भी देश का शासन-प्रवन्ध सुचारू रूप से चलाने के लिए उसे किसी-न-किसी प्रकार के संविधान की जरूरत होती है। उसके बिना राजकाज चलता नहीं और इसीलिए हर विकसित देश में किसी-न-किसी प्रकार का संविधान अस्तित्व में होना ही चाहिए। उसी तरह भारत देश में भी एक तरह का संविधान प्रचलित है। भारतीय विचार, समाज और साहित्य परम्परा, वर्ण-व्यवस्था से सम्बद्ध हैं। भारतीय समाज व्यवस्था की नकारात्मक प्रवृत्तियों, मूल्यों और मनुष्य विरोधी तत्वों के प्रति विद्वान अकसर तटस्थ ही पाए जाते हैं या इन मुद्दों को जानबूझ कर अनदेखा करने की प्रवृत्ति भी सामान्यतः दिखाई देती है। भारतीय समाज-व्यवस्था का आधार जाति-व्यवस्था वन चुकी है। जिसे आज के सामाजिक, राजनीतिक, साहित्यिक, शैक्षणिक, प्रशासनिक क्षेत्रों मे ही नहीं बल्कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में देखा जा सकता है। भारतीय समाज व्यवस्था में व्यक्ति के पैदा होते ही उसकी योग्यता, श्रेष्ठता जन्म के आधार पर तय हो जाती है, जो जीवन भर चलती रहती है। क्या यह आधार लोकतंत्र की मूलभावना के खिलाफ नहीं जाता है। हिन्दी साहित्य में भी आधुनिक काल से ही समाज के प्रत्येक वर्ग को स्थान दिया जाने लगा था। जिसके लिए प्रेमचन्द जैसे लेखक स्मरणीय हैं। यह सच है कि प्रेमचन्द समाज का अंग बनकर जिए, इसीलिए वे समाज-व्यवस्था से असन्तुष्ट थे और उसे तोड़ने के लिए अपनी रचनाधर्मिता का भरपूर इस्तेमाल भी किया। समाज की वास्तविकताओं से हटकर साहित्य का कोई अर्थ उनके लिए नहीं था। साहित्य का उत्तरदायित्व सामाजिक परिवर्तन के लिए होता है इस बात को वे गहरे अर्थबोध के साथ महसूस करते थे।

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